जगदलपुरः छत्तीसगढ़ का बस्तर वर्तमान में भले ही नक्सलियों के गढ़ के तौर पर पहचाना जाता हो, लेकिन इसका इतिहास नाग पौराणिक कथाओं (mythology) से भरा पड़ा है. कभी यहां नाग-शासकों (serpent rulers) का राज हुआ करता था.
यहां के राजा भोगावती पुर्वरेश्वर की उपाधि धारण करते थे. इस संबंध में कुछ प्रमाणित जानकारियां धार्मिक ग्रंथों में भी मौजूद है. दरसअल, बस्तर में छठवीं शताब्दी (6th century) से लेकर वर्ष 1314 (year 1314) तक नाग वंशी (Nagvanshi) राजाओं का शासन (Governance) था और नागवंशी शिव उपासक (Nagvanshi Shiva worshiper) थे. इसलिए उन्होंने उमा-माहेश्वर, गणेश, कार्तिकेय, स्कंधमाता और शिवलिंग (Uma Maheshwar, Ganesha, Kartikeya, Skandmata and Shivling) की जगह-जगह स्थापना (Establishment) बस्तर में करवाए थे.
प्राचीन मूर्तियों में नागवंशी राजाओं की छाप, 'नाग-सर्प' के निशान
खास बात यह है कि आज भी इन प्राचीन मूर्तियों में नागवंशी राजाओं की छाप नाग-सर्प के अंकित (snake-snake images) चित्र के तौर पर देखने को मिलती है. प्राचीन बस्तर के नाग शासक सोमेश्वर देव प्रथम के लिए भी भोगवती स्वामी का उल्लेख हुआ है. प्राचीन बस्तर में शासन करने वाले सभी नाग राजा (snake king) भोगावती पुरवेश्वर की उपाधि भी धारण करते थे.
आलम यह है कि बस्तर के बारसूर ग्राम के नेगी वर्तमान में खुद को नागवंशी राजाओं के वंशज मानते हैं और यह मूलतः आदिवासी हैं. बस्तर में नागवंशी शासनकाल (Nag dynasty reign) में नागवंशी राजाओं ने भगवान शिव- पार्वती, गणेश (Shiva-Parvati, Ganesh) और अन्य देवी देवताओं की सैकड़ों मूर्तियां बनाई और उनके द्वारा बनाए हुए मंदिर (Temple) भी यहां मौजूद हैं.
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नागवंशी राजाओं ने कराया मंदिरों का निर्माण
इनमें से मुख्यरूप से दंतेवाड़ा के ढोलकाल और बारसूर में गणेश मंदिर, भैरमगढ़ में शिव-पार्वती की मूर्ति, नारायण पाल में भगवान विष्णु की मूर्ति (Vishnu Statue) है. इसके अलावा मधोता, केशरपाल, चिपका, नागफनी, इंजरम, मावलीभाटा बस्तर संभाग के ऐसे अनेकों गांव हैं जहां नागवंशी राजाओं ने मंदिरों का निर्माण किया है.
इन प्राचीन मंदिरों और यहां स्थापित मूर्तियों में खास बात यह है कि इन सभी जगहों पर नाग-सर्प का चित्र (snake picture) अंकित है. चाहे ढोलकाल की गणेश की प्राचीन प्रतिमा हो या फिर बारसूर में स्थित भगवान गणेश की प्रतिमा, इन दोनों ही प्रतिमा में खास बात यह है कि दोनों ही मूर्ति के पेट के हिस्से में नाग-सर्प (Snake in the belly of the idol) दिखाई देता है.
कार्तिकेश्वर मंदिर में भी 'नाग-सर्प' के चिन्ह
यही नहीं, भगवान कार्तिकेश्वर के मंदिर में भी नाग-सर्प का चित्र बना है. बस्तर के इतिहासकार और वरिष्ठ पत्रकार हेमंत कश्यप बताते हैं कि बस्तर में छठवीं शताब्दी से लेकर वर्ष 1314 तक छिंदक नागवंशी राजाओं का शासन था और छिंदक नागवंशी शिव भगवान के उपासक थे. इसलिए इन राजाओं ने पूरे बस्तर संभाग में भगवान शिव-पार्वती, गणेश, कार्तिकेय और स्कंधमाता की सैकड़ों मूर्तियां (Hundreds of sculptures of Skandmata) बनाई.
छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा शिवलिंग चित्रकोट में तो सबसे बड़ी गणेश प्रतिमा बारसूर में है. वहीं बैलाडीला की सबसे ऊंचे शिखर का नाम नंदराज छिंदक नागवंशियों ने ही रखा था. छठवीं शताब्दी से लेकर 14 वीं शताब्दी (14th century) के उत्तरार्द्ध वर्ष 1314 (latter year 1314) तक बस्तर में छिंदक राजवंश का रहा और इनकी खास बात यह थी कि 'नाग सर्प' को इनके द्वारा काफी पूजा जाता था. इसलिए यहां मौजूद भगवान शिव, गणेश से लेकर कार्तिकेश्वर और सती माता के मूर्तियों पर भी नाग-सर्प बना हुआ है.
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उमा-माहेश्वर की 70 से अधिक प्रतिमाएं उपलब्ध
छिंदक नागवंश शासनकाल में बस्तर संभाग में उमा-माहेश्वर की 70 से अधिक प्रतिमा विभिन्न स्थानों पर विराजित हैं. छत्तीसगढ़ प्रदेश के इस भू-भाग में सबसे प्राचीन मंदिर (ancient temple) और उनमें से उमा-माहेश्वर की सर्वाधिक प्रतिमाएं बस्तर में ही मौजूद हैं. बस्तर में शैव-वैष्णव, जैन-बौद्ध धर्म (Shaivism-Vaishnava, Jain-Buddhism) का प्रभाव नजर आता है और उस काल की प्रतिमाएं भी विभिन्न स्थानों पर मौजूद हैं.
लेकिन सबसे पौराणिक और सबसे दुर्लभ प्रतिमा छिंदक नाग वंश शासनकाल की मूर्तियां और मंदिर हैं. यही वजह है कि छत्तीसगढ़ में उमा-माहेश्वर, गणेश, कार्तिकेश्वर, स्कंधमाता के सर्वाधिक प्रतिमाएं बस्तर में विद्यमान हैं और सदियों से बस्तर शिव-पार्वती का उपासक रहा है. इन सभी प्राचीन मंदिरों खास कर भगवान के सभी प्राचीन मूर्तियों में 'नाग-सर्प' का चित्र अंकित है.