पूर्णिया: बिहार और बंगाल की सीमा से लगे बायसी के ताराबाड़ी पंचायत के लिए सैलाब और उससे होने वाले जान-माल का नुकसान भर ही आपदा नहीं है. बल्कि 800 की आबादी वाले इस मुस्लिम बस्ती के लिए इससे भी बड़ी त्रासदी बस्ती के पिछड़ापन के कारण बेटे और बेटियों के लिए आने वाले रिश्तों का टूटना है. यहां रिश्ते सिर्फ इसलिए टूट जाते हैं, क्योंकि तीन नदियों से घिरे इस बस्ती में आने-जाने का कोई साधन नहीं है. विकास की धूप इस बस्ती से आज भी कोसों दूर है.
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दूसरे बस्ती में बसने की परंपरा
यही वजह है कि ताराबाड़ी के लोगों के बीच निकाह के लिए बस्ती छोड़ दूसरे बस्ती में जा बसने की परंपरा कायम है. यह सुनकर भले ही हैरानी हो रही हो, लेकिन राजनीतिक रूप से किशनगंज और पूर्णिया दोनों ही जिलों के अंदर आने वाले बायसी प्रखंड के ताराबाड़ी के लोग शुरुआत से ही इस वैवाहिक चुनौती से जूझते आ रहे हैं. दरअसल खेती और पशुपालन पर पूरी तरह निर्भर ताराबाड़ी पंचायत में जब भी किसी की बेटी के हाथ पीले करने की बारी आई, यहां रहने वाले परिवारों को घर का आंगन छोड़ किसी सगे-संबंधियों के घर जाकर निकाह के रस्मों की अदायगी करनी पड़ी.
सगे-संबंधियों के घर होती है रस्में
ताराबाड़ी में करीब 4 दशक काट चले 61 वर्षीय रहबर इमाम कहते हैं उन्हें न सिर्फ सैलाब की त्रासदी के वक्त घर छोड़ दूसरे स्थान पर पलायन करना पड़ा. बल्कि ऐसे कई मौके आए जब ना चाहते हुए भी उन्हें अपने आनंद से दूर सगे संबंधियों के घर जाकर ही अपने बेटे और बेटियों के निकाह की बात करनी पड़ी. बल्कि निकाह के रस्मों को भी अपनी चौखट से दूर सगे-संबंधियों के घर ही पूरा करना पड़ा.
"शादी के लिए बस्ती से पलायन कर दूसरे गांव जा बसने की प्रथा कोई नई नहीं है. बल्कि 800 की आबादी वाले इस गांव में सदियों से यह परंपरा चली आ रही है. गांव तक पहुंचने के लिए सड़क मार्ग शुरुआत से ही परेशानी का सबब बनती रही है. आवागमन का साधन न होने की वजह से इस गांव तक आज तलक बेटे और बेटियों का रिश्ता लेकर नहीं आया. बस्ती का पिछड़ापन देख एक बार जो कोई बस्ती से लौटा तो फिर लाख दुहाइयों के बाद भी दोबारा वापस गांव नहीं आया. गांव से आने-जाने का एक मात्र सहारा नाव है. छोटी नदियों को पार करने के लिए जान जोखिम में डालना पड़ता है. "- मो. नियाज, स्थानीय
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हर साल आता है सैलाब
मो. नियाज का कहना है कि अचानक से बढ़े पानी में न जाने कितनों के घर के चिराग बह गए. उन्हें सिसककर अपने संतानों के मौत का तमाशा देखना पड़ा. वहीं 35 वर्षीय इम्तियाज आलम कहते हैं कि मुस्लिम बहुल बस्ती में धान और मक्के की बेहद समृद्ध फसल होती है. लेकिन हर साल आने वाला सैलाब खून पसीने से उपजाए इस फसल को तहस-नहस कर जाता है.
"सैलाब से बचाव की मुकम्मल प्रशासनिक व्यवस्थाएं हो तो, शायद ही बस्ती को सैलाब कभी छू पाए. सैलाब और कटाव से बचाव के कार्य हर साल ही यहां अधूरी रह जाती है. जिसके चलते सैकड़ों घर नदी में विलीन हो चुके हैं. वहीं माल-मवेशी ही नहीं बल्कि न जाने कितनों ने अपने लाडले को खो दिया है"- इम्तियाज आलम, स्थानीय
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"सिमरबाड़ी से एक मजबूत पूल खड़ा कर ताराबाड़ी को जोड़ दिया जाए तो, यहां रहने वाली हजारों की आबादी के लिए जद्दोजहद से भरी जिंदगी सरल और सहज बन जाएगी. दूसरी बस्तियों की तरह ये गांव भी खुशहाल होगा. मगर अफसोस राजनीतिक रूप से पूर्णिया और किशनगंज दो जिलों के बीच होने के बावजूद न तो आज तलक यहां बिजली दौड़ सकी, न कभी -सड़क बन सकी और न ही सैलाब से बचाने वाले मजबूत ब्रिज बन सके. यही वजह है कि जानें कितनी ही सरकारें आईं और गई. कभी कांग्रेस तो, कभी भाजपा के हाथ बायसी विधानसभा की कमान आई. मगर इसके हिस्से की बदलाव की कहानी आज तलक नहीं लिखी जा सकी"- तेहरीन फारुखी, स्थानीय