बेतिया: बात अगर चंपारण की हो तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का नाम लेना स्वाभाविक हो जाता है. चंपारण ही वो जगह है जहां गांधीजी को महात्मा का सम्मान मिला था. इसी चंपारण से राष्ट्रपिता ने अंग्रेजों के खिलाफ नील आंदोलन से सत्याग्रह तक की मशाल जलाई थी, या यूं कहें कि इसी चंपारण सत्याग्रह ने अंग्रेजों की नींव हिला दी थी.
बेतिया जिला मुख्यालय से महज 8 किलोमीटर की दूरी पर वह इलाका स्थिति है जहां नील की खेती के नाम पर अंग्रेज भारतीय किसानों का शोषण करते थे. यहां स्थित हरदिया कोठी और अन्य कई कोठियों में आज भी गुलामी के निशान मौजूद हैं. जुल्म की दास्तां कहते आज भी कई प्रतीक यहां सहज ही मिल जाएंगे.
आज भी मौजूद हैं निशान...
गौरतलब है कि बेतिया में आज भी कुछ यादें मौजूद हैं. विकसित देशों से आयात हुई मशीनें अब भी यहां जर्जर हाल में पड़ी हुई हैं. खेत-खलियानों और जंग लगी गाड़ियों को देखकर इतिहास याद आता है. यह कोठियां और यहां बने कारखाने गवाह हैं कि अंग्रेजी हुकूमत ने नील की खेती के लिए कितनों की जानें ली, लहू बहाया.
खेती के नाम पर होता था शोषण
उस समय की तीन कठिया और पांच कठिया व्यवस्था से किसान त्रस्त थे. लगभग 1900ई. में तीन कठिया प्रणाली लागू की गई थी. इसके तहत एक बीघा जमीन में 3 कट्ठा खेत में नील लगाना किसानों के लिए अनिवार्य कर दिया गया था. जिस कारण इंग्लैंड पहुंचने वाली नील की एक-एक पेटी किसानों के खून से रंगी होती थी.
गुस्साए किसानों ने प्रबंधक को पीटा
एक रिपोर्ट के अनुसार, निलहों के शोषण से खिलाफ किसानों में उबाल था. धीरे-धीरे किसान शेख गुलाम के नेतृत्व में एकजुट होने लगे. बाद में 1907 में शोषण से भड़के किसानों ने हरदिया कोठी के प्रबंधक ब्रूमफील्ड को दिन में ही घेर लिया. उन्होंने लाठी से पीटकर ब्रूमफील्ड की जान ले ली. जिसके बाद अंग्रेजी हुकूमत बौखला गई.
अंग्रेजों ने शुरू किया था दमन चक्र
अपने खिलाफ आंदोलन शुरू होता देख अंग्रेजों ने किसानों को दबाना शुरू किया. अंग्रेजों ने शेख गुलाम को गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें यातना दी गई. लेकिन, किसानों के भीतर का उबाल शांत नहीं हुआ. धीरे-धीरे किसान आंदोलन की बागडोर राजकुमार शुक्ल ने संभाली. उन्होंने राष्ट्रपित मोहनदास करमचंद्र गांधी को चंपारण आने का न्योता दिया.
इतिहास के पन्नों में कैद है कहानियां
लेखक ब्रज किशोर सिंह की किताब 'चंपारण में बापू' के मुताबिक चंपारण सत्याग्रह के समय 6 अगस्त 1917 को बेतिया से जांच समिति के सदस्य और महात्मा गांधी हरदिया कोठी में तहकीकात के लिए आए थे. वहां नील किसानों की दुर्दशा देखकर गांधीजी का ह्रदय द्रवित हो उठा. जिसके बाद गांधीजी ने यहां के किसानों को आवाज दी. यही आवाज किसानों की ताकत बनी और वह सब गांधीजी के साथ हो लिए. नील किसानों को तीन कठिया प्रथा की पीड़ा से मुक्ति दिलाने के लिए आज भी बापू का नाम इतिहास में दर्ज है.