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राष्ट्र सेविका समिति स्थापना दिवस: 'फेमिनिज्म' नहीं 'फेमिलिज्म' की विचारधारा

25 अक्तूबर, 1936 को विजयादशमी के दिन राष्ट्र सेविका समिति की नींव रखी गई थी. आज इसकी 83वीं वर्षगांठ है. इस अवसर पर ईटीवी भारत ये जानने की कोशिश कर रहा है कि इस समिति के स्थापना का मकसद और वर्तमान में इसकी भूमिका क्या है. प्रस्तुत है राष्ट्र सेविका समिति पर विशेष आलेख

राष्ट्र सेविका समिति के सदस्यों की फाइल फोटो (साभार (rashtrasevikasamiti.org)
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Published : Oct 8, 2019, 7:01 AM IST

Updated : Oct 8, 2019, 7:45 AM IST

हैदराबाद : 1930 के दशक में जब महिलाओं का पढ़ना-लिखना तो क्या, घर से बाहर निकलना भी मुश्किल था, एक महिला थी जो बहुत गंभीरता से सोच रही थी कि कैसे महिलाओं को सशक्त, स्वाबलंबी और आत्मरक्षा में सक्षम बनाया जाए, क्या किया जाए कि वो एक ओर तो परिवार की बेहतर देख-भाल कर सकें, बच्चों को अच्छे संस्कार दे सकें तो दूसरी ओर देश और समाज को भी निस्वार्थ भाव से अपनी सेवाएं दे सकें.

इस महिला का नाम था लक्ष्मीबाई केलकर, प्यार से लोग इन्हें मौसी जी भी कहते थे. ये संयोग ही था कि इनका नाम भी झांसी की रानी लक्ष्मी बाई के नाम के समान था और इनके हौसले भी झांसी की रानी की तरह ही बुलंद थे.

rashtra sevika samiti
अन्य कार्यक्रमों के दौरान राष्ट्र सेविका समिति के सदस्य (साभार (rashtrasevikasamiti.org)

पुरुष प्रधान समाज में जब महिलाओं का स्थान चूल्हे-चौके तक ही सीमित था, लक्ष्मीबाई ने स्पष्ट किया कि महिला ही परिवार, समाज और देश की मूलाधार है. अगर महिला संस्कारित और सक्षम हो जाए तो वह परिवार का भला कर सकती है, यदि परिवार का भला हो जाए तो समाज और देश भी बदल सकते हैं. महिलाओं के प्रति उनकी ये चिंता अचानक ही नहीं पैदा हुई थी. इसके पीछे बहुत बड़ा हाथ था उनकी मां यशोदाबाई का भी था.

rashtra sevika samiti
प्रभात फेरी के दौरान राष्ट्र सेविका समिति के सदस्य (साभार (rashtrasevikasamiti.org)

आगे बढ़ने से पहले बता दें कि लक्ष्मीबाई केलकर का जन्म 6 जुलाई 1905 को नागपुर में हुआ. उनके बचपन का नाम कमल था लेकिन एडवोकेट पुरुषोत्तम राव से विवाह के पश्चात उन्हें लक्ष्मीबाई नाम मिला. उनके पिता भास्करराव दाते और मां यशोदाबाई थीं. पिता सरकारी मुलाजिम थे.

यशोदाबाई जागरूक महिला थीं और देश और समाज की घटनाओं से भली-भांति परिचित रहती थीं. तब लोकमान्य तिलक के अखबार केसरी को खरीदना या पढ़ना देशद्रोह के समान माना जाता था, लेकिन यशोदाबाई न केवल केसरी खरीदती थीं, अपितु आसपास की महिलाओं को एकत्र कर उसे पढ़ कर सुनाया भी करती थीं. अपनी मां से मिले संस्कारों और व्यक्तिगत अनुभवों ने उन्हें सिखाया कि भारत के लिए राजनीतिक आजादी तो आवश्यक है ही, लेकिन साथ ही महिलाओं का सशक्तीकरण, जागरण और स्वाबलंबन भी आवश्यक है. आवश्यक है उन्हें इस काबिल बनाना कि वो अपनी रक्षा स्वयं कर सकें.

लक्ष्मीबाई के बेटे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य थे. उनके माध्यम से वो संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार के संपर्क में आईं और उनकी प्रेरणा से उन्होंने 25 अक्तूबर, 1936 को विजयादशमी के दिन राष्ट्र सेविका समिति की नींव रखी. समिति के माध्यम से उन्होंने भारतीय नारी को अपना जीवन स्वपरिवार के साथ राष्ट्रधर्म के लिए समर्पित करने की प्रेरणा दी.

लक्ष्मीबाई और उनकी सहयोगियों ने स्वतंत्रता संग्राम में अपनी क्षमतानुसार भाग लिया. एक बार वो गांधी जी की एक सभा में गईं जहां उन्होंने लोगों से देश के लिए दान मांगा तो उन्होंने अपनी सोने की चेन उतार कर दे दी. समिति की सेविकाएं प्रभातफेरियां निकालतीं और लोगों में चेतना जगातीं, साथ ही उन्हें आत्मविकास की राह भी दिखातीं.

वर्ष 1947 में जब बंटवारे के समय समूचा देश हिंसा और नफरत की आग में जल रहा था, लक्ष्मीबाई निडर हो अपनी एक सहयोगी के साथ हिंदू महिलाओं को बचाने कराची पहुंच गईं. वहां उन्होंने 14 अगस्त को महिलाओं की एक सभा में उन्हें सांत्वना दी और साहस के साथ हालात से लड़ने की प्रेरणा दी. उन्होंने कहा - 'धैर्यशाली बनो, अपने शील का रक्षण करो, संगठन पर विश्वास रखो और अपनी मातृभूमि की सेवा का व्रत जारी रखो, यह हमारी परीक्षा का क्षण है.'

लक्ष्मीबाई ने उन महिलाओं को आश्वसन दिया कि भारत आने पर उनकी सभी समस्याओं का समाधान किया जाएगा. जब वहां से परिवार मुंबई आए तो समिति ने उनके रहने-खाने का प्रबंध किया और असंख्य महिलाओं और युवतियों को आश्रय देकर उन्हें सुरक्षा ही नहीं, आगे बढ़ने की प्रेरणा भी दी. लक्ष्मीबाई ने बंटवारे के समय ही नहीं, बाद में भी, जब भी भारत पर संकट पड़ा, अपने साहसी नेतृत्व का परिचय दिया और महिलाओं को देश की सेवा में तत्पर रहने के लिए प्रेरित किया.

लक्ष्मीबाई ने जो पौधा रोपा था वो आज वट वृक्ष बन चुका है. आज राष्ट्र सेविका समिति भारत का सबसे बड़ा महिला संगठन है. देश भर में इसकी 3 लाख से अधिक सेविकाएं और 584 जिलों में 4,350 नियमित शाखाएं हैं. ये 855 से अधिक सेवाकार्य कर रही है. इनमें छात्रावास, निःशुल्क चिकित्सा केंद्र, लघु उद्योग से जुड़े स्वयं सहायता समूह, रूग्णोपयोगी साहित्य केंद्र, संस्कार केंद्र, निःशुल्क ट्यूशन कक्षाएं आदि शामिल हैं. समिति के सक्रिय बौद्धिक और धार्मिक विभाग हैं जिनकी गतिविधियां वर्ष भर चलती हैं. समिति सामाजिक व राष्ट्रीय विषयों पर 25 से अधिक प्रदर्शनी लगा चुकी है.

समिति देश के पिछड़े और अभावग्रस्त वनवासी क्षेत्रों में विशेष रूप से कार्य कर रही है. वो नक्सलवाद और आतंकवाद से ग्रस्त क्षेत्रों की बच्चियों के लिए अनेक छात्रावास चला रही है जहां उनके निःशुल्क आवास और पढ़ाई की व्यवस्था की जाती है. इन छात्रावासों की अनेक लड़कियां उच्च शिक्षा प्राप्त कर स्वाबलंबी बन चुकी हैं. चाहे प्राकृतिक आपदा हो या देश पर हमला, समिति सदा ही सेवा, बचाव और सहायता कार्य में आगे रही है.

वर्ष 1953 में समिति ने 'सेविका प्रकाशन' आरंभ किया जो विभिन्न भाषाओं में सामाजिक-राष्ट्रीय साहित्य प्रकाशित करता है. मेधाविनी सिंधु सृजन समिति की प्रबुद्ध महिलाओं का समूह है जिसमें जानीमानी वकील, प्रोफेसर, कलाकार, लेखक आदि शामिल हैं. ये समय-समय पर राष्ट्रहित के विषयों पर सेमीनार और संगोष्ठी आदि आयोजित करता है और सेविकाओं को देश-विदेश के ज्वलंत विषयों की जानकारी और विश्लेषण उपलब्ध करवाता है.

स्पष्ट है कि समिति देश की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत पर तो गर्व करती है, लेकिन हर अच्छी आधुनिक चीज को अपनाने के लिए भी तैयार रहती है. जब दुनिया में 'फेमिनिज्म' जैसी पश्चिमी विचारधाराओं का कोई नामोनिशान भी नहीं था, लक्ष्मीबाई ने महिलाओं के उत्थान और विकास के बारे में सोचा, लेकिन उन्होंने महिलाओं को परिवार या समाज से लड़ने के लिए नहीं उकसाया. उन्होंने तो महिलाओं को वो दर्शन दिया जिससे वो परिवार के भीतर ही नहीं, समाज और देश में भी केंद्रीय भूमिका निभा सकें और सबको साथ लेकर चल सकें.

एक उदाहरण देखिए - फेमिनिज्म स्त्री-पुरूष समानता की बात करता है, अच्छी बात भी है, लेकिन समिति का दर्शन कहता है कि कार्यस्थान में उन्हें समानता तो दी ही जाए, लेकिन 'विशिष्ट परिस्थितियों' में संवेदनशीलता के साथ उनका विशेष ध्यान रखा जाए. इसे अहसान नहीं, उनका अधिकार माना जाए. जरा सोचिए कि अगर कोई मां अपने बच्चे को अच्छे से पालती है तो क्या वो अंततः देश की भावी पीढ़ी को नहीं संवार रही होती? संक्षेप में समिति 'फेमिनिज्म' नहीं 'फेमिलिज्म' की समर्थ है.

हैदराबाद : 1930 के दशक में जब महिलाओं का पढ़ना-लिखना तो क्या, घर से बाहर निकलना भी मुश्किल था, एक महिला थी जो बहुत गंभीरता से सोच रही थी कि कैसे महिलाओं को सशक्त, स्वाबलंबी और आत्मरक्षा में सक्षम बनाया जाए, क्या किया जाए कि वो एक ओर तो परिवार की बेहतर देख-भाल कर सकें, बच्चों को अच्छे संस्कार दे सकें तो दूसरी ओर देश और समाज को भी निस्वार्थ भाव से अपनी सेवाएं दे सकें.

इस महिला का नाम था लक्ष्मीबाई केलकर, प्यार से लोग इन्हें मौसी जी भी कहते थे. ये संयोग ही था कि इनका नाम भी झांसी की रानी लक्ष्मी बाई के नाम के समान था और इनके हौसले भी झांसी की रानी की तरह ही बुलंद थे.

rashtra sevika samiti
अन्य कार्यक्रमों के दौरान राष्ट्र सेविका समिति के सदस्य (साभार (rashtrasevikasamiti.org)

पुरुष प्रधान समाज में जब महिलाओं का स्थान चूल्हे-चौके तक ही सीमित था, लक्ष्मीबाई ने स्पष्ट किया कि महिला ही परिवार, समाज और देश की मूलाधार है. अगर महिला संस्कारित और सक्षम हो जाए तो वह परिवार का भला कर सकती है, यदि परिवार का भला हो जाए तो समाज और देश भी बदल सकते हैं. महिलाओं के प्रति उनकी ये चिंता अचानक ही नहीं पैदा हुई थी. इसके पीछे बहुत बड़ा हाथ था उनकी मां यशोदाबाई का भी था.

rashtra sevika samiti
प्रभात फेरी के दौरान राष्ट्र सेविका समिति के सदस्य (साभार (rashtrasevikasamiti.org)

आगे बढ़ने से पहले बता दें कि लक्ष्मीबाई केलकर का जन्म 6 जुलाई 1905 को नागपुर में हुआ. उनके बचपन का नाम कमल था लेकिन एडवोकेट पुरुषोत्तम राव से विवाह के पश्चात उन्हें लक्ष्मीबाई नाम मिला. उनके पिता भास्करराव दाते और मां यशोदाबाई थीं. पिता सरकारी मुलाजिम थे.

यशोदाबाई जागरूक महिला थीं और देश और समाज की घटनाओं से भली-भांति परिचित रहती थीं. तब लोकमान्य तिलक के अखबार केसरी को खरीदना या पढ़ना देशद्रोह के समान माना जाता था, लेकिन यशोदाबाई न केवल केसरी खरीदती थीं, अपितु आसपास की महिलाओं को एकत्र कर उसे पढ़ कर सुनाया भी करती थीं. अपनी मां से मिले संस्कारों और व्यक्तिगत अनुभवों ने उन्हें सिखाया कि भारत के लिए राजनीतिक आजादी तो आवश्यक है ही, लेकिन साथ ही महिलाओं का सशक्तीकरण, जागरण और स्वाबलंबन भी आवश्यक है. आवश्यक है उन्हें इस काबिल बनाना कि वो अपनी रक्षा स्वयं कर सकें.

लक्ष्मीबाई के बेटे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य थे. उनके माध्यम से वो संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार के संपर्क में आईं और उनकी प्रेरणा से उन्होंने 25 अक्तूबर, 1936 को विजयादशमी के दिन राष्ट्र सेविका समिति की नींव रखी. समिति के माध्यम से उन्होंने भारतीय नारी को अपना जीवन स्वपरिवार के साथ राष्ट्रधर्म के लिए समर्पित करने की प्रेरणा दी.

लक्ष्मीबाई और उनकी सहयोगियों ने स्वतंत्रता संग्राम में अपनी क्षमतानुसार भाग लिया. एक बार वो गांधी जी की एक सभा में गईं जहां उन्होंने लोगों से देश के लिए दान मांगा तो उन्होंने अपनी सोने की चेन उतार कर दे दी. समिति की सेविकाएं प्रभातफेरियां निकालतीं और लोगों में चेतना जगातीं, साथ ही उन्हें आत्मविकास की राह भी दिखातीं.

वर्ष 1947 में जब बंटवारे के समय समूचा देश हिंसा और नफरत की आग में जल रहा था, लक्ष्मीबाई निडर हो अपनी एक सहयोगी के साथ हिंदू महिलाओं को बचाने कराची पहुंच गईं. वहां उन्होंने 14 अगस्त को महिलाओं की एक सभा में उन्हें सांत्वना दी और साहस के साथ हालात से लड़ने की प्रेरणा दी. उन्होंने कहा - 'धैर्यशाली बनो, अपने शील का रक्षण करो, संगठन पर विश्वास रखो और अपनी मातृभूमि की सेवा का व्रत जारी रखो, यह हमारी परीक्षा का क्षण है.'

लक्ष्मीबाई ने उन महिलाओं को आश्वसन दिया कि भारत आने पर उनकी सभी समस्याओं का समाधान किया जाएगा. जब वहां से परिवार मुंबई आए तो समिति ने उनके रहने-खाने का प्रबंध किया और असंख्य महिलाओं और युवतियों को आश्रय देकर उन्हें सुरक्षा ही नहीं, आगे बढ़ने की प्रेरणा भी दी. लक्ष्मीबाई ने बंटवारे के समय ही नहीं, बाद में भी, जब भी भारत पर संकट पड़ा, अपने साहसी नेतृत्व का परिचय दिया और महिलाओं को देश की सेवा में तत्पर रहने के लिए प्रेरित किया.

लक्ष्मीबाई ने जो पौधा रोपा था वो आज वट वृक्ष बन चुका है. आज राष्ट्र सेविका समिति भारत का सबसे बड़ा महिला संगठन है. देश भर में इसकी 3 लाख से अधिक सेविकाएं और 584 जिलों में 4,350 नियमित शाखाएं हैं. ये 855 से अधिक सेवाकार्य कर रही है. इनमें छात्रावास, निःशुल्क चिकित्सा केंद्र, लघु उद्योग से जुड़े स्वयं सहायता समूह, रूग्णोपयोगी साहित्य केंद्र, संस्कार केंद्र, निःशुल्क ट्यूशन कक्षाएं आदि शामिल हैं. समिति के सक्रिय बौद्धिक और धार्मिक विभाग हैं जिनकी गतिविधियां वर्ष भर चलती हैं. समिति सामाजिक व राष्ट्रीय विषयों पर 25 से अधिक प्रदर्शनी लगा चुकी है.

समिति देश के पिछड़े और अभावग्रस्त वनवासी क्षेत्रों में विशेष रूप से कार्य कर रही है. वो नक्सलवाद और आतंकवाद से ग्रस्त क्षेत्रों की बच्चियों के लिए अनेक छात्रावास चला रही है जहां उनके निःशुल्क आवास और पढ़ाई की व्यवस्था की जाती है. इन छात्रावासों की अनेक लड़कियां उच्च शिक्षा प्राप्त कर स्वाबलंबी बन चुकी हैं. चाहे प्राकृतिक आपदा हो या देश पर हमला, समिति सदा ही सेवा, बचाव और सहायता कार्य में आगे रही है.

वर्ष 1953 में समिति ने 'सेविका प्रकाशन' आरंभ किया जो विभिन्न भाषाओं में सामाजिक-राष्ट्रीय साहित्य प्रकाशित करता है. मेधाविनी सिंधु सृजन समिति की प्रबुद्ध महिलाओं का समूह है जिसमें जानीमानी वकील, प्रोफेसर, कलाकार, लेखक आदि शामिल हैं. ये समय-समय पर राष्ट्रहित के विषयों पर सेमीनार और संगोष्ठी आदि आयोजित करता है और सेविकाओं को देश-विदेश के ज्वलंत विषयों की जानकारी और विश्लेषण उपलब्ध करवाता है.

स्पष्ट है कि समिति देश की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत पर तो गर्व करती है, लेकिन हर अच्छी आधुनिक चीज को अपनाने के लिए भी तैयार रहती है. जब दुनिया में 'फेमिनिज्म' जैसी पश्चिमी विचारधाराओं का कोई नामोनिशान भी नहीं था, लक्ष्मीबाई ने महिलाओं के उत्थान और विकास के बारे में सोचा, लेकिन उन्होंने महिलाओं को परिवार या समाज से लड़ने के लिए नहीं उकसाया. उन्होंने तो महिलाओं को वो दर्शन दिया जिससे वो परिवार के भीतर ही नहीं, समाज और देश में भी केंद्रीय भूमिका निभा सकें और सबको साथ लेकर चल सकें.

एक उदाहरण देखिए - फेमिनिज्म स्त्री-पुरूष समानता की बात करता है, अच्छी बात भी है, लेकिन समिति का दर्शन कहता है कि कार्यस्थान में उन्हें समानता तो दी ही जाए, लेकिन 'विशिष्ट परिस्थितियों' में संवेदनशीलता के साथ उनका विशेष ध्यान रखा जाए. इसे अहसान नहीं, उनका अधिकार माना जाए. जरा सोचिए कि अगर कोई मां अपने बच्चे को अच्छे से पालती है तो क्या वो अंततः देश की भावी पीढ़ी को नहीं संवार रही होती? संक्षेप में समिति 'फेमिनिज्म' नहीं 'फेमिलिज्म' की समर्थ है.

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Last Updated : Oct 8, 2019, 7:45 AM IST
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