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जानें, क्यों घुट रहा दिल्ली-एनसीआर का दम व कब मिलेगी इससे निजात ?

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Published : Nov 2, 2020, 10:41 PM IST

Updated : Nov 2, 2020, 11:01 PM IST

दिल्ली में वायु गुणवत्ता 'बहुत खराब' श्रेणी में पहुंच गई है. लॉकडाउन के दौरान वायु गुणवत्ता बहुत ही बेहतर हो गई थी लेकिन एक बार फिर से प्रदूषण का स्तर बढ़ता जा रहा है. इसकी कई वजहें हैं. उनमें सबसे अहम है पराली का जलाना. कितनी गंभीर है यह समस्या और क्या है इसका समाधान, एक विश्लेषण.

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पराली

हैदराबाद : हर साल 15 अक्टूबर से 15 नवंबर के बीच दिल्ली और उससे सटे बड़ी आबादी वाले शहरों नोएडा, गाजियाबाद, गुरुग्राम, फरीदाबाद के लोगों को सांस लेने तक में दिक्कत होने लगती है. सांस लेने की परेशानी वायु में प्रदूषण बढ़ने के कारण होती है और पिछले 10 वर्षों में यह समस्या लगातार विकराल रूप लेती जा रही है. सुप्रीम कोर्ट तक इस पर चिंता जता चुकी है. केंद्र से लेकर राज्य सरकारें इसे रोकने के लिए तरह-तरह के उपाय कर रही हैं मगर 15 अक्टूबर और 15 नवंबर के बीच होने वाले वायु प्रदूषण को रोकने में अब तक नाकाम रही हैं. इसके बाद हर जगह एक ही शब्द सुनाई देता है 'पराली'. आइए आज जानते हैं पराली के बारे में और क्या पराली ही एकमात्र कारण है 15 अक्टूबर से 15 नवंबर के बीच दिल्ली और उससे सटे शहरों में वायु प्रदूषण का? क्यों और कब से पराली की समस्या शुरू हुई? कैसे और कब मिलेगी इससे निजात?

पराली क्या है?

पराली धान के बचे हुए हिस्से को कहते हैं. इसकी जड़ें धरती में होती हैं. किसान धान की फसल पकने के बाद फसल का ऊपरी हिस्सा काट लेते हैं. ऊपरी हिस्सा ही काम का होता है. बाकी का हिस्सा किसान के किसी काम का नहीं होता. इसी बाकी के हिस्से को पराली कहते हैं. राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पराली ज्यादा होने और जलाने की वजह यह भी है कि किसान अपना समय बचाने के लिए मशीनों से धान की कटाई करवाते हैं. मशीनें धान का सिर्फ उपरी हिस्सा काटती हैं और और नीचे का हिस्सा बच जाता है. देश के अन्य हिस्सों के किसान धान को मजदूरों से या स्वयं काटते हैं तो उनके खेतों में पराली नहीं के बराबर बचती है. बाद में किसान इस पराली को चारे के रूप में भी इस्तेमाल करते हैं. राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक तो मजदूरी महंगी है और दूसरे धान की कटाई के वक्त पर्याप्त संख्या में मजदूर उपलब्ध भी नहीं हो पाते. दरअसल, मनरेगा जैसी योजनाओं के चलते किसानों को सस्ते मजदूर नहीं मिलते. पराली जलाने वाले प्रदेशों में पहले बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से मजदूर आया करते थे, परन्तु अब स्थानीय स्तर पर अपने राज्यों में ही मनरेगा के माध्यम से मजदूरी मिलने के चलते कम संख्या में ही ये पलायन करते हैं.

दिल्ली और उसके आसपास के शहर ही क्यों होते हैं प्रभावित?

राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नजदीक होने के कारण दिल्ली और उससे सटे शहरों में पराली का सबसे विभत्स रूप देखने को मिलता हैं. दिल्ली, नोएडा, गाजियाबाद, गुरुग्राम, फरीदाबाद में बड़ी आबादी निवास करती हैं. इसके कारण इन क्षेत्रों में हरित क्षेत्र बहुत कम हैं. औद्योगिक क्षेत्र होने के कारण भी यहां सालों भर वायु प्रदूषण रहता है. इन शहरों में वाहनों की अधिक संख्या भी वायु प्रदूषण को बढ़ाए रखती है. सर्दियों में दिल्ली-एनसीआर की तरफ पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश आदि से हवाएं आती हैं. पंजाब व हरियाणा से ये हवाएं पराली से उत्पन्न प्रदूषण को लाती हैं, जबकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश से प्रदूषण के साथ-साथ नमी भी लाती हैं. इस तरह से प्रदूषण और नमी मिलकर दिल्ली-एनसीआर में एक भयंकर स्मॉग के बादल का निर्माण करते हैं. दिल्ली की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि सर्दियों में यहां हवाएं आकर ठहर सी जाती हैं और दिल्ली के चारों तरफ एक कंबल का निर्माण करती हैं. चेन्नई, मुंबई और कोलकाता जैसे तटीय शहरों की तरह दिल्ली के भी हवाओं में गतिशीलता होती तो प्रदूषण के बादल छट सकते थे, किन्तु समुद्र के न होने के कारण स्थलीय व समुद्री समीर का प्रवाह नहीं होता है और पवनें ठहर सी जाती हैं और दिल्ली-एनसीआर गैस चैंबर में तब्दील हो जाती है.

पराली के कई तरह के हैं समाधान पर हुए फेल

पराली को ट्रैक्टर में छोटी मशीन (रपट) द्वारा काटकर खेत में उसी रपट द्वारा बिखेरा जा सकता है. इससे आगामी फसल को प्राकृतिक खाद मिल जाएगी और प्राकृतिक जीवाणु व लाभकारी कीट जमीन की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के लिए पराली के अवशेषों में ही पल जाएंगे. पराली को मशीनों से उखाड़कर एक जगह 2-3 फीट का खड्डा खोदकर उसमें जमा कर सकते हैं. उसकी एक फुट की तह बनाकर उस पर पानी में घुले हुए गुड़, चीनी, यूरिया, गाय-भैंस का गोबर इत्यादि का घोल छिड़क दें और थोड़ी मिट्टी डालकर हर 1-2 फुट पर इसे दोहरा दें तो एनारोबिक बैक्टीरिया पराली को गलाने में सहायक हो जाते हैं. इतना ही नहीं पराली का प्रयोग चारा और गत्ता बनाने के अलावा बिजली बनाने के लिए भी हो सकता है. गैसीफायर द्वारा गैस बनाकर ईंधन के रूप में मिथेन गैस मिल सकती है. मगर कुछ किसानों को भ्रम है कि पराली जलाने से खेतों को फायदा होता है. वहीं ज्यादातर किसान फसल बिजाई की जल्दी और तमाम तरह के झंझटों से बचने के लिए पराली जलाना ज्यादा पसंद करते हैं.

क्या है जुर्माने का प्रावधान

एनजीटी के आदेशानुसार दो एकड़ में फसलों के अवशेष जलाने पर 2500 हजार रुपये, दो से पांच एकड़ भूमि तक 5 हजार रुपये, 5 एकड़ से अधिक जमीन पर धान के अवशेष जलाने पर 15 हजार रुपये जुर्माना किया जाएगा. इसके लिए जिम्मेदारी सरकार ने जिला राजस्व अधिकारी की तय की है. एनजीटी के अनुसार, यह जुर्माना पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने के लिए लिया जाता है.

सैटलाइट से रखी जा रही है निगाह

नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के आदेश पर हरियाणा राज्य प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड गांवों में निगाह रख रहा है. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारियों के अनुसार किसान के धान के अवशेष जलाने की गतिविधियों पर ग्रामीण कमिटी के साथ सैटलाइट भी नजर रख रहा है. धान के अवशेष जलाने पर जिला कमिटी या ग्रामीण कमिटी कार्रवाई नहीं करेंगी तो सैटलाइट के आधार पर कार्रवाई तय है.

पराली से क्यो होती है जलन और सांस की परेशानी?

पराली को जलाने के बाद निकलने वाले धुएं में कार्बन मोनो ऑक्साइड और कार्बन डाइऑक्साइड गैसों से ओजोन परत फटकर अल्ट्रावायलेट किरणें निकलती हैं. यह अल्ट्रावायलेट किरणें स्किन के लिए घातक सिद्ध होती हैं. इससे आंखों में जलन भी होती है. सांस लेने में दिक्कत और फेफड़ों की बीमारियां हो सकती हैं. हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की आई रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में श्वास संबंधी रोगों से हर वर्ष लाखों लोगों को जान से हाथ धोना पड़ता है.

अब तक के सरकारी प्रयास

केंद्र सरकार ने पराली के उचित प्रबंधन के लिए हैप्पी सीडर जैसी मशीनों में सब्सिडी 50 से 80 प्रतिशत तक दे रही है. पराली प्रबंधन में केंद्र, राज्य एवं अन्य एजेंसियों के बीच सहयोग बढ़ाने के लिए टास्क फोर्स का गठन किया गया है. इसमें प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव, संबंधित राज्यों के मुख्य सचिव और पर्यावरण से संबंधित अधिकारी शामिल हैं. किसानों के भ्रम मिटाने के लिए लगातार संवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है. सहकारी समिति, स्वयं सहायता समूह और अन्य सामाजिक समूहों की भूमिका को बढ़ाने के साथ-साथ सब्सिडी में और अधिक पारदर्शिता पर बल दिया जा रहा है. सरकार ने दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण को कम करने हेतु ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान (ग्रेप) लागू किया है. इसके तहत खुले में कचरा जलाने, डीजल जनरेटर, ढाबों-रेस्तरों में लकड़ी व कायेले के इस्तेमाल आदि पर प्रतिबंध लगाया गया है. इसमें प्रावधान है कि अधिक मात्रा में धुआं छोड़ते वाहनों पर जुर्माना लगाया जाएगा और सड़कों पर धूल उड़ने से रोकने के लिए पानी छिड़काव की व्यवस्था की जाती है. पराली जलाने पर किसानों पर जुर्माना भी लगाया जाता है.

उम्मीद की किरण पूसा का बायो डीकंपोजर

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान ने दिल्ली के पूसा (PUSA) संस्थान में एक बायो डीकंपोजर तकनीक विकसित की है. इस तकनीक को पूसा डीकंपोजर कहा जाता है. इस तकनीक की मदद से तरल डीकंपोजर तैयार किया जाता है. तरल डीकंपोजर तैयार करने के लिए पूसा कैप्सूल और अन्य सामग्री जैसे बेसन का उपयोग किया जाता है. तरल को तैयार होने में चार-पांच दिन का समय लगता है. तैयार तरल का खेतों में पड़ी पराली पर छिड़काव किया जाता है. इससे पराली तेजी से डीकंपोज हो जाती है. किसान उसको खाद की तरह इस्तेमाल कर पाएंगे. भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा दी गई जानकारी के मुताबिक, डीकंपोडर के छिड़काव के बाद उसको अपना काम करने में 20-25 दिन लगते हैं. हालांकि, किसानों का कहना है 20-25 दिन का इंतजार उनके लिए बहुत लंबा है. वह धान की फसल के बाद 10 का इंतजार करते हैं, जिसके बाद वह गेहूं की बिजाई शुरू कर देते हैं. भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों का मानना है कि किसानों को गेहूं की बोआई करने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए. वह 20-25 दिनों का इंतजार कर सकते हैं.

डीकंपोजर कैसे बनाएं?

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों ने शोध में पाया है कि ऐसे सात तरह के कवक हैं, जो कड़े पराली को जल्द डीकंपोज करने में मदद करते हैं. इन कवकों को चार कैप्सूल में पैक किया गया है. चार कैप्सूलों की कीमत 20 रुपये है. इन कैप्सूलों से इस्तेमाल करने लायक तरल बनाया जाता है, जिसको तैयार होने में चार से पांच दिन लगते हैं. तरल को बनाने के लिए 25 लीटर उबलते हुए पानी में 150 ग्राम गुड़ मिलाया जाता है. गुड़ से कवक को बढ़ने में मदद मिलती है. तरल के ढंडे हो जाने के बाद उसमें 50 ग्राम बेसन और चार पूसा कैप्सूल मिलाई जाती है. इसके बाद तरल को कपड़े से ढक कर अंधेरे कमरे में चार-पांच दिन के लिए रख दिया जाता है. चार-पांच दिन में तरल की सतह पर कवक की मोटी परत जम जाती है. इसको अच्छे से मिलाया जाता है और उसके बाद यह मिश्रण इस्तेमाल के लिए तैयार हो जाता है.

कितना डीकंपोजर करना है इस्तेमाल
25 लीटर मिश्रण को 500 लीटर पानी में मिलाकर एक हेक्टेयर भूमि पर छिड़काव किया जा सकता है. 25 लीटर मिश्रण को बनाने में अधिकतम खर्च 40 रुपये का आएगा. भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों ने बताया कि डीकंपोजर उन खेतों में भी काम करेगा, जहां पर पराली को मशीन से काटा नहीं किया गया है. भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों ने यह भी कहा है कि डीकंपोजर डालने के बाद किसानों को 20-25 दिन इंतजार करने की जरूरत नहीं है. वह 10-15 दिन के बाद भी बिजाई के लिए जमीन को तैयार करना शुरू कर सकते हैं.

दिल्ली में शुरू हो गया इस्तेमाल

हाल ही में केंद्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने बताया कि डीकंपोजर का पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में परीक्षण किया जाएगा. मंत्रालय के अधिकारियों ने जानकारी दी कि पंजाब और हरियाणा में 100 हेक्टेयर भूमि पर इसका उपयेग किया जाएगा. दिल्ली में 800 हेक्टेयर और उत्तर प्रदेश की 10,000 हेक्टेयर भूमि पर किया जाएगा. भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान बीते डेढ़ वर्ष से डीकंपोजर पर परीक्षण कर रहा है. इस तकनीक का इस्तेमाल करने के लिए 2019 में चार कंपनियों को लाइसेंस दिया गया था और 2020 में दो कंपनियों को इसका लाइसेंस दिया गया है. दिल्ली ने दो डीकंपोजर का इस्तेमाल शुरू भी कर दिया है. 11 अक्टूबर से वह भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान की मदद से इसका छिड़काव कर रही है. अगर सभी किसान इसका प्रयोग शुरू कर दें तो दिल्ली-एनसीआर को 15 अक्टूबर से 15 नवंबर के बीच गैस चैंबर बनने से मुक्ति मिल जाएगी. इसके लिए सरकार को युद्ध स्तर पर प्रयात करने पड़ेंगे.

हैदराबाद : हर साल 15 अक्टूबर से 15 नवंबर के बीच दिल्ली और उससे सटे बड़ी आबादी वाले शहरों नोएडा, गाजियाबाद, गुरुग्राम, फरीदाबाद के लोगों को सांस लेने तक में दिक्कत होने लगती है. सांस लेने की परेशानी वायु में प्रदूषण बढ़ने के कारण होती है और पिछले 10 वर्षों में यह समस्या लगातार विकराल रूप लेती जा रही है. सुप्रीम कोर्ट तक इस पर चिंता जता चुकी है. केंद्र से लेकर राज्य सरकारें इसे रोकने के लिए तरह-तरह के उपाय कर रही हैं मगर 15 अक्टूबर और 15 नवंबर के बीच होने वाले वायु प्रदूषण को रोकने में अब तक नाकाम रही हैं. इसके बाद हर जगह एक ही शब्द सुनाई देता है 'पराली'. आइए आज जानते हैं पराली के बारे में और क्या पराली ही एकमात्र कारण है 15 अक्टूबर से 15 नवंबर के बीच दिल्ली और उससे सटे शहरों में वायु प्रदूषण का? क्यों और कब से पराली की समस्या शुरू हुई? कैसे और कब मिलेगी इससे निजात?

पराली क्या है?

पराली धान के बचे हुए हिस्से को कहते हैं. इसकी जड़ें धरती में होती हैं. किसान धान की फसल पकने के बाद फसल का ऊपरी हिस्सा काट लेते हैं. ऊपरी हिस्सा ही काम का होता है. बाकी का हिस्सा किसान के किसी काम का नहीं होता. इसी बाकी के हिस्से को पराली कहते हैं. राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पराली ज्यादा होने और जलाने की वजह यह भी है कि किसान अपना समय बचाने के लिए मशीनों से धान की कटाई करवाते हैं. मशीनें धान का सिर्फ उपरी हिस्सा काटती हैं और और नीचे का हिस्सा बच जाता है. देश के अन्य हिस्सों के किसान धान को मजदूरों से या स्वयं काटते हैं तो उनके खेतों में पराली नहीं के बराबर बचती है. बाद में किसान इस पराली को चारे के रूप में भी इस्तेमाल करते हैं. राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक तो मजदूरी महंगी है और दूसरे धान की कटाई के वक्त पर्याप्त संख्या में मजदूर उपलब्ध भी नहीं हो पाते. दरअसल, मनरेगा जैसी योजनाओं के चलते किसानों को सस्ते मजदूर नहीं मिलते. पराली जलाने वाले प्रदेशों में पहले बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से मजदूर आया करते थे, परन्तु अब स्थानीय स्तर पर अपने राज्यों में ही मनरेगा के माध्यम से मजदूरी मिलने के चलते कम संख्या में ही ये पलायन करते हैं.

दिल्ली और उसके आसपास के शहर ही क्यों होते हैं प्रभावित?

राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नजदीक होने के कारण दिल्ली और उससे सटे शहरों में पराली का सबसे विभत्स रूप देखने को मिलता हैं. दिल्ली, नोएडा, गाजियाबाद, गुरुग्राम, फरीदाबाद में बड़ी आबादी निवास करती हैं. इसके कारण इन क्षेत्रों में हरित क्षेत्र बहुत कम हैं. औद्योगिक क्षेत्र होने के कारण भी यहां सालों भर वायु प्रदूषण रहता है. इन शहरों में वाहनों की अधिक संख्या भी वायु प्रदूषण को बढ़ाए रखती है. सर्दियों में दिल्ली-एनसीआर की तरफ पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश आदि से हवाएं आती हैं. पंजाब व हरियाणा से ये हवाएं पराली से उत्पन्न प्रदूषण को लाती हैं, जबकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश से प्रदूषण के साथ-साथ नमी भी लाती हैं. इस तरह से प्रदूषण और नमी मिलकर दिल्ली-एनसीआर में एक भयंकर स्मॉग के बादल का निर्माण करते हैं. दिल्ली की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि सर्दियों में यहां हवाएं आकर ठहर सी जाती हैं और दिल्ली के चारों तरफ एक कंबल का निर्माण करती हैं. चेन्नई, मुंबई और कोलकाता जैसे तटीय शहरों की तरह दिल्ली के भी हवाओं में गतिशीलता होती तो प्रदूषण के बादल छट सकते थे, किन्तु समुद्र के न होने के कारण स्थलीय व समुद्री समीर का प्रवाह नहीं होता है और पवनें ठहर सी जाती हैं और दिल्ली-एनसीआर गैस चैंबर में तब्दील हो जाती है.

पराली के कई तरह के हैं समाधान पर हुए फेल

पराली को ट्रैक्टर में छोटी मशीन (रपट) द्वारा काटकर खेत में उसी रपट द्वारा बिखेरा जा सकता है. इससे आगामी फसल को प्राकृतिक खाद मिल जाएगी और प्राकृतिक जीवाणु व लाभकारी कीट जमीन की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के लिए पराली के अवशेषों में ही पल जाएंगे. पराली को मशीनों से उखाड़कर एक जगह 2-3 फीट का खड्डा खोदकर उसमें जमा कर सकते हैं. उसकी एक फुट की तह बनाकर उस पर पानी में घुले हुए गुड़, चीनी, यूरिया, गाय-भैंस का गोबर इत्यादि का घोल छिड़क दें और थोड़ी मिट्टी डालकर हर 1-2 फुट पर इसे दोहरा दें तो एनारोबिक बैक्टीरिया पराली को गलाने में सहायक हो जाते हैं. इतना ही नहीं पराली का प्रयोग चारा और गत्ता बनाने के अलावा बिजली बनाने के लिए भी हो सकता है. गैसीफायर द्वारा गैस बनाकर ईंधन के रूप में मिथेन गैस मिल सकती है. मगर कुछ किसानों को भ्रम है कि पराली जलाने से खेतों को फायदा होता है. वहीं ज्यादातर किसान फसल बिजाई की जल्दी और तमाम तरह के झंझटों से बचने के लिए पराली जलाना ज्यादा पसंद करते हैं.

क्या है जुर्माने का प्रावधान

एनजीटी के आदेशानुसार दो एकड़ में फसलों के अवशेष जलाने पर 2500 हजार रुपये, दो से पांच एकड़ भूमि तक 5 हजार रुपये, 5 एकड़ से अधिक जमीन पर धान के अवशेष जलाने पर 15 हजार रुपये जुर्माना किया जाएगा. इसके लिए जिम्मेदारी सरकार ने जिला राजस्व अधिकारी की तय की है. एनजीटी के अनुसार, यह जुर्माना पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने के लिए लिया जाता है.

सैटलाइट से रखी जा रही है निगाह

नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के आदेश पर हरियाणा राज्य प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड गांवों में निगाह रख रहा है. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारियों के अनुसार किसान के धान के अवशेष जलाने की गतिविधियों पर ग्रामीण कमिटी के साथ सैटलाइट भी नजर रख रहा है. धान के अवशेष जलाने पर जिला कमिटी या ग्रामीण कमिटी कार्रवाई नहीं करेंगी तो सैटलाइट के आधार पर कार्रवाई तय है.

पराली से क्यो होती है जलन और सांस की परेशानी?

पराली को जलाने के बाद निकलने वाले धुएं में कार्बन मोनो ऑक्साइड और कार्बन डाइऑक्साइड गैसों से ओजोन परत फटकर अल्ट्रावायलेट किरणें निकलती हैं. यह अल्ट्रावायलेट किरणें स्किन के लिए घातक सिद्ध होती हैं. इससे आंखों में जलन भी होती है. सांस लेने में दिक्कत और फेफड़ों की बीमारियां हो सकती हैं. हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की आई रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में श्वास संबंधी रोगों से हर वर्ष लाखों लोगों को जान से हाथ धोना पड़ता है.

अब तक के सरकारी प्रयास

केंद्र सरकार ने पराली के उचित प्रबंधन के लिए हैप्पी सीडर जैसी मशीनों में सब्सिडी 50 से 80 प्रतिशत तक दे रही है. पराली प्रबंधन में केंद्र, राज्य एवं अन्य एजेंसियों के बीच सहयोग बढ़ाने के लिए टास्क फोर्स का गठन किया गया है. इसमें प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव, संबंधित राज्यों के मुख्य सचिव और पर्यावरण से संबंधित अधिकारी शामिल हैं. किसानों के भ्रम मिटाने के लिए लगातार संवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है. सहकारी समिति, स्वयं सहायता समूह और अन्य सामाजिक समूहों की भूमिका को बढ़ाने के साथ-साथ सब्सिडी में और अधिक पारदर्शिता पर बल दिया जा रहा है. सरकार ने दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण को कम करने हेतु ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान (ग्रेप) लागू किया है. इसके तहत खुले में कचरा जलाने, डीजल जनरेटर, ढाबों-रेस्तरों में लकड़ी व कायेले के इस्तेमाल आदि पर प्रतिबंध लगाया गया है. इसमें प्रावधान है कि अधिक मात्रा में धुआं छोड़ते वाहनों पर जुर्माना लगाया जाएगा और सड़कों पर धूल उड़ने से रोकने के लिए पानी छिड़काव की व्यवस्था की जाती है. पराली जलाने पर किसानों पर जुर्माना भी लगाया जाता है.

उम्मीद की किरण पूसा का बायो डीकंपोजर

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान ने दिल्ली के पूसा (PUSA) संस्थान में एक बायो डीकंपोजर तकनीक विकसित की है. इस तकनीक को पूसा डीकंपोजर कहा जाता है. इस तकनीक की मदद से तरल डीकंपोजर तैयार किया जाता है. तरल डीकंपोजर तैयार करने के लिए पूसा कैप्सूल और अन्य सामग्री जैसे बेसन का उपयोग किया जाता है. तरल को तैयार होने में चार-पांच दिन का समय लगता है. तैयार तरल का खेतों में पड़ी पराली पर छिड़काव किया जाता है. इससे पराली तेजी से डीकंपोज हो जाती है. किसान उसको खाद की तरह इस्तेमाल कर पाएंगे. भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा दी गई जानकारी के मुताबिक, डीकंपोडर के छिड़काव के बाद उसको अपना काम करने में 20-25 दिन लगते हैं. हालांकि, किसानों का कहना है 20-25 दिन का इंतजार उनके लिए बहुत लंबा है. वह धान की फसल के बाद 10 का इंतजार करते हैं, जिसके बाद वह गेहूं की बिजाई शुरू कर देते हैं. भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों का मानना है कि किसानों को गेहूं की बोआई करने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए. वह 20-25 दिनों का इंतजार कर सकते हैं.

डीकंपोजर कैसे बनाएं?

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों ने शोध में पाया है कि ऐसे सात तरह के कवक हैं, जो कड़े पराली को जल्द डीकंपोज करने में मदद करते हैं. इन कवकों को चार कैप्सूल में पैक किया गया है. चार कैप्सूलों की कीमत 20 रुपये है. इन कैप्सूलों से इस्तेमाल करने लायक तरल बनाया जाता है, जिसको तैयार होने में चार से पांच दिन लगते हैं. तरल को बनाने के लिए 25 लीटर उबलते हुए पानी में 150 ग्राम गुड़ मिलाया जाता है. गुड़ से कवक को बढ़ने में मदद मिलती है. तरल के ढंडे हो जाने के बाद उसमें 50 ग्राम बेसन और चार पूसा कैप्सूल मिलाई जाती है. इसके बाद तरल को कपड़े से ढक कर अंधेरे कमरे में चार-पांच दिन के लिए रख दिया जाता है. चार-पांच दिन में तरल की सतह पर कवक की मोटी परत जम जाती है. इसको अच्छे से मिलाया जाता है और उसके बाद यह मिश्रण इस्तेमाल के लिए तैयार हो जाता है.

कितना डीकंपोजर करना है इस्तेमाल
25 लीटर मिश्रण को 500 लीटर पानी में मिलाकर एक हेक्टेयर भूमि पर छिड़काव किया जा सकता है. 25 लीटर मिश्रण को बनाने में अधिकतम खर्च 40 रुपये का आएगा. भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों ने बताया कि डीकंपोजर उन खेतों में भी काम करेगा, जहां पर पराली को मशीन से काटा नहीं किया गया है. भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों ने यह भी कहा है कि डीकंपोजर डालने के बाद किसानों को 20-25 दिन इंतजार करने की जरूरत नहीं है. वह 10-15 दिन के बाद भी बिजाई के लिए जमीन को तैयार करना शुरू कर सकते हैं.

दिल्ली में शुरू हो गया इस्तेमाल

हाल ही में केंद्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने बताया कि डीकंपोजर का पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में परीक्षण किया जाएगा. मंत्रालय के अधिकारियों ने जानकारी दी कि पंजाब और हरियाणा में 100 हेक्टेयर भूमि पर इसका उपयेग किया जाएगा. दिल्ली में 800 हेक्टेयर और उत्तर प्रदेश की 10,000 हेक्टेयर भूमि पर किया जाएगा. भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान बीते डेढ़ वर्ष से डीकंपोजर पर परीक्षण कर रहा है. इस तकनीक का इस्तेमाल करने के लिए 2019 में चार कंपनियों को लाइसेंस दिया गया था और 2020 में दो कंपनियों को इसका लाइसेंस दिया गया है. दिल्ली ने दो डीकंपोजर का इस्तेमाल शुरू भी कर दिया है. 11 अक्टूबर से वह भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान की मदद से इसका छिड़काव कर रही है. अगर सभी किसान इसका प्रयोग शुरू कर दें तो दिल्ली-एनसीआर को 15 अक्टूबर से 15 नवंबर के बीच गैस चैंबर बनने से मुक्ति मिल जाएगी. इसके लिए सरकार को युद्ध स्तर पर प्रयात करने पड़ेंगे.

Last Updated : Nov 2, 2020, 11:01 PM IST
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