चंडीगढ़ः देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की मौजूदा हालत पूरे देश में खराब है. हरियाणा में भी कांग्रेस की स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती है. हालांकि 2014 के मुकाबले 2019 में पार्टी ने वापसी की कोशिश जरूर की है. इसमें कुछ हद तक सफल भी लेकिन सत्ता से दूर हो गई. ऐसा पहली बार नहीं है जब कांग्रेस के दिन बुरे हुए हों. हरियाणा में पहले भी कांग्रेस इससे बुरी स्थिति का सामना कर चुकी है, लेकिन 1977 को छोड़ दिया जाये तो कभी भी कांग्रेस का राष्ट्रीय नेतृत्व इतना बेअसर नहीं दिखा.
यही वजह है कि वापसी के रास्ते कांग्रेस के लिए कठिन और कांटो भरे नजर आते हैं. सवाल ये है कि क्या कांग्रेस अब भी अपनी खोई साख को पाने में सक्षम है. और अगर हां, तो वो कौन है, जो कांग्रेस को हरियाणा में सत्ता के शिखर पर वापस ला सकता है. ये समझने के लिए हमें इतिहास में झांकना होगा और चुनाव दर चुनाव देखना होगा कि कांग्रेस कैसे अर्श से फर्श तक पहुंची और वापस अर्श तक पहुंचने में और कितना अरसा लगेगा.
हरियाणा का पहला विधानसभा चुनाव
1 नवंबर 1966 को हरियाणा का गठन हुआ और संयुक्त पंजाब के हरियाणवी कांग्रेस विधायक भगवत दयाल शर्मा ने प्रदेश की कमान संभाली, मात्र 3 महीने 21 दिन बाद ही प्रदेश में पहला विधानसभा चुनाव हुआ. उस वक्त हरियाणा में विधानसभा की 81 सीटें थीं. और कांग्रेस ने 81 में से 48 सीटें जीतकर सरकार बनाई. 10 मार्च 1967 को भगवत दयाल शर्मा फिर से मुख्यमंत्री बने, उनका जश्न जब तक खत्म होता उससे पहले ही कांग्रेस में उनके खिलाफ बगावत हो गई और 13 दिन के अंदर भगवत दयाल शर्मा को कुर्सी छोड़नी पड़ी. इसके बाद एक साल तक प्रदेश में दलबदल का ऐसा खेल चला कि राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा.
1968 का मध्यावधि चुनाव
12 मई 1968 को प्रदेश में मध्यावधि चुनाव हुए और एक बार फिर कांग्रेस ने बहुमत हासिल किया, लेकिन कांग्रेस में फिर से खींचतान शुरू हो गई, जिसे सुलझाने की जिम्मेदारी हाईकमान ने गुलजारी लाल नंदा और भगवत दयाल शर्मा को दी. जिसके बाद बंसीलाल के नाम पर सहमति बनी, उस वक्त बंसीलाल को गुलजारी लाल नंदा का करीबी होने का फायदा मिला और वो 21 मई 1968 को हरियाणा के मुख्यमंत्री बन गए. इस दौरान कांग्रेस की मजबूती का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मध्यावधि चुनाव में भी कांग्रेस ने अपना पिछला प्रदर्शन दोहराया और 81 में से 48 सीटें जीती.
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1972 का विधानसभा चुनाव
बंसीलाल ने आया राम, गया राम की राजनीति पर नकेल कसी और 1972 में फिर से मुख्यमंत्री बने. उन्होंने अपनी दबंग छवि से ना सिर्फ अफसरशाही पर नकेल कसी बल्कि केंद्र में भी अपनी पकड़ बनाई, यही वजह रही कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें केंद्र में बुला लिया. अब सवाल था कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा, लेकिन इन सब सवालों के जवाब बंसीलाल के पास ही थे उनकी पकड़ उस वक्त कांग्रेस में इतनी मजबूत थी कि 1 दिसंबर 1975 को बंसीलाल के विश्वासपात्र बनारसी दास गुप्ता को वो सत्ता सौंपकर दिल्ली के लिए रवाना हो गए. ये वो दौर था जब प्रदेश में कांग्रेस लगातार अपना जनाधार बढ़ा रही थी. इसकी बानगी ये थी कि कांग्रेस ने इस बार 1968 के मुकाबले 81 सीटों में से 52 पर जीत हासिल की.
आपातकाल के बाद बुरी हारी कांग्रेस
1975 में इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगा दिया, जिसके बाद 1977 में जब लोकसभा चुनाव हुए तो कांग्रेस बुरी तरह हार गई और केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी. हरियाणा में भी इसका असर हुआ और राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया. इसके बाद जून 1977 में ही प्रदेश में आम चुनाव हुए और जनता पार्टी भारी बहुमत से जीती. कांग्रेस को इस चुनाव में जनता के गुस्से का ऐसा सामना करना पड़ा कि वो मात्र 3 सीटों पर सिमट गई. कांग्रेस की हालत उस वक्त ऐसी हो गई थी कि उसके 38 उम्मीदवार अपनी जमानत भी नहीं बचा पाए. इस चुनाव में कांग्रेस ने अभी तक का सबसे खराब प्रदर्शन किया और 90 सीटों में से मात्र 3 सीटें ही जीत पाई.
मात्र 3 साल बाद बिना चुनाव के प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बन गई
छोटे से राज्य हरियाणा की राजनीति को बड़ा किसलिए कहा जाता है इसका उदाहरण आपको 1980 में देखने को मिलता है जब कांग्रेस बिना चुनाव के ही सत्ता में वापस आ गई, दरअसल 1977 में जनता पार्टी की ओर से देवीलाल मुख्यमंत्री बने थे लेकिन 1979 आते-आते भजनलाल ने देवीलाल से सत्ता छीन ली और 1980 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की वापसी के साथ ही वो पूरे दलबल के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए और इस तरह बिना चुनाव के ही कांग्रेस हरियाणा की सत्ता में वापस आ गई.
1982 के चुनाव में कांग्रेस को फिर बहुमत नहीं मिला
राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि 1982 का जब चुनाव हुआ तो कांग्रेस मजबूत नजर आ रही थी लेकिन उसे बहुमत नहीं मिला, लेकिन तत्कालीन राज्यपाल जीडी तपासे ने भजन लाल को शपथ दिलवा दी. दलबदल की राजनीति में पीएचडी की उपाधि से नवाजे गए भजनलाल ने देवीलाल के लाख विरोध के बावजूद बहुमत साबित कर दिया. लेकिन दलबदल के आरोपों और बेजा विरोध की वजह से कांग्रेस ने 1986 में भजनलाल की जगह बंसीलाल को मुख्यमंत्री बना दिया. खास बात ये कि आपातकाल के बाद हुए पहले चुनाव के मुकाबले कांग्रेस ने अपना जनाधार कुछ हद तक वापस पाया लेकिन वो फिर भी 90 में से 36 सीटें ही जीत पाई.
अपनों ने ही किया परेशान
राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि कांग्रेस को पुराने जमाने में सिर्फ कांग्रेस ही हरा सकती थी, यही वजह रही कि हरियाणा में कांग्रेस को कांग्रेस से निकले नेता ही लगातार परेशान करते रहे. लेकिन कांग्रेस ने कभी दबाव नहीं माना और कांग्रेस छोड़कर गए ज्यादातर नेताओं को कांग्रेस में ही वापस आना पड़ा, जिनका जिक्र हम नीचे करेंगे. 1987 में सत्ता गंवाने के बाद कांग्रेस ने 1991 में शानदार जीत दर्ज की, और भजनलाल फिर से सीएम बन गए. लेकिन इसी से नाराज हो कर बंसीलाल ने हरियाणा विकास पार्टी के नाम से नया संगठन बना लिया और 1996 के चुनाव में बीजेपी के साथ मिलकर कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया. इसके बाद प्रदेश में खूब राजनीतिक ड्रामा हुआ लेकिन कांग्रेस अगले चुनाव में भी सत्ता से बाहर ही रही. 1982 से लेकर 2000 तक 5 बार चुनाव हुए और कांग्रेस मात्र एक बार(1991) में ही सरकार बना पाई. आपातकाल में जो जनाधार कांग्रेस ने खोया था उसे वापस पाना कांग्रेस के लिए टेढी खीर साबित हो रहा था. क्योंकि 1991 के चुनाव में 51 सीटों के साथ सरकार बनाने वाली कांग्रेस अगले ही चुनाव में मात्र 9 सीटों पर सिमट कर रह गई थी. ये दौर कांग्रेस की कमजोरी का दौर था जो 2005 में आकर खत्म हुआ.
2005 में कांग्रेस की शानदार वापसी
2 चुनावों से सत्ता से बाहर चल रही कांग्रेस ने 90 में से 67 सीटें जीतकर 2005 में शानदार वापसी की. ये चुनाव भजनलाल के नेतृत्व में लड़ा गया लेकिन कांग्रेस हाईकमान ने हमेशा की तरह चौंकाते हुए भूपेंद्र सिंह हुड्डा को मुख्यमंत्री बनाया. 10 जनपथ के इस फैसले से नाराज होकर भजनलाल ने पार्टी छोड़ दी और हरियाणा जनहित कांग्रेस के नाम से नई पार्टी बना ली. 2009 में जब विधानसभा चुनाव हुए तो हजकां ने बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और कांग्रेस बहुमत से दूर रह गई. लेकिन भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने निर्दलीयों के साथ मिलकर जैसे-तैसे सरकार बनाई और पूरे पांच साल चलाई.
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2014 में कांग्रेस का हुआ बुरा हाल
2014 में नरेंद्र मोदी की चली आंधी से हरियाणा भी अछूता नहीं रहा पहले उसने लोकसभा चुनाव में 9 सीटें गंवाई उसके बाद विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मात्र 15 सीटों से संतोष करना पड़ा, ये पहली बार था जब प्रदेश में कांग्रेस तीसरे नंबर की पार्टी बन गई. लेकिन 2019 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने हार के बावजूद भी अपनी साख वापस पाई और बीजेपी को पूर्ण बहुमत से रोक दिया. 31 सीटों पर कब्जा करने वाली कांग्रेस बीजेपी को गठबंधन सरकार बनाने पर मजबूर किया. और हाल ही में हुए उपचुनाव में भी कांग्रेस ने बीजेपी-जेजेपी गठबंधन को हराया है.
कांग्रेस की इस हालत के कारण क्या ?
गुटबाजी
राजनीतिक विश्लेषक डॉ. सुरेंद्र धीमान कहते हैं कि हमेशा से ही कांग्रेस में दो गुट रहे हैं, कई बार तो ये भी कहा गया कि ये कांग्रेस की रणनीति है, जो जातीय समीकरण साधने के लिए तैयार की जाती है. लेकिन अक्सर ये रणनीति से ज्यादा गुटबाजी की नजर आई. इसीलिए 2014 के बाद से भजनलाल, राव इंद्रजीत, चौधरी बीरेंद्र सिंह और प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर जैसे बड़े नेताओं के साथ करीब 38 नेताओं ने कांग्रेस को अलविदा कह दिया.
संगठन का कमजोर होना
राजनीतिक विश्लेषक डॉ. सुरेंद्र धीमान के मुताबिक हरियाणा में संगठन स्तर पर कांग्रेस की हालत क्या ये समझने के लिए बस इतना काफी है कि 2014 से अब तक पार्टी जिला कार्यकारिणी नहीं बना पाई है. इसमें गुटबाजी का भी अपना रोल रहा है जब अशोक तंवर प्रदेश अध्यक्ष हुआ करते थे तो भूपेंद्र सिंह हुड्डा और उनमें ठनी रहती थी. कई बार तो उनके समर्थक आपस में ही भिड़ जाते थे.
क्या कांग्रेस वापसी कर सकती है ?
राजनीतिक विश्लेषक डॉ. सुरेंद्र धीमान मानते हैं कि कांग्रेस ने कई बार ऐसी स्थितियों से खुद को बाहर निकाला है. जब वो 3 सीटों पर सिमटकर सरकार बना सकती है तो यहां से भी सत्ता में वापसी कर सकती है लेकिन राह आसान नहीं है क्योंकि उनका सामना अब बीजेपी से है और केंद्र की सत्ता से भी कांग्रेस बाहर है.
कांग्रेस की वापसी कौन करवा सकता है ?
राजनीतिक विश्लेषक डॉ. सुरेंद्र धीमान की मानें तो इस वक्त हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा ही ऐसे लीडर दिखाई पड़ते हैं जो उसकी डूबती नैया के खेवनहार बन सकते हैं. यही वजह है कि 2019 के चुनाव से ठीक पहले बगावती तेवर दिखाने वाले हुड्डा को कांग्रेस ने अशोक तंवर के ऊपर तरजीह दी और चुनाव की कमान सौंपी. जिसमें उन्होंने कुछ हद तक अपने हाईकमान को संतुष्ट भी किया. और बीजेपी को दोबारा बहुमत में आने से रोकने में कांग्रेस सफल रही. और 2014 की 15 सीटों के मुकाबले कांग्रेस 31 सीट पर जीत हासिल की.