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'मृगनयनी' पर नहीं जा रही है किसी की नजर, बुनकरों की हालत खराब - आय की कमि

राजधानी के पंडरी में लगे मृगनैनी हाट बाजार में तरह-तरह की साड़ियां मौजूद हैं. लेकिन हाट को अच्छा रेस्पॉन्स नहीं मिलने से आज ये बुनकर परेशान हैं.

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Published : Jun 12, 2019, 4:27 PM IST

Updated : Jun 12, 2019, 7:53 PM IST

रायपुर: राजधानी में साल 1980 से हर वर्ष लगने वाला मृगनयनी हाट बाजार लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करता है. ये बाजार हर साल पंडरी में लगता है. इस बाजार की खासियत यहां आने वाले बुनकर हैं, जो पीढ़ियों से बुनाई का काम करते आ रहे हैं. लेकिन आज ये बुनकर सुविधाओं के अभाव में जीने को मजबूर हैं.

'मृगनयनी' पर नहीं जा रही है किसी की नजर

बुनकरों के लिए मृगनैनी हाट
राजधानी के पंडरी में लगे मृगनैनी हाट बाजार में तरह-तरह की साड़ियां मौजूद हैं. यहां खास तौर पर चंदेरी की साड़ियां लोगों का मन मोह रही हैं. ये साड़ियां 15 सौ से लेकर 15 हजार तक उपलब्ध हैं. पीढ़ियों से काम करते आ रहे बुनकर सरकार की मदद से अपनी कला को लोगों तक पहुंचा रहे हैं.

नहीं मिलता अच्छा रिस्पांस
लेकिन हाट को अच्छा रेस्पॉन्स नहीं मिलने से आज ये बुनकर परेशान हैं. उनका कहना है कि इस कला को जैसा रेस्पॉन्स पहले मिला करता था वैसा अब नहीं मिलता है. लोग मोलभाव कर कम रेट में साड़ियां खरीदते हैं, जिससे बुनकरों की आर्थिक स्थिति पर प्रभाव पड़ता है.

गुजारा करना मुश्किल
बुनकरों ने बताया कि एक साड़ी के पीछे लगभग 3 कारीगर लगते हैं. इस तरह के हाट से उन्हें मुश्किल से महीने में 8 से 10 हजार की इनकम होती है. ऐसे में कारीगरों की पगार निकालने के बाद उनके घर का गुजारा बहुत मुशकिल से ही हो पाता है.

आने वाले पीढ़ियों को करते हैं प्रोत्साहित
चंदेली गांव से आए बुनकर बताते हैं कि वे पांच पीढ़ियों से इस काम को कर रहे हैं. इसके साथ ही वे आने वाली पीढ़ियों को भी इस काम को करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं. उनका कहना है कि इस कला को उतना प्रोत्साहन नहीं दिया जा रहा है जितना दिया जाना चाहिए.

आंखों की रौशनी जाने का खतरा
जिस कला के लिए बुनकर अपना करियर दांव पर लगा देते हैं, वहीं कला बुढ़ापे में उनका साथ छोड़ देती है. कुछ कलाकार तो यह भी बताते हैं कि इस तरीके का बारीक काम करते-करते आंखों की रोशनी तक चली जाती है. ये खतरा एक कलाकार के ऊपर हमेशा बना रहता है. इतनी कम कमाई में जीवन चलाना मुश्किल है.

रायपुर: राजधानी में साल 1980 से हर वर्ष लगने वाला मृगनयनी हाट बाजार लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करता है. ये बाजार हर साल पंडरी में लगता है. इस बाजार की खासियत यहां आने वाले बुनकर हैं, जो पीढ़ियों से बुनाई का काम करते आ रहे हैं. लेकिन आज ये बुनकर सुविधाओं के अभाव में जीने को मजबूर हैं.

'मृगनयनी' पर नहीं जा रही है किसी की नजर

बुनकरों के लिए मृगनैनी हाट
राजधानी के पंडरी में लगे मृगनैनी हाट बाजार में तरह-तरह की साड़ियां मौजूद हैं. यहां खास तौर पर चंदेरी की साड़ियां लोगों का मन मोह रही हैं. ये साड़ियां 15 सौ से लेकर 15 हजार तक उपलब्ध हैं. पीढ़ियों से काम करते आ रहे बुनकर सरकार की मदद से अपनी कला को लोगों तक पहुंचा रहे हैं.

नहीं मिलता अच्छा रिस्पांस
लेकिन हाट को अच्छा रेस्पॉन्स नहीं मिलने से आज ये बुनकर परेशान हैं. उनका कहना है कि इस कला को जैसा रेस्पॉन्स पहले मिला करता था वैसा अब नहीं मिलता है. लोग मोलभाव कर कम रेट में साड़ियां खरीदते हैं, जिससे बुनकरों की आर्थिक स्थिति पर प्रभाव पड़ता है.

गुजारा करना मुश्किल
बुनकरों ने बताया कि एक साड़ी के पीछे लगभग 3 कारीगर लगते हैं. इस तरह के हाट से उन्हें मुश्किल से महीने में 8 से 10 हजार की इनकम होती है. ऐसे में कारीगरों की पगार निकालने के बाद उनके घर का गुजारा बहुत मुशकिल से ही हो पाता है.

आने वाले पीढ़ियों को करते हैं प्रोत्साहित
चंदेली गांव से आए बुनकर बताते हैं कि वे पांच पीढ़ियों से इस काम को कर रहे हैं. इसके साथ ही वे आने वाली पीढ़ियों को भी इस काम को करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं. उनका कहना है कि इस कला को उतना प्रोत्साहन नहीं दिया जा रहा है जितना दिया जाना चाहिए.

आंखों की रौशनी जाने का खतरा
जिस कला के लिए बुनकर अपना करियर दांव पर लगा देते हैं, वहीं कला बुढ़ापे में उनका साथ छोड़ देती है. कुछ कलाकार तो यह भी बताते हैं कि इस तरीके का बारीक काम करते-करते आंखों की रोशनी तक चली जाती है. ये खतरा एक कलाकार के ऊपर हमेशा बना रहता है. इतनी कम कमाई में जीवन चलाना मुश्किल है.

Intro:पीढ़ियों से कला के लिए जी रहे बुनकर आर्थिक रूप से बहुत कमजोर


Body:रायपुर । सन 1980 से लग रही मृगनैनी हाट बाजार इस बार भी पंडरी में लगी हुई है। यहां पर मध्य प्रदेश के कई कलाकार आए हुए हैं । सभी के पास अलग अलग तरीके की साड़ियां और इस बार चंदेरी की एक खास दौर पर रखी गई है । यहां पर इस बार 15 सौ से लेकर 15000 तक की साड़ियां लाई गई है । कला के लिए पीढ़ियों से काम कर रही है बुनकर कहते हैं कि सरकार द्वारा हमें मदद दी जा रही है और इसलिए इस तरीके के मेले लगाए जा रहे हैं म ताकि हमारी बिक्री हो सके लेकिन इस कला को जैसा रिस्पांस मिलना चाहिए या जैसे पहले इसको रिस्पांस मिलता था वैसा अब नहीं मिलता । हमारी मुश्किल से महीने के 8 से ₹10000 की इनकम होती है । एक साड़ी के पीछे 3 कारीगर लगते हैं उनको भी तनखा देना पड़ता है । साथ ही साथ अपना घर भी हमें खुद ही चलाना पड़ता है । यहां लोग आते हैं और हम से खूब मोलभाव करते हैं । उन्हें लगता है कि हम खूब कमा रहे हैं लेकिन हम इससे ज्यादा नहीं कमा पाते या काम हमारी पीढ़ियां करती आ रही है इससे हम लगाओ है हम इसे कभी नहीं छोड़ेंग ।

चंदेली गांव से आए बताते हैं कि वे पांच पीढ़ियों से यह काम कर रहे हैं और आने वाली पीढ़ियों को भी यही काम करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं वे कहते हैं कि जो यह कला है उसे उतना प्रोत्साहन नहीं दिया जा रहा है जितना दिया जाना चाहिए

वहीं कुछ अन्य बुनकर सामान्य बातचीत में बताते हैं कि एक सीजन में 10 से 15000 की कमाई उनके लिए बड़ी बात होती है बुनाई इनकी प्रकृति कला है आज दिन के बच्चे इसी कला में करियर संवार रहे हैं जिस कला के लिए बुनकर अपना करियर दांव पर लगा देते हैं वही कला बुढ़ापे में इंकार साथ छोड़ देती है कुछ कलाकार तो यह भी बताते हैं कि इस तरीके का बारीक काम करते-करते आंखों की रोशनी तक चली जाती है यात्रा एक कलाकार के ऊपर हमेशा बना रहता है वह इतनी कम कमाई में जीवन चलाना मुश्किल है दवाई और इलाज की बात करें तो उनके लिए बहुत बड़ी चीज


बाइट - एम एल शर्मा मैनेजर ( सफेद शर्ट )

बाइट - मोहम्मद जहीन कुरैशी ( बुनकर ) ( पीला शर्ट )

बाइट - रजा अंसारी ( बुनकर ) ( चैक शर्ट )

बुनकर बताते हैं कि वे पंद्रह सौ के साड़ी में केवल डेढ़ सौ काम आते हैं उसमें उनका परिवार भी चलता और उन जो साथ के कारीगर है उन्हें भी पैसे देने होते हैं कुछ पुरानी बुनकर बताते हैं कि पहले के जमाने में लोग बुनकरों से ही साड़ी खरीदना पसंद करते थे लेकिन आज के समय में सौदा करते हैं पहले ग्राहक अपनी खुशी के दाम देने के लिए तैयार हो जाता था और आज के ग्राहक मोरभागल भरोसा रखते हैं।


Conclusion:
Last Updated : Jun 12, 2019, 7:53 PM IST
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