सरगुजा: सरगुजा वासियों (Surguja residents) की आराध्य देवी महामाया (Devi Mahamaya) की महिमा अपरंपार है. छिन्नमस्तिका मां (chinnamastika maa) की दिव्य शक्तियों के आगे लोग यहां श्रद्धा से खींचे चले आते हैं. कुंवार महीने की नवरात्रि में छिन्नमस्तिका मां महामाया के सिर का निर्माण राजपरिवार के कुम्हार हर साल करते हैं. ऐसे कई रहस्य महामाया से जुड़े हैं जिनमें से कुछ हम आप तक पहुंचा रहे हैं.
1910 में हुआ था महामाया मंदिर का निर्माण
सरगुजा के इतिहासकार (Historians of Surguja) और राजपरिवार के जानकार गोविंद शर्मा (Govind Sharma) बताते हैं कि, महामाया मंदिर का निर्माण सन 1910 में कराया गया. इससे पहले एक चबूतरे में मां स्थापित थीं और राजपरिवार के लोग जब पूजा करने जाते थे, वहां बाघ बैठे रहते थे. सैनिक जब बाघ को हटाते थे तब जाकर माता का पूजन किया जाता था. आपको यह जानकर भी हैरानी होगी कि जिस प्रतिमा को महामाया के नाम से लोग पूजते हैं. दरअसल पहले इनका नाम समलाया था. महामाया मंदिर में ही दो मूर्तियां स्थापित थी वर्तमान महामाया को बड़ी समलाया कहा जाता था. वर्तमान में समलाया मंदिर में विराजी मां समलाया को छोटी समलाया कहते थे. बाद में जब समलाया मंदिर में छोटी समलाया को स्थापित किया गया तब बड़ी समलाया को महामाया कहा जाने लगा और तभी से अम्बिकापुर के नवागढ़ में विराजी मां महामाया और मोवीनपुर में विराजी मां समलाया की पूजा लोग इन रूपों में कर रहे हैं.
महामाया और समलाया मंदिर में क्यों हैं दो-दो मूर्तियां
इतिहासकार गोविंद शर्मा (Govind Sharma) ने बताया कि, 'क्योंकि दोनों ही मंदिरों में देवी को जोड़े में रखना था. इसलिए सरगुजा के तत्कालीन महाराज रामानुज शरण सिंह देव की मां और महाराजा रघुनाथ शरण सिंह देव की पत्नी भगवती देवी ने अपने मायके मिर्जापुर से, अपनी कुलदेवी विंध्यवासिनी की मूर्ति की स्थापना इन दोनों मंदिरों में कराई. तब से महामाया और समलाया के बाजू में विंध्यवासिनी को भी पूजा जाता है.अम्बिकापुर की महामाया मंदिर को लेकर कई मान्यताएं हैं, माना जाता है कि रतनपुर की महामाया भी इसी मूर्ति का अंश है. संभलपुर की समलाया की मूर्ति और डोंगरगढ़ की मूर्ति का भी संबंध सरगुजा से बताया जाता है. दरअसल सरगुजा के वनांचल में आपार मूर्तियां, यहां-वहां बिखरी हुई थीं और जब सिंहदेव राजपरिवार यहां आए तब इन मूर्तियों को वापस संग्रहित कर पूजा पाठ शुरू किया गया. उसके बाद से ही आस-पास के क्षेत्रों में यहां से मूर्तियां ले जाई गईं.
लोगों की है अटूट श्रद्धा
श्रद्धा, आस्था और विश्वास के बीच मान्यताओं का अहम योगदान रहा है और ऐसी ही कुछ मान्यताएं अम्बिकापुर की महामाया की है. जिस वजह से यहां निवास करने वाला हर इंसान अपने हर शुभ कार्य की पहली अर्जी महामाया के सामने ही लगाता है और लोगों का अटूट विश्वास है की मां किसी को भी निराश नहीं करती हैं. यही वजह है कि, न सिर्फ समूचे सरगुजा से बल्कि छत्तीसगढ़ के अन्य जिलों और अन्य प्रदेशों से भी लोग महामाया के दर्शन को आते हैं. नवरात्र में तो भक्तों की भीड़ में घंटों लाइन में लगने के बाद ही मां महामाया के दर्शन संभव होते हैं.
महामाया राजपरिवार की कुल देवी हैं
अंबिकापुर के नवागढ़ में विराजी महामाया यहां के राजपरिवार की कुल देवी हैं. यानी कि वर्तमान में छत्तीसगढ़ शासन में स्वास्थ्य एवं पंचायत मंत्री टीएस सिंहदेव जिन्हें सियासत काल के मुताबिक सरगुजा का महाराज होने का गौरव प्राप्त है. वहीं मंदिर की विशेष पूजा करते हैं और उनके परिवार के लोग ही माहामाया और समलाया के गर्भ गृह में प्रवेश कर सकते हैं.
प्राचीन काल की है मूर्ति
मान्यता है कि यह मूर्ति बहुत पुरानी है. सरगुजा राजपरिवार के जानकारों के अनुसार रियासत काल से राजा इन्हें अपनी कुलदेवी के रूप में पूजते आ रहे हैं. बताया जाता है कि सरगुजा भगवान राम के आगमन समय से ही ऋषि मुनियों की भूमि रही है. जिस कारण यहां कई प्राचीन मूर्तियां यंत्र-तंत्र रखी हुई थी. जब सिंहदेव घराने ने सरगुजा में हुकूमत की तब इन मूर्तियों को संग्रहित किया गया, बताया जाता है कि ये ओडिशा के संभलपुर में विराजी समलाया और डोंगरगढ़ में भी सरगुजा की मूर्तियां हैं.सरगुजा की माहामाया का सबसे अद्भुत और विचित्र वर्णन यह है की यहां मंदिर में स्थापित मूर्ति छिन्नमस्तिका है, अर्थात मूर्ती का सर नहीं है, धड़ विराजमान है और उसी की पूजा होती है, हर वर्ष नवरात्र में यहां राजपरिवार के कुम्हारों के द्वारा माता का सिर मिट्टी से बनाया जाता है. इसी आस्था की वजह से सरगुज़ा में एक जशगीत बेहद प्रसिद्ध है गीत के बोल.
मां के जस गीतों से सरगुजा में से एक गीत प्रसिद्ध हैं, जिसे सुमिरते वक्त सरगुजा के लोग गर्व से गाते हैं की "सरगुजा में धड़ है तेरा हृदय हमने पाया, मुंड रतनपुर में मां सोहे कैसी तेरी माया" मान्यताओं पर बना यह भजन सरगुजा में विराजी मां माहामाया मंदिर की पूरी महिमा का बखान करते हुए लिखा गया है.
दरअसल सरगुजा रियासत पर मराठाओं ने कई बार हमला किया, लेकिन वो हर बार हार का सामना करते थे. शायद उनकी नजर महामाया की महिमा पर थी. जानकार बताते हैं कि एक बार मराठा मूर्ति ले जाने का प्रयास कर रहे थे लेकिन वो मूर्ति उठा नहीं पाए और माता की मूर्ति का सिर उनके साथ चला गया और वह सिर बिलासपुर के पास रतनपुर में मराठाओं ने रख दिया. तभी से रतनपुर की महामाया की भी महिमा विख्यात है, माना जाता है कि, रतनपुर और अंबिकापुर माहामाया का दर्शन किए बिना दर्शन पूरा नहीं होता है.