रायपुर: दंतेवाड़ा में बुधवार को एक बड़ा नक्सली हमला हुआ, जिसमें डीआरजी के 10 जवान और एक ड्राइवर शहीद हुए हैं. वर्ष 2021 के बाद से यह अब तक की सबसे बड़ी घटना मानी जा रही है. इसमें दंतेवाड़ा के अरनपुर में सर्चिंग पर निकले जवान आईईडी के चपेट में आ गए हैं. इस घटना के बाद से न केवल बस्तर संभाग बल्कि समूचा देश शोक में डूब गया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने घटना की निंदा की है. साथ ही जवानों को श्रद्धांजलि भी दी. इस घटना में शहीद हुए सभी जवान डीआरजी के हैं. ऐसे में आईये जानने की कोशिश करते हैं कि डीआरजी क्या है. इसका गठन कब और क्यों हुआ. नक्सल आरपेशन में डीआरजी की क्या भूमिका है.
जानिए क्या है डीआरजी: छत्तीसगढ़ में नक्सली गतिविधियों पर लगाम कसने के लिए डीआरजी ( डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड) का गठन किया गया था. इसके गठन की शुरुआत सबसे पहले कांकेर और नारायणपुर में 2008 में की गई. हालांकि कुछ जिलों में नक्सल विरोधी अभियान के लिए उस जिले के पुलिस अधीक्षक एटीएस के नाम से फोर्स का संचालन कर रहे थे. कांकेर और नारायणपुर में डीआरजी के जवानों को लगातार मिलती सफलता के बाद नक्सल क्षेत्र के अन्य जिलों में भी डीआरजी के नाम से इसका संचालन शुरू कर दिया. बीजापुर और बस्तर में डीआरजी का 2013 में गठन किया. वहीं 2014 में सुकमा और कोंडागांव में यह अस्तित्व में आया. इसके बाद 2015 में दंतेवाड़ा, राजनांदगांव और कवर्धा जिले में भी इसकी शुरुआत की गई.
डीआरजी में इनकी होती है भर्ती: छत्तीसगढ़ के नक्सल इलाके ज्यादातर आदिवासी क्षेत्र में ही आते हैं. इन क्षेत्रों के लोग ज्यादातर हल्बी और गोंडी भाषा का ही इस्तेमाल करते हैं. डीआरजी में लोकल लड़ाके और आत्मसमर्पित नक्सली होते हैं. इन्हें समाज की मुख्य धारा से जोड़ने और रोजगार के लिए डीआरजी में शामिल किया जाता है. नक्सली इलाकों से होने की वजह से ये जवान जंगल के बारे में काफी गहरी जानकारी रखते हैं. इनका इंटेलीजेंस नेटवर्क भी काफी मजबूत होता है. सर्चिंग के दौरान भी डीआरजी जवान बिना बुलेटप्रूफ जैकेट और हेलमेट के जंगलों की खाक छान डालते हैं. ये तीन से चार दिन तक लगातार जंगलों में नक्सलियों की तलाश कर सकते हैं. इनके हाथ में केवल हथियार और खाने पीने के ही समान होते हैं.
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नक्सल ऑपरेशन में बहुत अहम है इनकी भूमिका: वरिष्ठ पत्रकार अभिषेक सिंह कहते हैं कि "छत्तीसगढ़ में कई बड़े नक्सली हमले हुए हैं, जिनमें सीआरपीएफ और अर्धसैनिक बल के बहुत से जवान शहीद हो गए हैं. चूंकि बस्तर पहाड़ी और घने जंगलों से घिरा हुआ इलाका है. यहां की भगौलिक स्थिति को अर्धसैनिक बल और सीआरपीएफ के जवान नहीं समझ पाते. क्योंकि नक्सली गुरिल्ला युद्ध में भी माहिर हैं. ऐसे में लोकल युवाओं और सरेंडर कर चुके नक्सलियों को इसमें शामिल किया जाता है, जो गुरिल्ला युद्ध में पूरी तरह निपुण होते हैं. लोकल लैंग्वेज की समझ और जंगलों की गहरी परख होने की वजह से इन जवानों को नक्सल विरोधी अभियान में महत्वपूर्ण सफलता भी मिलती है."