रायपुर: दलबदल को लेकर मध्यप्रदेश में सियासी घमासान मचा हुआ है. यह कोई पहली बार नहीं हुआ है, जब विधायकों के दलबदल से सरकार गिरी हो, इससे पहले भी अविभाजित मध्यप्रदेश में 1967 में इस तरह की घटना हो चुकी है. देश के दूसरे राज्यों में भी दलबदल कर कई सरकारें गिरी और बनी हैं. राजनीतिक विशेषज्ञों की मानें, तो जब अविभाजित मध्यप्रदेश था, जिसमें छत्तीसगढ़ भी शामिल था. तब भी मध्य प्रदेश में सरकार गिरी थी, लेकिन इस तरह के सरकार गिरने और बनने का इफेक्ट दूसरे राज्यों में भी दिखता है.
अविभाजित मध्यप्रदेश के दौर में छत्तीसगढ़ क्षेत्र को कांग्रेस का गढ़ कहा जाता था. यहीं के बूते ही सरकार बना करती थी. 1967 में पहली बार राजमाता विजयराजे सिंधिया की इसी प्रकार से डीपी मिश्रा ने उपेक्षा की थी, उससे आहत होकर उन्होंने कांग्रेस के खिलाफ विद्रोह कर सरकार गिराई थी. वरिष्ठ पत्रकार रमेश नैय्यर बताते हैं कि वह खुद मुख्यमंत्री नहीं बनी, लेकिन लोगों को मंत्री बनवाया था. ग्वालियर के पूरे क्षेत्र में उनका दबदबा रहता था.
'कांग्रेस के भीतर के लोग ही कांग्रेस को हराते हैं'
वर्तमान में मध्यप्रदेश में जब से सरकार बनी थी, तब से अटकलें लगाई जा रही थी कि यहां स्थिति कभी भी डांवांडोल हो सकती है, जब ज्योतिरादित्य सिंधिया की लगातार उपेक्षा की जा रही थी. हाईकमान उनको मिलने का समय नहीं दे रहा था. कांग्रेस के भीतर कुनमुनाहट, तो चल ही रही थी. ऐसे में निर्णय आना स्वाभाविक था. वैसे भी कांग्रेस के साथ में यह कहा जाता है कि इनको और कोई नहीं कांग्रेस के भीतर के लोग ही हराते हैं.
ज्योतिरादित्य सिंधिया के आने से मिलेगा फायदा
वहीं दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता और प्रदेश प्रवक्ता सच्चिदानंद उपासने कहते हैं कि सिंधिया परिवार का, जो इतिहास रहा है. वह भारतीय जनसंघ के दौर से भाजपा के साथ रहा है. भारतीय जनसंघ के समय से विजयाराजे सिंधिया से लेकर माधवराव सिंधिया भी जनसंघ से जुड़े थे, हालांकि माधवराव कुछ कारण से कांग्रेस में शामिल जरूर हुए, लेकिन उनका पूरा परिवार आज भी भाजपा में जुड़ा हुआ है. अब ज्योतिरादित्य सिंधिया के आने से न केवल मध्य प्रदेश बल्कि पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी इसका फायदा जरूर मिलेगा.
कार्यकर्ताओं को भुगतना पड़ता है खामियाजा
बहरहाल, दलबदल को लेकर कहीं न कहीं नेताओं के आपसी टकराव के कारण ही इस तरह के निर्णय होते हैं, लेकिन इसका खामियाजा उनके समर्थकों और कार्यकर्ताओं को भुगतना पड़ जाता है. अपने नेताओं के साथ इन कार्यकर्ताओं को भी पार्टी से दलबदल करने के लिए मजबूर हो जाते हैं और वह दूसरे दलों में चले तो जाते हैं, लेकिन एडजस्ट करने में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है.