छपरा: शारदीय नवरात्र को लेकर देश सहित पूरे बिहार के मंदिरों में तैयारियां जोर शोर से चल रही है. बिहार के सबसे प्राचीन कालीबाड़ी में से एक छपरा कालीबाड़ी में भी बांग्ला रीति रिवाज से मां दुर्गा की पूजा की जाती है. छपरा कालीबाड़ी की स्थापना 1922 में की गई थी जिसके बाद से ही लगातार 101 साल से यहां पूजा होते आ रही है. यहां ढाक के थाप के बीच मनमोहक आरती होती है जिसे देखने के लिए हजारों की संख्या में श्रद्धालु जुटते हैं.
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बंगाली रीति-रिवाजों से पूजा : बिहार में दुर्गा पूजा कई मान्यताओं और परंपराओं के अनुसार होती है. यहां मुख्यत: तीन तरह की पूजा होती है जिसमें से एक है काशी रीति रिवाज के अनुसार, दूसरा है मिथिला के रीति रिवाज के अनुसार और तीसरा है बांग्ला रीति रिवाज के अनुसार. छपरा कालीबाड़ी में भी षष्ठी के दिन माता का पट खोला जाएगा, जिसको लेकर पंडाल निर्माता युद्ध स्तर पर पंडाल को फाइनल टच देने का प्रयास कर रहे हैं. वहीं हजारों-हजार की संख्या में भक्त मंदिर पहुंच कर माता की पूजा आराधना कर रहे हैं.
कब हुई मंदिर की स्थापना: छपरा कालीबाड़ी की स्थापना 1911 में हेमचंद्र मिश्रा, सतीश चंद्र सिंह, अक्षय कुमार गुप्ता और आशुतोष चंद्र मुखर्जी के द्वारा की गई थी. सभी व्यक्ति छपरा के प्रतिष्ठित जमींदार घराने से आते थे और पहले यहां पर काली मां की पूजा होती थी इसलिए इस जगह का नाम कालीबाड़ी पड़ा. इसके बाद 1922 से यहां पर लगातार दुर्गा पूजा का आयोजन किया जा रहा है. यहां पर कालीबाड़ी ट्रस्ट के द्वारा छोटे बच्चों का एक स्कूल भी चलाया जाता है. इसके पूर्व में यहां पर लक्ष्मी टॉकीज नाम का एक सिनेमा हॉल भी हुआ करता था, जो छपरा शहर का प्राचीनतम सिनेमा हॉल में से एक था जिसे आज से लगभग 15-20 वर्ष पूर्व बंद कर दिया गया.
छपरा कालीबाड़ी की दुर्गा पूजा खास: इस मंदिर की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यहां पर पूजा कराने वाले पंडित से लेकर मूर्ति बनाने वाले कलाकार सभी पैतृक रूप से यह काम करते आ रहे हैं. 1922 से जो मूर्तिकार मूर्ति बना रहे हैं उन्हीं के वंशज आज भी यहां पर मूर्ति बनाते हैं और जो बंगाली ब्राह्मण 1922 से यहां पूजा करते हैं उन्हीं के वंशज पीढ़ी दर पीढ़ी इस पूजा को कराते हैं. बंगाल से आए कलाकारों द्वारा ढाकी और ढोल की थाप पर माता की आरती का आयोजन किया गया.
ढाक के थाप पर होती है आरती: छपरा कालीबाड़ी में होने वाली माता की आरती में हजारों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं, यहां बांग्ला रीति रिवाज के अनुसार षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी और नवमी को ढाक के थाप पर आरती होती है जिसे बजाने वाले कलाकार पश्चिम बंगाल से आते हैं. सुबह में माता को पुष्पांजलि अर्पित की जाती है. इस पूजा में प्रतिदिन माता को भोग लगता है जिसका प्रसाद लोगों के बीच वितरित किया जाता है. प्रत्येक शाम आरती के बाद अष्टमी और नवमी को संधी पूजा होती है.
सिंदूर खेला के साथ मां की विदाई: दुर्गा पूजा के आखिरी दिन दशमी को सिंदूर खेला के साथ ही माता की विदाई हो जाती है. इसमें बंगाली समुदाय की सबसे बुजुर्ग महिलाओं के द्वारा माता को सिंदूर लगाकर विदा किया जाता है, उसके बाद सभी महिलाएं एक दूसरे को सिंदूर लगाकर सिंदूर खेला करती हैं और मुंह से एक विशेष प्रकार की मंगल ध्वनि निकालती है जिसे उलू देना कहते है. मैया के जयकारे के बीच अगले साल फिर आने की कामना के साथ भक्त माता को विदा कर देते हैं.