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सहकारी बैंकों में संकट और आगे का रास्ता

देश के सबसे बड़े शहरी ऋणदाताओं में से एक, पंजाब और महाराष्ट्र सहकारी बैंक (पीएमसी) में हाल ही में हुए घोटाले ने सहकारी बैंकों के काम करने के तरीकों को सुर्खियों में पहुंचा दिया है. भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) ने इस बैंक से पैसे निकालने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है. पिछले कुछ हफ्तों से बैंक ग्राहक दहशत में हैं और अबतक चार जमाकर्ताओं की मौत हो चुकी है. आरबीआई को जनता को पुनः आश्वस्त करना पड़ा कि भारतीय बैंकिंग सुरक्षित और स्थिर है और इसमें घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है. इस संदर्भ में, लोगों के बीच बैंकिंग के प्रति विश्वास और वित्तीय क्षेत्र के समग्र स्वास्थ्य को बहाल करने के लिए इन बैंकों की वर्तमान स्थिति, उनकी चुनौतियों और आगे बढ़ने के तरीके की जांच करना महत्वपूर्ण है.

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Published : Oct 28, 2019, 11:59 PM IST

वर्तमान स्थिति और चुनौतियां सहकारी संस्थाएं विशेष रूप से उस आबादी में ऋण वितरण की महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं जिनके खाते बैंकों में नहीं हैं. 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारतीय सहकारी आंदोलन की उत्पत्ति हुई, जब इसे गांवों में साहूकारों के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया गया. मूल रूप से, सहकारी बैंक छोटे उधारकर्ताओं और व्यवसायों को उधार देने वाले समुदायों और इलाकों पर केंद्रित रहे हैं. अधिक ब्याज दरों और व्यक्तिगत ध्यान दिए जाने के कारण जमाकर्ता इन बैंकों की ओर आकर्षित होते हैं. वर्तमान में, सहकारी प्रणाली में 1,551 शहरी सहकारी बैंक (यूसीबी) और 2018 में 96,612 ग्रामीण सहकारी समितियां शामिल हैं. जहां ग्रामीण सहकारी समितियां अपने भौगोलिक और जनसांख्यिकीय पहुँच के माध्यम से गांवों और छोटे शहरों में वित्तीय सेवाएं प्रदान करती हैं, वहीं यूसीबी शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में ऋण प्रदान करते हैं.

ध्यान देने वाली बात है कि सहकारी बैंकों की वृद्धि बैंकिंग क्षेत्र के समग्र विकास के अनुरूप नहीं हुई है. परिणामस्वरूप, 2017 में अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों (एससीबी) की कुल संपत्ति में उसकी हिस्सेदारी केवल 11% रही जबकि 2004-5 में 19% थी. भारत में बैंकिंग की प्रवृत्ति और प्रगति पर भारतीय रिज़र्व बैंक की रिपोर्ट 2017-18 भारत में सहकारी बैंकों की वर्तमान स्थिति पर प्रकाश डालती है. ग्रामीण सहकारी समितियों के भीतर परिसंपत्ति की गुणवत्ता और लाभप्रदता के मामले में प्रदर्शन अलग अलग है. जबकि राज्य सहकारी बैंकों ने एनपीए अनुपात और लाभप्रदता में सुधार किया, डीसीसीबी के मामले में दोनों मापदंडों पर खरे नहीं उतरे. कृषि में दीर्घकालिक सहकारी संस्थानों का वित्तीय प्रदर्शन संतोषजनक नहीं रहा है और स्तिथि और खराब हुई है.
शहरी सहकारी समितियों के बारे में, आरबीआई के आंकड़ों से पता चलता है कि हालांकि संपत्ति की गुणवत्ता में सुधार हुआ है, कुल मिलाकर लाभप्रदता में कमी आई है. 1551 बैंकों में, 26 नियामक के 'दिशानिर्देश' के अधीन थे और 46 का मूल्य ऋणात्मक था. शहरी सहकारी बैंकों में कई घोटाले हुए हैं. उदाहरण के तौर पर, 2001 में गुजरात में माधवपुरा सहकारी बैंक में एक बहुत बड़ा घोटाला हुआ था, इसमें स्टॉक ब्रोकर केतन पारेख को दिए गए ऋणों के रूप में संपत्ति का एक महत्वपूर्ण प्रतिशत था.

पीएमसी में हालिया घोटाले के मामले में, तीन समस्याएं हैं:

(ए) प्रमुख वित्तीय अनियमितताएं;
(बी) आंतरिक नियंत्रण और बैंक की प्रणालियों की विफलता;
(c) इसकी पहुँच का गलत / कम आंकना.

यह सर्वविदित है कि पीएमसी बैंक ने अपनी संपत्ति का 73% एचडीआईएल (हाउसिंग डेवलपमेंट एंड इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड) को दिया है. इस बैंक में आरबीआई के पर्यवेक्षण से छिपाने के लिए 21000 से अधिक खातों का उपयोग किया गया है ताकि उनके नाम सामने न आयें जिनको पैसा दिया गया है. ये एक बहुत बड़ा फर्जीवाड़ा है जिसमें रियल एस्टेट की एक इकाई को लाभान्वित करके के लिए कई जाली खतों की आड़ ली गयी है.

1966 में सहकारी बैंक आरबीआई की सीधी निगरानी में तहत आ तो गये थे लेकिन उन्हें दोहरे विनियमन की समस्या का सामना करना पड़ा. एकल राज्य में शहरी सहकारी बैंकों को आरबीआई और सहकारी समितियों के राज्य रजिस्ट्रार (आरसीएस) द्वारा विनियमित किया जाता है, और जब कई राज्यों में हो तो सहकारी समितियों के केंद्रीय रजिस्ट्रार (सीआरसीएस) द्वारा विनिमियत किया जाता है.

आरसीएस ऑडिटिंग के साथ-साथ चुनाव प्रबंधन और कई और प्रशासनिक जिम्मेदारियों को निभाता है. आरबीआई पर्यवेक्षण में लाइसेंस देने, नकदी आरक्षित बनाए रखने, वैधानिक तरलता और पूंजी पर्याप्तता अनुपात और इन बैंकों के निरीक्षण जैसे सभी नियामक पहलूओं में शामिल हैं. लेकिन, ऐसी भावना है कि सहकारी बैंकों पर दोहरे नियंत्रण के कारण किसी का अधिक नियंत्रण नहीं है जैसा आरबीआई का निजी क्षेत्र के बैंकों पर नियंत्रण है.

भारतीय रिज़र्व बैंक ने 1993-2004 के दौरान शहरी सहकारी बैंकों के लिए एक सक्रिय लाइसेंसिंग नीति का अनुसरण किया जिसके कारण उनकी संख्या में तेज वृद्धि हुई. इसके बाद, जैसे-जैसे इस क्षेत्र में समस्याएं और तनाव स्पष्ट होते गए, भारतीय रिज़र्व बैंक ने नए लाइसेंस जारी करना बंद कर दिए और अपने विज़न डॉक्यूमेंट में उचित विनियामक और पर्यवेक्षी नीतियों को शामिल किया जिसमें कमजोर लेकिन व्यवहार्य शहरी सरकारी बैंकों का विलय / समामेलन शामिल था और अलाभकारी बैंकों को बंद करना था.

सही नियामक जांचों के बावजूद, कमजोर कॉर्पोरेट प्रशासन, व्यावसायिकता की कमी और अपनाई गई प्रौद्योगिकी में अनिच्छा के कारण कुछ चिंताएं बनी रहीं हैं. अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों के विस्तार और उनके द्वारा प्रौद्योगिकी को अपनाने के साथ सहकारी बैंकों की भूमिका में गिरावट आई है. उन्हें भुगतान बैंकों, छोटे वित्तीय बैंकों और एनबीएफसी या गैर बैंकिंग वित्तीय निगम से प्रतिस्पर्धा का भी सामना करना पड़ रहा है. इसमें पूंजी से जुड़े मुद्दे भी हैं. शहरी सहकारी संस्थाएं सार्वजनिक निर्गम या प्रीमियम पर शेयरों को जारी करके पूंजी नहीं जुटा सकतीं हैं.

सहकारी संरचना में समस्या यह है कि उसमें पेशेवर बोर्ड के सदस्य नहीं हो सकते हैं. सहकारी बैंक के निदेशक मंडल का चुनाव बैंक के सदस्यों द्वारा किया जाता है और इस प्रक्रिया में अक्सर राजनेताओं द्वारा बैंक पर नियंत्रण प्राप्त करने के लिए अपना दांव खेला जाता है. कई राज्यों में, ऐसे संस्थानों पर राजनीतिक नियंत्रण ऋण के माध्यम से ही ऐसे नौकरियों के माध्यम से राजनीतिक संरक्षण एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.

आगे की राह क्या है?
जमाकर्ताओं और अन्य हितधारकों के विश्वास को बनाए रखने के लिए सहकारी बैंकों के विनियमन और शासन पर ध्यान देने की आवश्यकता है. नियामक आरबीआई और सरकार को ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति से बचने के लिए वर्तमान वित्तीय परिदृश्य में सहकारी बैंकों के महत्व का पुनः मूल्यांकन करने की सख्त ज़रुरत है.

एक भावना है कि सहकारी बैंकों में से कुछ में शासन की कमी है. बैंक बोर्ड, लेखा परीक्षक, बैंक प्रबंधन, रेटिंग एजेंसियां ​​और नियामक शासन की कमी और खराब विनियमन इसके लिए जिम्मेदार रहे हैं. हमें बेहतर प्रशासन के साथ जमाकर्ताओं और अन्य के बीच विश्वास का पुनर्निर्माण करने की आवश्यकता है.

हालांकि, भारतीय रिज़र्व बैंक और राज्य सरकार के बीच समझौता ज्ञापन मौजूद है, लेकिन तबतक पर्यवेक्षण अप्रभावी होने की संभावना है जब तक कि राज्य सरकारें नियमों को सुचारू रूप से क्रियान्वयन करने में सहयोग नहीं करती हैं. भारतीय रिज़र्व बैंक सहकारी ऋणदाताओं को पेशेवर रूप से कार्य करने के लिए प्रेरित कर रहा है.

एच. मालेगाम के तहत एक समिति का गठन हुआ था, जिसने निदेशक मंडल के अलावा, प्रबंधन के बोर्ड में उचित और उपयुक्त सदस्यों को शामिल करने की सिफारिश की थी. चुने गए निदेशकों के विपरीत संचालन करने का वास्तविक नियंत्रण प्रबंधन का बोर्ड को सौंपने का विचार था. निर्देशकों के चयन में बदलाव की आवश्यकता है और उसमें विशेषज्ञताप्राप्त ज्ञान और पेशेवर प्रबंधन कौशल वाले सदस्य होने चाहिए.

2018 में, भारतीय रिज़र्व बैंक ने आर. गांधी की अध्यक्षता में एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति की सिफारिशों के अनुसार एक योजना की घोषणा की जिसके अनुसार योग्य शेहरी सहकारी बैंकों को लघु वित्तीय बैंकों में बगाने की बात की गयी थी. इससे उन्हें ज्यादातर ऐसे उत्पाद मिलेंगे, जो वर्तमान में वाणिज्यिक बैंकों के लिए स्वीकार्य हैं और उन्हें अखिल भारतीय उपस्थिति प्राप्त करने में मदद भी करेंगे.

50 करोड़ रुपये और उससे अधिक की न्यूनतम निवल मूल्य वाले शहरी सहकारी बैंक स्वैच्छिक रूपांतर के लिए पात्र होंगे. लेकिन, हैरानी नहीं है कि छोटे वित्तीय बैंक बनाये जाने पर इस क्षेत्र में प्रतिरोध के स्वर उठने लगे है. आरबीआई ऐसे में, कह सकता है कि आगे बढ़ने के लिए बड़े शहरी सहकारी बैंकों को प्रबंधन बोर्ड नियुक्त करना चाहिए जो उपयुक्त और उचित मानदंडों पर खरा उतरता हो अन्यथा छोटे वित्तीय बैंक बनने की स्थिति को स्वीकार कर लेना चाहिए.

आरबीआई ने यह भी कहा है कि शहरी सहकारी बैंकों को एक संयुक्त स्टॉक कंपनी के रूप में बाजार से पूंजी जुटाने के लिए बैंकों द्वारा खुद को बढ़ावा देने वाला एक बहुसमावेशी संगठन के रूप में प्रस्तुत करना होगा. कमज़ोर बैंकों को मज़बूत स्थिति वाले बैंकों में विलय करने के लिए प्रोत्साहित करना होगा.

अन्य बैंकों के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए सहकारी बैंकों में प्रौद्योगिकी के उपयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. हमें ऐसे बड़े शहरी सहकारी बैंक में अन्य सहकारी बैंकों की जमा राशि पर भी ध्यान देना चाहिए. शायद यह समीक्षा करने का समय है कि क्या एक शहरी सहकारी बैंक को अन्य शहरी सहकारी बैंकों की जमा राशि स्वीकार करनी चाहिए. बड़े शहरी सहकारी बैंक में पूँजी की विफलता अब जगजाहिर है. जमाकर्ताओं के हित और वित्तीय स्थिरता के मुद्दे को ध्यान में रखते हुए, शहरी सहकारी बैंकों की आपसी जमा की नीति को फिर से संशोधित करने की आवश्यकता है.

जमाराशि का बीमा भारतीय बैंकिंग में एक और मुद्दा है. वर्तमान में, डिपॉजिट इंश्योरेंस एंड क्रेडिट गारंटी कॉरपोरेशन (डीआईसीडीसी) द्वारा जमाराशि का बीमा कवर 1 लाख रुपये प्रति जमाकर्ता है. भारत के बैंक में जमाराशि के कवर औसत से नीचे रहा है, इसमें अभूत समय से संशोधन करने की ज़रुरत रही है. मगर बड़ी बीमा राशि इस समस्या का समाधान नहीं है.

इतिहास गवाह है कि भारत में बैंकों के परेशान जमाकर्ताओं को अक्सर कई साल मुसीबत सहनी पड़ती है और कई बाधाओं को पार करने के बाद ही कहीं जाकर वे बीमा राशि को हासिल कर पाते हैं. भारतीय रिज़र्व बैंक और सरकार को न सिर्फ बीमा राशि को बढ़ाना होगा बल्कि यह भी सुनिश्चित करना होगा की जमाकर्ता समय रहते उसे प्राप्त कर सकें.

ऐसी सूचना है कि सरकार को बैंक में जमाराशि के बीमा कवर की समीक्षा कर रही है. यह एक महत्वपूर्ण बहस का मुद्दा है की क्या बैंक की विफलता से जमाकर्ता को बिलकुल भी प्रभावित होना चाहिए. प्रभावित बैंक की समस्याओं को जल्द से जल्द हल किया जाना चाहिए ताकि जमाकर्ताओं को अपनी जमा राशि जल्द से जल्द वापस मिल सके.

निष्कर्ष में, सहकारी बैंकों के हाल के घटनाक्रमों ने एक व्यापक ढांचे के साथ आने का एक अच्छा अवसर प्रदान किया है, क्योंकि भारत में अभी तक आम आदमी की बचत की सुरक्षा के लिए पर्याप्त वित्तीय व्यवस्था नहीं है. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा है कि यदि प्रभावी मूल्यांकन को लागू करने के लिए विधायी संशोधनों की आवश्यकता है तो सरकार इसका आकलन करेगी. उन्होंने भारतीय रिज़र्व बैंक के साथ मंत्रालय के सचिवों को सहकारी क्षेत्र के मुद्दे के घटनाक्रम का विस्तार से अध्ययन करने के लिए कहा था.

जिन तरीकों से संबंधित अधिनियमों में संशोधन किया जाएगा, इन बैठकों में उन पर भी चर्चा की जाएगी. अगर ऐसा होता है, तो यह सिर्फ पीएमसी संकट से उभरने के लिए एक उम्मीद की किरण है. उम्मीद है कि आरबीआई और सरकार जल्द कार्रवाई के साथ सहकारी बैंकों के ग्राहकों का विश्वास लौट सकेगा.

लेखक- एस. महेंद्र देव (कुलपति, आईजीआईडीआर, मुंबई)

वर्तमान स्थिति और चुनौतियां सहकारी संस्थाएं विशेष रूप से उस आबादी में ऋण वितरण की महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं जिनके खाते बैंकों में नहीं हैं. 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारतीय सहकारी आंदोलन की उत्पत्ति हुई, जब इसे गांवों में साहूकारों के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया गया. मूल रूप से, सहकारी बैंक छोटे उधारकर्ताओं और व्यवसायों को उधार देने वाले समुदायों और इलाकों पर केंद्रित रहे हैं. अधिक ब्याज दरों और व्यक्तिगत ध्यान दिए जाने के कारण जमाकर्ता इन बैंकों की ओर आकर्षित होते हैं. वर्तमान में, सहकारी प्रणाली में 1,551 शहरी सहकारी बैंक (यूसीबी) और 2018 में 96,612 ग्रामीण सहकारी समितियां शामिल हैं. जहां ग्रामीण सहकारी समितियां अपने भौगोलिक और जनसांख्यिकीय पहुँच के माध्यम से गांवों और छोटे शहरों में वित्तीय सेवाएं प्रदान करती हैं, वहीं यूसीबी शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में ऋण प्रदान करते हैं.

ध्यान देने वाली बात है कि सहकारी बैंकों की वृद्धि बैंकिंग क्षेत्र के समग्र विकास के अनुरूप नहीं हुई है. परिणामस्वरूप, 2017 में अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों (एससीबी) की कुल संपत्ति में उसकी हिस्सेदारी केवल 11% रही जबकि 2004-5 में 19% थी. भारत में बैंकिंग की प्रवृत्ति और प्रगति पर भारतीय रिज़र्व बैंक की रिपोर्ट 2017-18 भारत में सहकारी बैंकों की वर्तमान स्थिति पर प्रकाश डालती है. ग्रामीण सहकारी समितियों के भीतर परिसंपत्ति की गुणवत्ता और लाभप्रदता के मामले में प्रदर्शन अलग अलग है. जबकि राज्य सहकारी बैंकों ने एनपीए अनुपात और लाभप्रदता में सुधार किया, डीसीसीबी के मामले में दोनों मापदंडों पर खरे नहीं उतरे. कृषि में दीर्घकालिक सहकारी संस्थानों का वित्तीय प्रदर्शन संतोषजनक नहीं रहा है और स्तिथि और खराब हुई है.
शहरी सहकारी समितियों के बारे में, आरबीआई के आंकड़ों से पता चलता है कि हालांकि संपत्ति की गुणवत्ता में सुधार हुआ है, कुल मिलाकर लाभप्रदता में कमी आई है. 1551 बैंकों में, 26 नियामक के 'दिशानिर्देश' के अधीन थे और 46 का मूल्य ऋणात्मक था. शहरी सहकारी बैंकों में कई घोटाले हुए हैं. उदाहरण के तौर पर, 2001 में गुजरात में माधवपुरा सहकारी बैंक में एक बहुत बड़ा घोटाला हुआ था, इसमें स्टॉक ब्रोकर केतन पारेख को दिए गए ऋणों के रूप में संपत्ति का एक महत्वपूर्ण प्रतिशत था.

पीएमसी में हालिया घोटाले के मामले में, तीन समस्याएं हैं:

(ए) प्रमुख वित्तीय अनियमितताएं;
(बी) आंतरिक नियंत्रण और बैंक की प्रणालियों की विफलता;
(c) इसकी पहुँच का गलत / कम आंकना.

यह सर्वविदित है कि पीएमसी बैंक ने अपनी संपत्ति का 73% एचडीआईएल (हाउसिंग डेवलपमेंट एंड इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड) को दिया है. इस बैंक में आरबीआई के पर्यवेक्षण से छिपाने के लिए 21000 से अधिक खातों का उपयोग किया गया है ताकि उनके नाम सामने न आयें जिनको पैसा दिया गया है. ये एक बहुत बड़ा फर्जीवाड़ा है जिसमें रियल एस्टेट की एक इकाई को लाभान्वित करके के लिए कई जाली खतों की आड़ ली गयी है.

1966 में सहकारी बैंक आरबीआई की सीधी निगरानी में तहत आ तो गये थे लेकिन उन्हें दोहरे विनियमन की समस्या का सामना करना पड़ा. एकल राज्य में शहरी सहकारी बैंकों को आरबीआई और सहकारी समितियों के राज्य रजिस्ट्रार (आरसीएस) द्वारा विनियमित किया जाता है, और जब कई राज्यों में हो तो सहकारी समितियों के केंद्रीय रजिस्ट्रार (सीआरसीएस) द्वारा विनिमियत किया जाता है.

आरसीएस ऑडिटिंग के साथ-साथ चुनाव प्रबंधन और कई और प्रशासनिक जिम्मेदारियों को निभाता है. आरबीआई पर्यवेक्षण में लाइसेंस देने, नकदी आरक्षित बनाए रखने, वैधानिक तरलता और पूंजी पर्याप्तता अनुपात और इन बैंकों के निरीक्षण जैसे सभी नियामक पहलूओं में शामिल हैं. लेकिन, ऐसी भावना है कि सहकारी बैंकों पर दोहरे नियंत्रण के कारण किसी का अधिक नियंत्रण नहीं है जैसा आरबीआई का निजी क्षेत्र के बैंकों पर नियंत्रण है.

भारतीय रिज़र्व बैंक ने 1993-2004 के दौरान शहरी सहकारी बैंकों के लिए एक सक्रिय लाइसेंसिंग नीति का अनुसरण किया जिसके कारण उनकी संख्या में तेज वृद्धि हुई. इसके बाद, जैसे-जैसे इस क्षेत्र में समस्याएं और तनाव स्पष्ट होते गए, भारतीय रिज़र्व बैंक ने नए लाइसेंस जारी करना बंद कर दिए और अपने विज़न डॉक्यूमेंट में उचित विनियामक और पर्यवेक्षी नीतियों को शामिल किया जिसमें कमजोर लेकिन व्यवहार्य शहरी सरकारी बैंकों का विलय / समामेलन शामिल था और अलाभकारी बैंकों को बंद करना था.

सही नियामक जांचों के बावजूद, कमजोर कॉर्पोरेट प्रशासन, व्यावसायिकता की कमी और अपनाई गई प्रौद्योगिकी में अनिच्छा के कारण कुछ चिंताएं बनी रहीं हैं. अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों के विस्तार और उनके द्वारा प्रौद्योगिकी को अपनाने के साथ सहकारी बैंकों की भूमिका में गिरावट आई है. उन्हें भुगतान बैंकों, छोटे वित्तीय बैंकों और एनबीएफसी या गैर बैंकिंग वित्तीय निगम से प्रतिस्पर्धा का भी सामना करना पड़ रहा है. इसमें पूंजी से जुड़े मुद्दे भी हैं. शहरी सहकारी संस्थाएं सार्वजनिक निर्गम या प्रीमियम पर शेयरों को जारी करके पूंजी नहीं जुटा सकतीं हैं.

सहकारी संरचना में समस्या यह है कि उसमें पेशेवर बोर्ड के सदस्य नहीं हो सकते हैं. सहकारी बैंक के निदेशक मंडल का चुनाव बैंक के सदस्यों द्वारा किया जाता है और इस प्रक्रिया में अक्सर राजनेताओं द्वारा बैंक पर नियंत्रण प्राप्त करने के लिए अपना दांव खेला जाता है. कई राज्यों में, ऐसे संस्थानों पर राजनीतिक नियंत्रण ऋण के माध्यम से ही ऐसे नौकरियों के माध्यम से राजनीतिक संरक्षण एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.

आगे की राह क्या है?
जमाकर्ताओं और अन्य हितधारकों के विश्वास को बनाए रखने के लिए सहकारी बैंकों के विनियमन और शासन पर ध्यान देने की आवश्यकता है. नियामक आरबीआई और सरकार को ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति से बचने के लिए वर्तमान वित्तीय परिदृश्य में सहकारी बैंकों के महत्व का पुनः मूल्यांकन करने की सख्त ज़रुरत है.

एक भावना है कि सहकारी बैंकों में से कुछ में शासन की कमी है. बैंक बोर्ड, लेखा परीक्षक, बैंक प्रबंधन, रेटिंग एजेंसियां ​​और नियामक शासन की कमी और खराब विनियमन इसके लिए जिम्मेदार रहे हैं. हमें बेहतर प्रशासन के साथ जमाकर्ताओं और अन्य के बीच विश्वास का पुनर्निर्माण करने की आवश्यकता है.

हालांकि, भारतीय रिज़र्व बैंक और राज्य सरकार के बीच समझौता ज्ञापन मौजूद है, लेकिन तबतक पर्यवेक्षण अप्रभावी होने की संभावना है जब तक कि राज्य सरकारें नियमों को सुचारू रूप से क्रियान्वयन करने में सहयोग नहीं करती हैं. भारतीय रिज़र्व बैंक सहकारी ऋणदाताओं को पेशेवर रूप से कार्य करने के लिए प्रेरित कर रहा है.

एच. मालेगाम के तहत एक समिति का गठन हुआ था, जिसने निदेशक मंडल के अलावा, प्रबंधन के बोर्ड में उचित और उपयुक्त सदस्यों को शामिल करने की सिफारिश की थी. चुने गए निदेशकों के विपरीत संचालन करने का वास्तविक नियंत्रण प्रबंधन का बोर्ड को सौंपने का विचार था. निर्देशकों के चयन में बदलाव की आवश्यकता है और उसमें विशेषज्ञताप्राप्त ज्ञान और पेशेवर प्रबंधन कौशल वाले सदस्य होने चाहिए.

2018 में, भारतीय रिज़र्व बैंक ने आर. गांधी की अध्यक्षता में एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति की सिफारिशों के अनुसार एक योजना की घोषणा की जिसके अनुसार योग्य शेहरी सहकारी बैंकों को लघु वित्तीय बैंकों में बगाने की बात की गयी थी. इससे उन्हें ज्यादातर ऐसे उत्पाद मिलेंगे, जो वर्तमान में वाणिज्यिक बैंकों के लिए स्वीकार्य हैं और उन्हें अखिल भारतीय उपस्थिति प्राप्त करने में मदद भी करेंगे.

50 करोड़ रुपये और उससे अधिक की न्यूनतम निवल मूल्य वाले शहरी सहकारी बैंक स्वैच्छिक रूपांतर के लिए पात्र होंगे. लेकिन, हैरानी नहीं है कि छोटे वित्तीय बैंक बनाये जाने पर इस क्षेत्र में प्रतिरोध के स्वर उठने लगे है. आरबीआई ऐसे में, कह सकता है कि आगे बढ़ने के लिए बड़े शहरी सहकारी बैंकों को प्रबंधन बोर्ड नियुक्त करना चाहिए जो उपयुक्त और उचित मानदंडों पर खरा उतरता हो अन्यथा छोटे वित्तीय बैंक बनने की स्थिति को स्वीकार कर लेना चाहिए.

आरबीआई ने यह भी कहा है कि शहरी सहकारी बैंकों को एक संयुक्त स्टॉक कंपनी के रूप में बाजार से पूंजी जुटाने के लिए बैंकों द्वारा खुद को बढ़ावा देने वाला एक बहुसमावेशी संगठन के रूप में प्रस्तुत करना होगा. कमज़ोर बैंकों को मज़बूत स्थिति वाले बैंकों में विलय करने के लिए प्रोत्साहित करना होगा.

अन्य बैंकों के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए सहकारी बैंकों में प्रौद्योगिकी के उपयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. हमें ऐसे बड़े शहरी सहकारी बैंक में अन्य सहकारी बैंकों की जमा राशि पर भी ध्यान देना चाहिए. शायद यह समीक्षा करने का समय है कि क्या एक शहरी सहकारी बैंक को अन्य शहरी सहकारी बैंकों की जमा राशि स्वीकार करनी चाहिए. बड़े शहरी सहकारी बैंक में पूँजी की विफलता अब जगजाहिर है. जमाकर्ताओं के हित और वित्तीय स्थिरता के मुद्दे को ध्यान में रखते हुए, शहरी सहकारी बैंकों की आपसी जमा की नीति को फिर से संशोधित करने की आवश्यकता है.

जमाराशि का बीमा भारतीय बैंकिंग में एक और मुद्दा है. वर्तमान में, डिपॉजिट इंश्योरेंस एंड क्रेडिट गारंटी कॉरपोरेशन (डीआईसीडीसी) द्वारा जमाराशि का बीमा कवर 1 लाख रुपये प्रति जमाकर्ता है. भारत के बैंक में जमाराशि के कवर औसत से नीचे रहा है, इसमें अभूत समय से संशोधन करने की ज़रुरत रही है. मगर बड़ी बीमा राशि इस समस्या का समाधान नहीं है.

इतिहास गवाह है कि भारत में बैंकों के परेशान जमाकर्ताओं को अक्सर कई साल मुसीबत सहनी पड़ती है और कई बाधाओं को पार करने के बाद ही कहीं जाकर वे बीमा राशि को हासिल कर पाते हैं. भारतीय रिज़र्व बैंक और सरकार को न सिर्फ बीमा राशि को बढ़ाना होगा बल्कि यह भी सुनिश्चित करना होगा की जमाकर्ता समय रहते उसे प्राप्त कर सकें.

ऐसी सूचना है कि सरकार को बैंक में जमाराशि के बीमा कवर की समीक्षा कर रही है. यह एक महत्वपूर्ण बहस का मुद्दा है की क्या बैंक की विफलता से जमाकर्ता को बिलकुल भी प्रभावित होना चाहिए. प्रभावित बैंक की समस्याओं को जल्द से जल्द हल किया जाना चाहिए ताकि जमाकर्ताओं को अपनी जमा राशि जल्द से जल्द वापस मिल सके.

निष्कर्ष में, सहकारी बैंकों के हाल के घटनाक्रमों ने एक व्यापक ढांचे के साथ आने का एक अच्छा अवसर प्रदान किया है, क्योंकि भारत में अभी तक आम आदमी की बचत की सुरक्षा के लिए पर्याप्त वित्तीय व्यवस्था नहीं है. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा है कि यदि प्रभावी मूल्यांकन को लागू करने के लिए विधायी संशोधनों की आवश्यकता है तो सरकार इसका आकलन करेगी. उन्होंने भारतीय रिज़र्व बैंक के साथ मंत्रालय के सचिवों को सहकारी क्षेत्र के मुद्दे के घटनाक्रम का विस्तार से अध्ययन करने के लिए कहा था.

जिन तरीकों से संबंधित अधिनियमों में संशोधन किया जाएगा, इन बैठकों में उन पर भी चर्चा की जाएगी. अगर ऐसा होता है, तो यह सिर्फ पीएमसी संकट से उभरने के लिए एक उम्मीद की किरण है. उम्मीद है कि आरबीआई और सरकार जल्द कार्रवाई के साथ सहकारी बैंकों के ग्राहकों का विश्वास लौट सकेगा.

लेखक- एस. महेंद्र देव (कुलपति, आईजीआईडीआर, मुंबई)

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