रायपुर: कला और संस्कृति की धरती छतीसगढ़ में 2 कलाओं का मिलन कराने की ऐसी कोशिश हो रही है जिसकी सफलता से यहां की संस्कृति नए रूप में निखर कर सामने आ रही है. इस काम को करने का बीड़ा रायपुर के शिल्पकार रसिक बिहारी अवधिया ने उठाया है.
ढोकरा आर्ट के जरिए लोक कला का प्रदर्शन
छत्तीसगढ़ी में कई किताबें लिख चुके रसिक बिहारी शिल्पकला में भी माहिर हैं. इसी सोच को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने सैकड़ों साल पुरानी ढोकरा शिल्पकला के माध्यम से छत्तीसगढ़ की लोक कलाओं का प्रदर्शन किया है. 2 कलाओं को जोड़कर रसिक बिहारी प्रदेश की माटी का प्रतिनिधित्व पूरी दुनिया में कर रहे हैं. रसिक बिहारी ने बस्तर के ढोकरा आर्ट और मैदानी इलाकों के नाचा और पंडवानी का फ्यूजन तैयार किया है. सिर्फ नाचा ही नहीं उन्होंने बस्तर की कला संस्कृति और हाट बाजार को ढोकरा आर्ट के माध्यम से उकेरा है. इसके अलावा तीजन बाई की जीवंत मूर्ति के साथ पंडवानी की पूरी मंडली का भी प्रदर्शन किया है.
क्या है ढोकरा आर्ट
ढोकरा बेहद पुरानी शैली है. मोहनजोदड़ो की खुदाई में भी ढोकरा आर्ट से जुड़ी मूर्तियां मिली हैं. बस्तर में इस कला को अभी भी जीवित रखा गया है. यहां तराशी गई मूर्तियां पूरी दुनिया में भेजी जाती है. इसे बनाने के लिए पहले मिट्टी का ढांचा तैयार किया जाता है, ढांचा जब सूख जाता है तो इसे लाल मिट्टी से लिपाई की जाती है इसके बाद मोम का लेप लगाते हैं, जब यह लेप सूख जाता है तब इस पर बारीकी से डिजाइन बनाई जाती है. इसके बाद इसे मिट्टी से भरते हैं, मिट्टी से कवर करने के बाद पीतल, टिन, तांबे जैसी धातुओं को पिघलाकर उसे मिट्टी से ढंके सांचे में ढालकर शिल्पकारी की जाती है.
ऋतुसंहार का छत्तीसगढ़ी अनुवाद
गौरतलब है कि रसिक बिहारी अवधिया कालिदास की कविताओं का छत्तीसगढ़ी में भी अनुवाद कर चुके हैं. कालिदास की अमर रचना ऋतुसंहार का छत्तीसगढ़ी अनुवाद कर रसिक बिहारी ने दुनिया को बता दिया कि कला की कोई सीमा नहीं होती और कलाकार अपनी सोच से लगातार इसे विस्तार दे सकता है.
रसिक बिहारी छत्तीसगढ़ राज्य विद्युत मंडल में कार्यरत हैं और ड्यूटी के बाद के समय का उपयोग वे कला और साहित्य के लिए करते हैं ताकि उसमें और निखार आ सके. रसिक बिहारी नेशनल लेवल के कई एग्जीबिशन में भी अपनी कला का प्रदर्शन कर चुके हैं.