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इस जनजाति के लोगों को अब तक नहीं 'छू' सका कोरोना

एक तरफ चारों ओर सिर्फ कोरोना ही कोरोना सुनाई दे रहा है तो दूसरी तरफ गौरेला पेंड्रा मरवाही में जंगल और पहाड़ी के बीच एक ऐसा गांव है जहां रहने वाले बैगा जनजाति के लोगों तक कोरोना नहीं पहुंच सका है. सीमित आवागमन, व्यवस्थित जीवन शैली और प्रकृति से प्रेम ने इन्हें कोरोना महामारी में भी मजबूत बना कर रखा है.

baiga tribe
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Published : Apr 22, 2021, 6:47 PM IST

रायपुर : एक तरफ पूरा विश्व कोरोना की चपेट में आ चुका है. तो दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ के गौरेला पेंड्रा मरवाही जिले के एक छोटे से गांव में रहने वाले बैगा आदिवासियों से कोरोना कोसों दूर है.

नहीं 'छू' सका कोरोना

चारों तरफ पहाड़ियों से घिरा करंगरा गांव है. जहां बैगा जनजाति के लोग विशेष रूप से रहते हैं. पूरी तरह से जंगल और प्रकृति पर आश्रित यहां के लोग शहर की चमक-दमक से काफी दूर है. मिट्टी के चूल्हे पर बना खाना खाते हैं. झिरिया का पानी पीते हैं. खास बात ये हैं कि कभी बीमार होने पर खुद ही अपना इलाज कर लेते हैं. किसी को एक छींक आने पर भी तुरंत वे जंगल से जड़ी-बूटी लाकर तुरंत उसका सेवन करते हैं जिससे कुछ ही देर में उनकी बीमारी दूर हो जाती है.

बहुत जरूरत होने पर ही जाते हैं शहर

शायद पूरी तरह से प्रकृति के बीच रहने के कारण ही इस गांव में रहने वाले किसी भी व्यक्ति को अब तक कोरोना नहीं हुआ है. ऐसा नहीं है कि वे बिल्कुल भी गांव से निकलकर शहर नहीं जाते हैं. बल्कि गांव में कई ऐसे लोग है जिनका रोज शहर आना-जाना होता है. लेकिन फिर भी कोरोना उन्हें छू नहीं पाया है. इस गांव की खास बात ये है कि यहां के लोग ज्यादातर गांव के काम आपस में ही मिलकर पूरा करते हैं. गांव में अगर किसी को घर बनवाना है तो शहर से मिस्त्री या मजदूर नहीं बुलाए जाते. गांव के ही लोग मिलकर वो काम पूरा करते हैं. किसी का बाल भी काटना है तो वो शहर नहीं जाता बल्कि गांव के लोग ही बाल भी काट लेते हैं.

जंगल में मिलने वाली जड़ी-बूटी से ही करते हैं इलाज

परंपरागत जीवनशैली अपनाएं ये बैगा आदिवासी ज्यादातर जरूरतें खुद ही पूरी करते हैं. गांव के लगभग सभी लोग जड़ी-बूटी के जानकार है. जंगल में रहकर पीढ़ी दर पीढ़ी इन्हें इसकी जानकारियां बुजुर्गों से मिलती रहती है. बचपन से ही बैगा परिवार के सदस्य एक दूसरे को यह जानकारियां देते हैं. गांव के बैगा बैसाखू ने बताया कि थोड़ी बहुत तबीयत खराब होने पर खुद ही जंगल में जाकर जड़ी बूटियां लाते हैं और अपना इलाज कर लेते हैं.

पढ़ें :- कोरोना रोकथाम के प्रोटोकॉल लागू करने में चुनाव आयोग असफल : हाई कोर्ट

शहर से नहीं आता कोई गांव

गांव से कुछ ही दूरी पर बने सहकारी राशन दुकान से उन्हें चावल, नमक और चना मिल जाता है. इसके अलावा कंदमूल फल इनके भोजन में अब भी शामिल है. मंगलू बैगा बताते हैं कि वे 10 से 15 दिनों में एक बार सब्जी-भाजी लेने शहर के बाजार जाते हैं. इसके अलावा शहर जाने की जरूरत नहीं पड़ती. ना ही शहर के लोग गांव आते हैं.

प्रदेश के साथ ही देश के कई राज्यों में इस समय लॉकडाउन लगा हुआ है. शहर में रहने वाले लोगों को घरों में रोके रखने के लिए लॉकडाउन लगाया गया है. ऐसे में ये बैगा उनके लिए एक उदाहरण है. जो सालों से अपने आप को सीमित दायरे में रखकर ना सिर्फ अपनी संस्कृति बचा रहे हैं बल्कि खुद को भी कोरोना महामारी से बचा कर रखे हुए हैं.

रायपुर : एक तरफ पूरा विश्व कोरोना की चपेट में आ चुका है. तो दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ के गौरेला पेंड्रा मरवाही जिले के एक छोटे से गांव में रहने वाले बैगा आदिवासियों से कोरोना कोसों दूर है.

नहीं 'छू' सका कोरोना

चारों तरफ पहाड़ियों से घिरा करंगरा गांव है. जहां बैगा जनजाति के लोग विशेष रूप से रहते हैं. पूरी तरह से जंगल और प्रकृति पर आश्रित यहां के लोग शहर की चमक-दमक से काफी दूर है. मिट्टी के चूल्हे पर बना खाना खाते हैं. झिरिया का पानी पीते हैं. खास बात ये हैं कि कभी बीमार होने पर खुद ही अपना इलाज कर लेते हैं. किसी को एक छींक आने पर भी तुरंत वे जंगल से जड़ी-बूटी लाकर तुरंत उसका सेवन करते हैं जिससे कुछ ही देर में उनकी बीमारी दूर हो जाती है.

बहुत जरूरत होने पर ही जाते हैं शहर

शायद पूरी तरह से प्रकृति के बीच रहने के कारण ही इस गांव में रहने वाले किसी भी व्यक्ति को अब तक कोरोना नहीं हुआ है. ऐसा नहीं है कि वे बिल्कुल भी गांव से निकलकर शहर नहीं जाते हैं. बल्कि गांव में कई ऐसे लोग है जिनका रोज शहर आना-जाना होता है. लेकिन फिर भी कोरोना उन्हें छू नहीं पाया है. इस गांव की खास बात ये है कि यहां के लोग ज्यादातर गांव के काम आपस में ही मिलकर पूरा करते हैं. गांव में अगर किसी को घर बनवाना है तो शहर से मिस्त्री या मजदूर नहीं बुलाए जाते. गांव के ही लोग मिलकर वो काम पूरा करते हैं. किसी का बाल भी काटना है तो वो शहर नहीं जाता बल्कि गांव के लोग ही बाल भी काट लेते हैं.

जंगल में मिलने वाली जड़ी-बूटी से ही करते हैं इलाज

परंपरागत जीवनशैली अपनाएं ये बैगा आदिवासी ज्यादातर जरूरतें खुद ही पूरी करते हैं. गांव के लगभग सभी लोग जड़ी-बूटी के जानकार है. जंगल में रहकर पीढ़ी दर पीढ़ी इन्हें इसकी जानकारियां बुजुर्गों से मिलती रहती है. बचपन से ही बैगा परिवार के सदस्य एक दूसरे को यह जानकारियां देते हैं. गांव के बैगा बैसाखू ने बताया कि थोड़ी बहुत तबीयत खराब होने पर खुद ही जंगल में जाकर जड़ी बूटियां लाते हैं और अपना इलाज कर लेते हैं.

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शहर से नहीं आता कोई गांव

गांव से कुछ ही दूरी पर बने सहकारी राशन दुकान से उन्हें चावल, नमक और चना मिल जाता है. इसके अलावा कंदमूल फल इनके भोजन में अब भी शामिल है. मंगलू बैगा बताते हैं कि वे 10 से 15 दिनों में एक बार सब्जी-भाजी लेने शहर के बाजार जाते हैं. इसके अलावा शहर जाने की जरूरत नहीं पड़ती. ना ही शहर के लोग गांव आते हैं.

प्रदेश के साथ ही देश के कई राज्यों में इस समय लॉकडाउन लगा हुआ है. शहर में रहने वाले लोगों को घरों में रोके रखने के लिए लॉकडाउन लगाया गया है. ऐसे में ये बैगा उनके लिए एक उदाहरण है. जो सालों से अपने आप को सीमित दायरे में रखकर ना सिर्फ अपनी संस्कृति बचा रहे हैं बल्कि खुद को भी कोरोना महामारी से बचा कर रखे हुए हैं.

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