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क्यों रह-रहकर हमें रूला रहे आलू-प्याज-टमाटर, क्या भारत के पास स्टोरेज क्षमता नहीं है ?

improve agriculture infrastructure, prices of onion spike, cold storage in india : कभी आलू, कभी प्याज तो कभी टमाटर, इनके भाव हमें रह-रहकर रूलाते रहते हैं. इस समय प्याज के दाम 80 रु. प्रति किलो तक पहुंच चुके हैं. आखिर क्या है इसकी वजह. क्या इस समस्या का कोई स्थायी समाधान है. क्या भारत के पास पर्याप्त स्टोरेज क्षमता नहीं है, या फिर हम कृषि में पर्याप्त निवेश करने से कतरा रहे हैं. पढ़िए पूरा आलेख.

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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Nov 2, 2023, 4:45 PM IST

Updated : Nov 2, 2023, 5:07 PM IST

हैदराबाद : टमाटर के बाद अब प्याज की कीमतें उपभोक्ताओं के आंसू निकाल रहे हैं. पूरी दुनिया में कहीं भी आवश्यक कृषि वस्तुओं की कीमतों में इजाफा होता है, तो वहां की सरकारें इसे नियंत्रित करने का प्रयास करती हैं. लेकिन ऐसी समस्याएं बार-बार न आए, इसके लिए सरकार को ऐसे कदम जरूर उठाने चाहिए जो न सिर्फ उपभोक्ताओं के हितों का ध्यान रखे, बल्कि किसानों का भी हक न मारे.

इस समय अलग-अलग शहरों में प्याज की कीमतें 40 रु. प्रति किलो से लेकर 80 रु. प्रति किलो तक पहुंच चुका है. दाम में बढ़ोतरी पिछले दो सप्ताह में हुए हैं. कीमतों पर लगाम लगाने के लिए सरकार ने प्याज के निर्यात पर 40 फीसदी का लेवी लगा दिया है. अफगानिस्तान से प्याज के आयात को मंजूरी दे दी. दो लाख टन का अतिरिक्त बफर जोन बनाया गया है. इस दौरान पांच लाख टन प्याज उत्पादित भी हुए हैं.

प्याज भारतीय किचन का एक अहम घटक है. इसकी कीमतों में इजाफा सीधे-सीधे हरेक भारतीय परिवार को प्रभावित करता है. यह मामला इतना अधिक संवेदनशील है कि सरकारें बदल जाती हैं. 1998 में दिल्ली में भाजपा सरकार प्याज की कीमतों की वजह से चली गई थी. उसी साल राजस्थान में भी भाजपा की हार में प्रमुख कारण प्याज की कीमतें थीं. 2010 में जब ऐसी स्थिति आई थी, तब मनमोहन सिंह सरकार ने प्याज निर्यात पर रोक लगा दी थी. तब से किसी भी सरकार ने इस मामले को हल्के में नहीं लिया है.

हालांकि, सरकार उस समय उतनी गंभीर नहीं दिखती है, जब प्याज का उत्पादन लिमिट से अधिक हो जाता है. तब किसानों को बेहतर दाम उपलब्ध करवाएं, इस पर त्वरित ढंग से विचार नहीं किया जाता है. कुछ राज्यों ने कदम जरूर उठाए हैं. जैसे- मध्य प्रदेश ने प्याज की फसल पर लागत से 10 फीसदी अधिक का भुगतान किया है. लेकिन दूसरे राज्यों में भी ऐसे कदम उठाए जाएं, ऐसा नहीं हुआ है. क्या केंद्र सरकार भी ऐसे कदम उठा सकती है, इस पर कोई ठोस जवाब नहीं मिला है.

भारत में प्याज की जितनी खपत है, उतना अधिक उत्पादन नहीं हो पाता है. इस साल महाराष्ट्र में गर्मी के लंबा खिंचने की वजह से उत्पादन प्रभावित हुआ है. राजस्थान में भी ऐसी ही स्थिति देखी गई. शायद मौसम ठीक रहता, तो कुछ बेहतर स्थिति हो सकती थी. ऊपर से कोल्ड स्टोरेज का अभाव, स्थिति को और अधिक दयनीय बना देता है.

खाद्य पदार्थों की कीमतों में इजाफा चिंता की बड़ी वजह है. एक बार मान लीजिए कि जल्द खराब होने वाले इन खाद्य वस्तुओं की कीमतों में स्थायित्व आ जाता है, तो इसके बाद नॉन पेरिशेबल आइटम (अनाज, मसाला, दाल) की महंगाई हमारी और आपकी पॉकेट को प्रभावित करेगी.

पिछले महीने रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने पेरिशेबल सप्लाई चेन को ठीक करने के लिए व्यापक सुधार पर जोर दिया था. इसमें वेयर हाउस, स्टोरेज तकनीक और परिवहन व्यवस्था को बेहतर बनाने पर विचार किया गया था. लेकिन प्याज की कीमतों में इजाफा बताता है कि या तो कोई कदम नहीं उठाए गए हैं, या फिर जो भी कदम उठाए गए हैं, वे पर्याप्त नहीं हैं. हमें जिस स्केल पर सुधार की जरूरत है, उससे हम बहुत दूर हैं.

राजनीतिक और आर्थिक नजरिए से देखेंगे, तो टमाटर, प्याज और आलू- तीनों ही बहुत ही संवेदनशील हैं. इनकी कीमतें सीधे-सीधे उपभोक्ताओं को प्रभावित करती हैं. आप अमीर हैं या गरीब, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है, इन उत्पादों का उपभोग सब जगह होता है. इसलिए नीति निर्धारकों को उस स्तर पर जाकर विचार करना होगा.

अगर प्राइस स्टेबिलिटी बनी रहेगी, तो कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स बास्केट के 90 फीसदी आइटम्स के प्राइस फंडामेंटल्स ठीक रहेंगे. अगर आप नीतियों में बदलाव लाते हैं, तो टमाटर, प्याज और आलू की कीमतों पर नियंत्रण लगाया जा सकता है. इसके लिए आपको पूरी चेन व्यवस्था को ठीक करना होगा. स्टोरेज क्षमता बढ़ानी होगी. मार्केट में पारदर्शिता रखनी होगी. सरकार के वश में जो संभव है, उसे ठीक करन चाहिए. जाहिर है, खाद्य तेल और ईंधन की कीमतों पर नीति बनाकर नियंत्रण नहीं रखा जा सकता है. यह तो बाजार तय करता है. हां, टमाटर, प्याज और आलू के केस में जलवायु और मौसम बड़े फैक्टर हैं.

सबसे अहम कदम है- सप्लाई को सही करना. जब भी उत्पादन बढ़ता है, तो उसका किस तरह से स्टोरेज किया जाए, इसकी व्यवस्था उचित होनी चाहिए. अफसोस की बात है कि किसी के पास रीयल टाइम डाटा उपलब्ध नहीं है. जहां भी स्टोरेज है, वे प्राइवेट हाथों में हैं, लिहाजा वे कोई डाटा जेनरेट नहीं करते हैं, जिसे साझा किया जा सके. अगर वे वेयरहाउसिंग डेवलपमेंट एंड रेगुलेटरी ऑथरिटी के साथ डेटा शेयर कर सकें, तो यह जानकारी उपलब्ध हो सकेगी.

वैल्यू चैन को किस तरह से बेहतर करें - ओनियन प्लेक्स और ओनियन पाउडर का उत्पादन होने लगे, तो इसका वैल्यू बढ़ जाएगा. उन तकनीक पर काम होना चाहिए, जो ओनियन प्रोडक्ट्स को प्रोसेस कर सके और उपभोक्ताओं की जरूरतों के हिसाब से तकनीक का उपयोग करें. इस पर अनुसंधान होने चाहिए.

हाल के दिनों में आमदनी बढ़ी है. इसके बावजूद टोटल फूड सेल में प्रोसेस्ड फूड का हिस्सा मात्र 10 फीसदी के आसपास है. थाईलैंड में यह 20 फीसदी और ब्राजील में 25 फीसदी तक हिस्सा है. इससे खपत पैटर्न में बड़ा बदलाव आएगा और कीमतें स्थिर भी रहेंगी. जो भी इस क्षेत्र में अनुसंधान करना चाहते हैं, उन्हें बढ़ावा दिया जाना चाहिए.

एक बार जब इसमें सफलता मिलेगी, तो सप्लाई बढ़ाना संभव हो सकेगा. किसान उत्पादन करेंगे. कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के जरिए सप्लाई संभव हो सकेगा. जो भी प्रोसेसर्स होंगे, उनकी वजह से किसानों को अच्छे दाम मिलेंगे. किसान प्याज, आलू और टमाटर उत्पादन करने के प्रति उदासीन नहीं होंगे. हेल्दी प्रोसेसिंग इंडस्ट्री ही वेल डेवलप्ड कोल्ड स्टोरेज इंडस्ट्री को बढ़ावा देगा.

रीयल टाइम डाटा उपलब्ध रहने से समस्या का समाधान हो सकता है. पारदर्शिता बनी रहेगी. एक बार जब डाटा सामने रहेगा, तो किसान ये निर्णय कर सकेंगे कि वे आलू उपजाएं या टमाटर या प्याज. जिसकी ज्यादा डिमांड होगी, जहां अच्छी कीमत मिलेगी, उस पर जोर देंगे.

भारत का कृषि उत्पाद इंडस्ट्री 400 बि. डॉलर का बताया जाता है. वैश्विक स्तर पर देखें तो हमारी भागीदारी 11 फीसदी तक है. लेकिन निर्यात में भागीदारी तीन फीसदी से भी कम है. फूड प्रोसेसिंग में हिस्सेदारी दो फीसदी से भी कम है. ये आकंड़े फिक्की और बोस्टन कंस्लटेंसी ग्रुप ने जारी किए हैं.

फूड उत्पादों के निर्यात का नहीं बढ़ पाना हमारी सप्लाई चेन की कमी को उद्धृत करता है. भारत में फल और सब्जी का जितना उत्पादन होता है, उनमें से दो फीसदी का ही उपयोग प्रोसेसिंग यूनिट करता है. ब्राजील में 70 फीसदी और चीन में 23 फीसदी तक उपयोग होता है.

एफिशिएंसी फॉर एक्सेस थिंक टैंक के अनुसार भारत में कोल्ड चेन की क्षमता 19 बिल. डॉलर तक की है. ऐसा नहीं है कि कोल्ड चेन सेक्टर में निवेश नहीं हो रहा है. हाल ही में 100 से अधिक प्रोजेक्ट को हरी झंडी दी गई है. इनका वैल्यूएशन 41 मि. डॉलर तक का है. सरकार सपोर्ट भी कर रही है. सब्सिडी दे रही है. कोल्ड चेन की ओपनिंग से लेकर उसके ऑपरेशन तक में सहयोग कर रही है.

कोल्ड चेन की जितनी लागत है, उसका 35 फीसदी तक सरकार सपोर्ट करने के लिए तैयार है. शिड्यूल्ड एरिया में तो 50 फीसदी तक की मदद की जा रही है. कॉलेटरल फ्री लोन के लिए एक लाख करोड़ एग्रीकल्चर इनवेस्टमेंट फंड का भी निर्माण किया गया है. तीन प्रतिशत की दर से इंटेरेस्ट सबभेंशंस दिए जा रहे हैं. इसके अलावा प्रधानमंत्री कृषि संपदा योजना है. मिशन फॉर इंटेगरेटेड डेवलपमेंट ऑफ हॉर्टिकल्चर और डिपार्टमेंट ऑफ एग्रीकल्चर कॉपरेशन एंड फार्मर्स वेलफेयर भी है.

वेयरहाउस इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड, प्राइवेट अंत्रेप्रेन्योर्स गारंटी कोल्ड चेन इंटेगरेशन कैपसिटी के लिए सहयोग कर रहे हैं. खाद्य एवं प्रसंस्करण मंत्रालय के अनुसार भारत में 11.8 प्रतिशत की दर से पिछले पांच सालों में कोल्ड स्टोरेज बढ़ रहे हैं. लेकिन यह दर बहुत कम है. इसे कम से कम 20 फीसदी तक होना चाहिए.

सेंट्रल इंस्टिट्यूट ऑफ पोस्ट हार्वेस्ट इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी ने बताया है कि स्टोरेज फैसिलिटी और प्रोपर लॉजिस्टिक में कमी की वजह से भारत में 16 बि. डॉलर तक के कृषि उत्पादों का नुकसान होता है. यह कहने में संकोच नहीं करना चाहिए कि सरकार ने पर्याप्त कदम नहीं उठाए हैं. भारत की फूड ग्रेन स्टोरेज कैपसिटी 790 मि. टन है. लेकिन कोल्ड स्टोरेज में मात्र 37.5 मि.टन को ही रखा जा सकता है. वह भी मुख्य रूप से चार राज्यों में. भारत में कोल्ड स्टोरेज आलू और प्याज पर ही फोकस करता है. कोल्ड चेन की प्रक्रिया से 10 फीसदी से भी कम खाद्य उत्पाद गुजरते हैं.

सबसे ज्यादा नुकसान फलों और सब्जियों का होता है. ये दोनों ही आइटम पेरिशेबल हैं. जहां भी इसका उत्पादन होता है, वहां पर स्टोरेज सुविधा नहीं होने की वजह से इसका नुकसान होता है. ऐसी स्थिति में किसान बिचौलिए पर निर्भर होते हैं. उन्हें औने-पौने दाम पर उत्पाद बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता है. नेशनल सेंटर फॉर कोल्ड चेन डेवलपमेंट के अनुसार पैकहाउसेस में 99 फीसदी का गैप है.

इनमें से किसी भी समस्या का समाधान तब तक नहीं हो सकता है, जब तक कि भारतीय कृषि उत्पाद मार्केट के फंडामेंटल्स में बदलाव न हो. एग्रीमार्केट को ठीक करने के लिए भारत को अगले 10 सालों तक 40 बि. डॉलर की जरूरत पड़ेगी. बड़े पैमाने पर डेटा माइनिंग से लेकर प्रौद्योगिकी, रिमोट सेंसिंग, सैटेलाइट इमेजरी और डेटा-आधारित नॉलेज का संयोजन जरूरी है.

ये भी पढ़ें : Poverty Removal : भारत जैसे देश में फ्रीबी नहीं, सामाजिक सुरक्षा और सम्मानजनक कार्य से मिटेगी गरीबी

(परिताला पुरुषोत्तम द्वारा लिखित ईनाडु में प्रकाशित आलेख)

हैदराबाद : टमाटर के बाद अब प्याज की कीमतें उपभोक्ताओं के आंसू निकाल रहे हैं. पूरी दुनिया में कहीं भी आवश्यक कृषि वस्तुओं की कीमतों में इजाफा होता है, तो वहां की सरकारें इसे नियंत्रित करने का प्रयास करती हैं. लेकिन ऐसी समस्याएं बार-बार न आए, इसके लिए सरकार को ऐसे कदम जरूर उठाने चाहिए जो न सिर्फ उपभोक्ताओं के हितों का ध्यान रखे, बल्कि किसानों का भी हक न मारे.

इस समय अलग-अलग शहरों में प्याज की कीमतें 40 रु. प्रति किलो से लेकर 80 रु. प्रति किलो तक पहुंच चुका है. दाम में बढ़ोतरी पिछले दो सप्ताह में हुए हैं. कीमतों पर लगाम लगाने के लिए सरकार ने प्याज के निर्यात पर 40 फीसदी का लेवी लगा दिया है. अफगानिस्तान से प्याज के आयात को मंजूरी दे दी. दो लाख टन का अतिरिक्त बफर जोन बनाया गया है. इस दौरान पांच लाख टन प्याज उत्पादित भी हुए हैं.

प्याज भारतीय किचन का एक अहम घटक है. इसकी कीमतों में इजाफा सीधे-सीधे हरेक भारतीय परिवार को प्रभावित करता है. यह मामला इतना अधिक संवेदनशील है कि सरकारें बदल जाती हैं. 1998 में दिल्ली में भाजपा सरकार प्याज की कीमतों की वजह से चली गई थी. उसी साल राजस्थान में भी भाजपा की हार में प्रमुख कारण प्याज की कीमतें थीं. 2010 में जब ऐसी स्थिति आई थी, तब मनमोहन सिंह सरकार ने प्याज निर्यात पर रोक लगा दी थी. तब से किसी भी सरकार ने इस मामले को हल्के में नहीं लिया है.

हालांकि, सरकार उस समय उतनी गंभीर नहीं दिखती है, जब प्याज का उत्पादन लिमिट से अधिक हो जाता है. तब किसानों को बेहतर दाम उपलब्ध करवाएं, इस पर त्वरित ढंग से विचार नहीं किया जाता है. कुछ राज्यों ने कदम जरूर उठाए हैं. जैसे- मध्य प्रदेश ने प्याज की फसल पर लागत से 10 फीसदी अधिक का भुगतान किया है. लेकिन दूसरे राज्यों में भी ऐसे कदम उठाए जाएं, ऐसा नहीं हुआ है. क्या केंद्र सरकार भी ऐसे कदम उठा सकती है, इस पर कोई ठोस जवाब नहीं मिला है.

भारत में प्याज की जितनी खपत है, उतना अधिक उत्पादन नहीं हो पाता है. इस साल महाराष्ट्र में गर्मी के लंबा खिंचने की वजह से उत्पादन प्रभावित हुआ है. राजस्थान में भी ऐसी ही स्थिति देखी गई. शायद मौसम ठीक रहता, तो कुछ बेहतर स्थिति हो सकती थी. ऊपर से कोल्ड स्टोरेज का अभाव, स्थिति को और अधिक दयनीय बना देता है.

खाद्य पदार्थों की कीमतों में इजाफा चिंता की बड़ी वजह है. एक बार मान लीजिए कि जल्द खराब होने वाले इन खाद्य वस्तुओं की कीमतों में स्थायित्व आ जाता है, तो इसके बाद नॉन पेरिशेबल आइटम (अनाज, मसाला, दाल) की महंगाई हमारी और आपकी पॉकेट को प्रभावित करेगी.

पिछले महीने रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने पेरिशेबल सप्लाई चेन को ठीक करने के लिए व्यापक सुधार पर जोर दिया था. इसमें वेयर हाउस, स्टोरेज तकनीक और परिवहन व्यवस्था को बेहतर बनाने पर विचार किया गया था. लेकिन प्याज की कीमतों में इजाफा बताता है कि या तो कोई कदम नहीं उठाए गए हैं, या फिर जो भी कदम उठाए गए हैं, वे पर्याप्त नहीं हैं. हमें जिस स्केल पर सुधार की जरूरत है, उससे हम बहुत दूर हैं.

राजनीतिक और आर्थिक नजरिए से देखेंगे, तो टमाटर, प्याज और आलू- तीनों ही बहुत ही संवेदनशील हैं. इनकी कीमतें सीधे-सीधे उपभोक्ताओं को प्रभावित करती हैं. आप अमीर हैं या गरीब, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है, इन उत्पादों का उपभोग सब जगह होता है. इसलिए नीति निर्धारकों को उस स्तर पर जाकर विचार करना होगा.

अगर प्राइस स्टेबिलिटी बनी रहेगी, तो कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स बास्केट के 90 फीसदी आइटम्स के प्राइस फंडामेंटल्स ठीक रहेंगे. अगर आप नीतियों में बदलाव लाते हैं, तो टमाटर, प्याज और आलू की कीमतों पर नियंत्रण लगाया जा सकता है. इसके लिए आपको पूरी चेन व्यवस्था को ठीक करना होगा. स्टोरेज क्षमता बढ़ानी होगी. मार्केट में पारदर्शिता रखनी होगी. सरकार के वश में जो संभव है, उसे ठीक करन चाहिए. जाहिर है, खाद्य तेल और ईंधन की कीमतों पर नीति बनाकर नियंत्रण नहीं रखा जा सकता है. यह तो बाजार तय करता है. हां, टमाटर, प्याज और आलू के केस में जलवायु और मौसम बड़े फैक्टर हैं.

सबसे अहम कदम है- सप्लाई को सही करना. जब भी उत्पादन बढ़ता है, तो उसका किस तरह से स्टोरेज किया जाए, इसकी व्यवस्था उचित होनी चाहिए. अफसोस की बात है कि किसी के पास रीयल टाइम डाटा उपलब्ध नहीं है. जहां भी स्टोरेज है, वे प्राइवेट हाथों में हैं, लिहाजा वे कोई डाटा जेनरेट नहीं करते हैं, जिसे साझा किया जा सके. अगर वे वेयरहाउसिंग डेवलपमेंट एंड रेगुलेटरी ऑथरिटी के साथ डेटा शेयर कर सकें, तो यह जानकारी उपलब्ध हो सकेगी.

वैल्यू चैन को किस तरह से बेहतर करें - ओनियन प्लेक्स और ओनियन पाउडर का उत्पादन होने लगे, तो इसका वैल्यू बढ़ जाएगा. उन तकनीक पर काम होना चाहिए, जो ओनियन प्रोडक्ट्स को प्रोसेस कर सके और उपभोक्ताओं की जरूरतों के हिसाब से तकनीक का उपयोग करें. इस पर अनुसंधान होने चाहिए.

हाल के दिनों में आमदनी बढ़ी है. इसके बावजूद टोटल फूड सेल में प्रोसेस्ड फूड का हिस्सा मात्र 10 फीसदी के आसपास है. थाईलैंड में यह 20 फीसदी और ब्राजील में 25 फीसदी तक हिस्सा है. इससे खपत पैटर्न में बड़ा बदलाव आएगा और कीमतें स्थिर भी रहेंगी. जो भी इस क्षेत्र में अनुसंधान करना चाहते हैं, उन्हें बढ़ावा दिया जाना चाहिए.

एक बार जब इसमें सफलता मिलेगी, तो सप्लाई बढ़ाना संभव हो सकेगा. किसान उत्पादन करेंगे. कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के जरिए सप्लाई संभव हो सकेगा. जो भी प्रोसेसर्स होंगे, उनकी वजह से किसानों को अच्छे दाम मिलेंगे. किसान प्याज, आलू और टमाटर उत्पादन करने के प्रति उदासीन नहीं होंगे. हेल्दी प्रोसेसिंग इंडस्ट्री ही वेल डेवलप्ड कोल्ड स्टोरेज इंडस्ट्री को बढ़ावा देगा.

रीयल टाइम डाटा उपलब्ध रहने से समस्या का समाधान हो सकता है. पारदर्शिता बनी रहेगी. एक बार जब डाटा सामने रहेगा, तो किसान ये निर्णय कर सकेंगे कि वे आलू उपजाएं या टमाटर या प्याज. जिसकी ज्यादा डिमांड होगी, जहां अच्छी कीमत मिलेगी, उस पर जोर देंगे.

भारत का कृषि उत्पाद इंडस्ट्री 400 बि. डॉलर का बताया जाता है. वैश्विक स्तर पर देखें तो हमारी भागीदारी 11 फीसदी तक है. लेकिन निर्यात में भागीदारी तीन फीसदी से भी कम है. फूड प्रोसेसिंग में हिस्सेदारी दो फीसदी से भी कम है. ये आकंड़े फिक्की और बोस्टन कंस्लटेंसी ग्रुप ने जारी किए हैं.

फूड उत्पादों के निर्यात का नहीं बढ़ पाना हमारी सप्लाई चेन की कमी को उद्धृत करता है. भारत में फल और सब्जी का जितना उत्पादन होता है, उनमें से दो फीसदी का ही उपयोग प्रोसेसिंग यूनिट करता है. ब्राजील में 70 फीसदी और चीन में 23 फीसदी तक उपयोग होता है.

एफिशिएंसी फॉर एक्सेस थिंक टैंक के अनुसार भारत में कोल्ड चेन की क्षमता 19 बिल. डॉलर तक की है. ऐसा नहीं है कि कोल्ड चेन सेक्टर में निवेश नहीं हो रहा है. हाल ही में 100 से अधिक प्रोजेक्ट को हरी झंडी दी गई है. इनका वैल्यूएशन 41 मि. डॉलर तक का है. सरकार सपोर्ट भी कर रही है. सब्सिडी दे रही है. कोल्ड चेन की ओपनिंग से लेकर उसके ऑपरेशन तक में सहयोग कर रही है.

कोल्ड चेन की जितनी लागत है, उसका 35 फीसदी तक सरकार सपोर्ट करने के लिए तैयार है. शिड्यूल्ड एरिया में तो 50 फीसदी तक की मदद की जा रही है. कॉलेटरल फ्री लोन के लिए एक लाख करोड़ एग्रीकल्चर इनवेस्टमेंट फंड का भी निर्माण किया गया है. तीन प्रतिशत की दर से इंटेरेस्ट सबभेंशंस दिए जा रहे हैं. इसके अलावा प्रधानमंत्री कृषि संपदा योजना है. मिशन फॉर इंटेगरेटेड डेवलपमेंट ऑफ हॉर्टिकल्चर और डिपार्टमेंट ऑफ एग्रीकल्चर कॉपरेशन एंड फार्मर्स वेलफेयर भी है.

वेयरहाउस इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड, प्राइवेट अंत्रेप्रेन्योर्स गारंटी कोल्ड चेन इंटेगरेशन कैपसिटी के लिए सहयोग कर रहे हैं. खाद्य एवं प्रसंस्करण मंत्रालय के अनुसार भारत में 11.8 प्रतिशत की दर से पिछले पांच सालों में कोल्ड स्टोरेज बढ़ रहे हैं. लेकिन यह दर बहुत कम है. इसे कम से कम 20 फीसदी तक होना चाहिए.

सेंट्रल इंस्टिट्यूट ऑफ पोस्ट हार्वेस्ट इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी ने बताया है कि स्टोरेज फैसिलिटी और प्रोपर लॉजिस्टिक में कमी की वजह से भारत में 16 बि. डॉलर तक के कृषि उत्पादों का नुकसान होता है. यह कहने में संकोच नहीं करना चाहिए कि सरकार ने पर्याप्त कदम नहीं उठाए हैं. भारत की फूड ग्रेन स्टोरेज कैपसिटी 790 मि. टन है. लेकिन कोल्ड स्टोरेज में मात्र 37.5 मि.टन को ही रखा जा सकता है. वह भी मुख्य रूप से चार राज्यों में. भारत में कोल्ड स्टोरेज आलू और प्याज पर ही फोकस करता है. कोल्ड चेन की प्रक्रिया से 10 फीसदी से भी कम खाद्य उत्पाद गुजरते हैं.

सबसे ज्यादा नुकसान फलों और सब्जियों का होता है. ये दोनों ही आइटम पेरिशेबल हैं. जहां भी इसका उत्पादन होता है, वहां पर स्टोरेज सुविधा नहीं होने की वजह से इसका नुकसान होता है. ऐसी स्थिति में किसान बिचौलिए पर निर्भर होते हैं. उन्हें औने-पौने दाम पर उत्पाद बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता है. नेशनल सेंटर फॉर कोल्ड चेन डेवलपमेंट के अनुसार पैकहाउसेस में 99 फीसदी का गैप है.

इनमें से किसी भी समस्या का समाधान तब तक नहीं हो सकता है, जब तक कि भारतीय कृषि उत्पाद मार्केट के फंडामेंटल्स में बदलाव न हो. एग्रीमार्केट को ठीक करने के लिए भारत को अगले 10 सालों तक 40 बि. डॉलर की जरूरत पड़ेगी. बड़े पैमाने पर डेटा माइनिंग से लेकर प्रौद्योगिकी, रिमोट सेंसिंग, सैटेलाइट इमेजरी और डेटा-आधारित नॉलेज का संयोजन जरूरी है.

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(परिताला पुरुषोत्तम द्वारा लिखित ईनाडु में प्रकाशित आलेख)

Last Updated : Nov 2, 2023, 5:07 PM IST
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