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अंधविश्वास में जकड़ा समाज, यहां माहवारी में 'बेघर' हो जाती हैं महिलाएं - माहवारी

राजनांदगांव जिले के मानपुर ब्लॉक के कई गांवों की आदिवासी महिलाएं माहवारी के 5 दिनों में घर के बाहर एकाकी जीवन बिताती थीं, हालांकि समय के साथ इसमें काफी बदलाव भी आया है और वो 5 दिन अब 1 दिन में बदल गया है.

women from tribal villages in rajnandgaon live in outside the house during menstruation
माहवारी में कई आदिवासी महिलाओं का सहारा होती है ये कुटिया
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Published : May 1, 2020, 2:47 PM IST

Updated : May 2, 2020, 7:13 AM IST

राजनांदगांव: दुनिया कहां से कहां पहुंंच गई है. इंसान मंगल और चांद पर जीवन खोज रहा है, लेकिन कुछ रूढ़ीवादी परंपराएं अभी भी वहीं की वहीं हैं. हालांकि शिक्षा, जागरूकता और विकास की पल-पल बदलती परिभाषा ने उसमें कुछ बदलाव जरूर ला दिया है.

माहवारी में कई आदिवासी महिलाओं का सहारा होती है ये कुटिया

हम बात कर रहे हैं महिलाओं के जीवन में होने वाले उस बदलाव की जो प्रकृति ने बनाया है और जो प्रजनन चक्र का महत्वपूर्ण हिस्सा है, लेकिन इस शारीरिक प्रक्रिया को कुछ इलाकों में आज भी अपवित्र और छुआछूत की नजरों से देखा जाता है.

माहवारी के बाद घर में वापस जाती हैं महिलाएं

जिले के मानपुर ब्लॉक के करीब 70 गांव की कुछ आदिवासी महिलाएं पुरानी परंपरा की बेड़ियों में जकड़ी हुई हैं. यहां की महिलाएं माहवारी के उन दिनों के दौरान अपने घर में नहीं बल्कि घर के बाहर एक अलग कुटिया में रहती हैं. इसी कुटिया में उनकी रसोई भी बनती है और पहले वे 5 दिनों के बाद सिर से नहाने के बाद अपने घर में प्रवेश करती थीं, हालांकि अब ये 5 दिन एक दिन में तब्दील हो गया है.

पहले से बदले हैं हालात

लेकिन गांव हो या शहर महिलाएं अब पहले जैसे नहीं रही है. अब महिलाएं जागरूक हो चुकी हैं. शायद इसी वजह से उन 5 दिनों में अलग कुटिया में दिन बिताने वाली कुछ महिलाएं अब एक रात या कुछ देर रहने के बाद अपने घर चली जाती हैं, वहीं कई गांवों में ये भी देखने को मिला है कि महिलाओं अलग कुटिया में न रहकर घर में ही रहती हैं.

सहगांव की फग्गू बाई जाड़े का कहना है कि पीरियड्स आने के बाद वे घर के बाहर कुटिया में चली जाती हैं और फिर नहाने के बाद अपने घर जाती हैं. वहीं गांव की मितानिन का भी कहना है कि पहले महिलाएं घर के बाहर कुटिया में 3 दिन तक रहती थी, लेकिन अब ये सिलसिला काफी कम हो गया है और महिलाएं माहवारी के दौरान भी घर में ही रह रही हैं.

हम ऐसी भी घटनाओं का हिस्सा बने हैं, जिसमें पीरियड्स के दौरान घर के बाहर बनी झोपड़ी में रहने पर महिला की मौत हो जाती है. गांव में जहां सैनिटरी पैड्स नहीं मिलते, वहां महिलाएं कपड़े का इस्तेमाल कर या फिर पत्ते और राख यूज करके जान जोखिम में डालती हैं. उम्मीद है कि बदलता वक्त लोगों की सोच भी बदल देगा.

राजनांदगांव: दुनिया कहां से कहां पहुंंच गई है. इंसान मंगल और चांद पर जीवन खोज रहा है, लेकिन कुछ रूढ़ीवादी परंपराएं अभी भी वहीं की वहीं हैं. हालांकि शिक्षा, जागरूकता और विकास की पल-पल बदलती परिभाषा ने उसमें कुछ बदलाव जरूर ला दिया है.

माहवारी में कई आदिवासी महिलाओं का सहारा होती है ये कुटिया

हम बात कर रहे हैं महिलाओं के जीवन में होने वाले उस बदलाव की जो प्रकृति ने बनाया है और जो प्रजनन चक्र का महत्वपूर्ण हिस्सा है, लेकिन इस शारीरिक प्रक्रिया को कुछ इलाकों में आज भी अपवित्र और छुआछूत की नजरों से देखा जाता है.

माहवारी के बाद घर में वापस जाती हैं महिलाएं

जिले के मानपुर ब्लॉक के करीब 70 गांव की कुछ आदिवासी महिलाएं पुरानी परंपरा की बेड़ियों में जकड़ी हुई हैं. यहां की महिलाएं माहवारी के उन दिनों के दौरान अपने घर में नहीं बल्कि घर के बाहर एक अलग कुटिया में रहती हैं. इसी कुटिया में उनकी रसोई भी बनती है और पहले वे 5 दिनों के बाद सिर से नहाने के बाद अपने घर में प्रवेश करती थीं, हालांकि अब ये 5 दिन एक दिन में तब्दील हो गया है.

पहले से बदले हैं हालात

लेकिन गांव हो या शहर महिलाएं अब पहले जैसे नहीं रही है. अब महिलाएं जागरूक हो चुकी हैं. शायद इसी वजह से उन 5 दिनों में अलग कुटिया में दिन बिताने वाली कुछ महिलाएं अब एक रात या कुछ देर रहने के बाद अपने घर चली जाती हैं, वहीं कई गांवों में ये भी देखने को मिला है कि महिलाओं अलग कुटिया में न रहकर घर में ही रहती हैं.

सहगांव की फग्गू बाई जाड़े का कहना है कि पीरियड्स आने के बाद वे घर के बाहर कुटिया में चली जाती हैं और फिर नहाने के बाद अपने घर जाती हैं. वहीं गांव की मितानिन का भी कहना है कि पहले महिलाएं घर के बाहर कुटिया में 3 दिन तक रहती थी, लेकिन अब ये सिलसिला काफी कम हो गया है और महिलाएं माहवारी के दौरान भी घर में ही रह रही हैं.

हम ऐसी भी घटनाओं का हिस्सा बने हैं, जिसमें पीरियड्स के दौरान घर के बाहर बनी झोपड़ी में रहने पर महिला की मौत हो जाती है. गांव में जहां सैनिटरी पैड्स नहीं मिलते, वहां महिलाएं कपड़े का इस्तेमाल कर या फिर पत्ते और राख यूज करके जान जोखिम में डालती हैं. उम्मीद है कि बदलता वक्त लोगों की सोच भी बदल देगा.

Last Updated : May 2, 2020, 7:13 AM IST
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