रायपुर: 2023 की करारी हार कांग्रेस के लिए कई सबक एक साथ छोड़ गया. पहला सबक जो कांग्रेस को सियासत ने सिखाया वो ये कि राज्य की अस्मिता को लेकर पार्टी को जिंदा नहीं रखा जा सकता है. राज्य की अस्मिता पर राजनीति भी नहीं की जा सकती है. कांग्रेस ने ये दोनों भूल की. भूपेश बघेल ने खुद को छत्तीसगढ़ की अस्मिता से जोड़कर खुद को मजबूत बनाया पर पार्टी कमजोर होती चली गई. पार्टी आलाकमान भी ये मानती रही कि भूपेश हैं तो भरोसा है की तर्ज पर सब ठीक चल रहा है और योजनाएं देश में सबसे बेहतर हैं. जनता ने इस तिलिस्म को अपने वोटों से तोड़ दिया.
9 नवरत्न हारे: भूपेश बघेल की सरकार में 13 मंत्री थे. 13 मंत्रियों में से 9 नवरत्नों को हार का स्वाद चखना पड़ा. कांग्रेस से हारने वालों की फेहरिश्त इनती लंबी हो गई कि नतीजों के दिन कांग्रेस के नेता एक दूसरे से ये पूछने लगे, सब हार गए या फिर कोई जीता भी की नहीं. सन्नाटा मुख्यमंत्री के घर से लेकर दफ्तर तक रहा. मीडिया से हंसकर बात करने वाले नेता भी अंडरग्राउंड हो गए. कांग्रेस को सबसे पहले बुरी खबर चित्रकोट और दुर्ग से मिली, जहां उनके सबसे बड़े सिपहसालार दीपक बैज, ताम्रध्वज साहू चुनाव हार गए. दूसरा झटका लगा साजा से, जहां कद्दावर कृषि मंत्री रविंद्र चौबे और आरंग से मंत्री शिव डहरिया चारों खाने चित्त हो गए. तीसरा झटका लगा कोरबा में, जहां जयसिंह अग्रवाल चुनाव हार गए. चौथा सबसे बड़ा झटका तब लगा, जब मोहम्मद अकबर सियासी संग्राम में ढेर हो गए. हार का ये सिलसिला आखिरी सीट तक जारी रहा. बस्तर, सरगुजा, रायपुर और दुर्ग संभाग में लगा जैसे बीजेपी ने अपना बुलडोजर चला दिया हो.
सरकार के 9 मंत्री जो हारे
- टीएस सिंहदेव, डिप्टी सीएम, अंबिकापुर से हारे
- गुरु रुद्र कुमार,लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी मंत्री, नवागढ़ से हारे
- मोहम्मद अकबर,वन मंत्री कवर्धा से हारे
- ताम्रध्वज साहू, गृहमंत्री, दुर्ग ग्रामीण से हारे
- रविंद्र चौबे, कृषि मंत्री, साजा से हारे
- अमरजीत भगत, खाद्य मंत्री, सीतापुर से हारे
- जयसिंह अग्रवाल, राजस्व मंत्री, कोरबा से हारे
- मोहन मरकाम, आदिवासी विकास मंत्री, कोंडागांव से हारे
- शिवकुमार डहरिया, नगरीय प्रशासन मंत्री, आरंग से हारे
चाचा बनाम भतीजा: पाटन की सीट पर चाचा बनाम भतीजा की लड़ाई सालों से चली आ रही है. पाटन की सीट पर 35 फीसदी साहू वोट और 30 फीसदी कुर्मी वोट हैं. ओबीसी वर्ग के दोनों वोटों पर भूपेश बघेल की बराबर पकड़ है. इस चुनाव में भूपेश बघेल जरुर जीत गए लेकिन उनके जितने भी ओबीसी सिपहसालार थे, वो हार गए. पूरा संभाग जो कभी तिरंगे के रंग में रंगा था, आज भगवामय हो गया है. बस्तर से लेकर रायपुर तक और सरगुजा से लेकर दुर्ग तक कांग्रेस बस कागजों में गिनती की रह गई है.
दावों का निकला दम: 2018 में जब भूपेश बघेल की सरकार बनी थी, उस वक्त से ही भूपेश ने कांग्रेस पर भरोसा है का नारा हटाकर भूपेश है तो भरोसा है का नारा गढ़ा. भूपेश बघेल का ये नारा फेल हो गया. साढ़े चार साल तक सत्ता में अकेले राज किया और फिर आखिरी के 6 महीनों के लिए सिंहदेव को आधी गद्दी की जिम्मेदारी दे दी. समझदार जनता ने इसे वादाखिलाफी समझा और कांग्रेस को हराकर बदला लिया. सियासी जानकारों का तो यहां तक कहना है कि पूरी हार की असली जिम्मेदारी भूपेश बघेल के कंधों पर रही.
भूपेश मजबूत हुए कांग्रेस कमजोर हुई: सियासी जानकारों की मानें तो पिछले पांच सालों में भूपेश पार्टी को अकेले लेकर चले. अपना नारा दिया, गढ़बो नवा छत्तीसगढ़. पांच सालों में भूपेश बघेल छत्तीसगढ़ और कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व में मजबूत बनकर उभरे लेकिन कांग्रेस भीतर ही भीतर कमजोर रही थी, इसका पता न भूपेश को चला और ना ही पार्टी आलाकमान को. चुनावों के दौरान 'कका जिंदा है' की पंचलाइन भूपेश ने दिया पर वो काम नहीं आई. छत्तीसगढ़ के जिस स्थानीय गौरव का आह्वान वो पांच साल करते रहे, वो आखिर में काम नहीं आया.
रियासत से सियासत का सफर: 2018 में कांग्रेस की सरकार बनने के वक्त से ही टीएस सिंहदेव की इच्छा सीएम बनने की थी. सिंहदेव के करीबी विधायक उनको गद्दी पर देखना चाहते थे. सिंहदेव की इस इच्छा को भूपेश बघेल ने साढ़े चार साल तक परवान पर चढ़ाए रखा और जब आखिरी के 6 महीने बचे तो डिप्टी सीएम बना दिया. नतीजों से पहले तक सिंहदेव इशारों ही इशारों में ये कह चुके थे कि इस बार केंद्रीय नेतृत्व अपने पुराने फैसले को सुधारे. केंद्रीय नेतृत्व कुछ सोचता, उससे पहले ही कांग्रेस का राजपाठ बीजेपी ने छत्तीसगढ़ से समेट दिया.