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पूर्णिया: पिछले साल लौटे श्रमिक नहीं जाना चाहते वापस, कहा- बिहार में मिला सहारा

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Published : Apr 21, 2021, 4:23 PM IST

Updated : Apr 21, 2021, 7:06 PM IST

पिछले साल की तरह ही इस बार भी कोरोना काल में प्रवासी कामगार घर वापसी कर रहे हैं. 2020 में ट्रेन से लगभग 22 लाख श्रमिकों ने घर वापसी की थी. कई ऐसे प्रवासी भी रहे जो बिहार लौटे तो फिर कभी मुड़कर दूसरे प्रदेश की ओर नहीं देखा. इस एक साल में कैसे बदली इन प्रवासी बिहारियों ने अपनी तकदीर पढ़िए ईटीवी भारत की ये खास रिपोर्ट...

bihar Migrant Labourer
bihar Migrant Labourer

पूर्णिया: पिछले साल लॉकडाउन लगने के बाद बिहार के लाखों प्रवासी श्रमिक अपने गांव लौट गए थे. एक बार फिर कोरोनाकाल की दूसरी लहर में श्रमिकों को अपने बैग पैक करने पर मजबूर होना पड़ा है. इस बार भी सैकड़ों मजदूरों ने परिवार के साथ वापस लौटना शुरू कर दिया है. ऐसे में ईटीवी भारत ने जानने की कोशिश की उन श्रमिकों की स्थिति जो 2020 में कई बाधाओं का सामना करते हुए वापस आए थे. उसके बाद से उनके मन में वापस जाने का विचार तक नहीं आया. ये सभी लोग एक सुर में कह रहे हैं कि अब बिहार से बाहर नहीं जाना है.

देखें रिपोर्ट

यह भी पढ़ें- कोविड-19: प्रवासी श्रमिकों के लिए 18003456138 है टोल फ्री नंबर, 24X7 मिलेगी मदद

प्रवासी श्रमिकों को बिहार पसंद है
गुजरे लॉकडाउन में हजारों की संख्या में प्रवासी श्रमिक गृह जिलों में वापस लौटे थे. लॉकडाउन और अनलॉक जैसी स्थितियों के खत्म होते ही दोबारा जिंदगियां पटरी पर लौटने लगी हैं. गुजरे वक्त से सबक लेकर कोई सरकार की ओर से मनरेगा के तहत दी जा रही रोजगार से जुड़ गया, तो वहीं किसी ने जिंदगी की गाड़ी फिर से शुरू की. किसी ने परिवार के बीच रहकर अपनों संग गुजारे के लिए दुकान शुरू कर दिया है.

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ईटीवी भारत gfx

सुकून से गुजार रहे जिंदगी
बिहार से वापस न लौटने का अटल फैसला कर चुके प्रवासी श्रमिक अपने-अपने गृह जिले में रहकर एक बेहतर जिंदगी जी रहे हैं. उन्हें ना सिर्फ प्रदेशों से बेहतर आमदनी मिल रही है बल्कि अब उन्हें अपनो की फिक्र भी नहीं सताती है.

bihar Migrant Labourer
मो. इरफान ने शुरू किया सिलाई का काम

प्रवासी श्रमिक की आप बीती
शहर के रामबाग स्थित किराए के मकान में रहकर खुद की और अपने परिवार का पेट पालने वाले विपिन कुमार पंडित ऐसे ही प्रवासी बिहारियों में से एक हैं जिन्होंने परदेस में रहकर कड़वी सच्चाई का सामना किया है. मूलतः अररिया के जोकीहाट के रहने वाले प्रवासी श्रमिक विपिन अब वापस नहीं जाना चाहते हैं. जोकीहाट में ही वे अब अखबार बेचकर आगे की पढ़ाई भी करते हैं. एक साल होने को है, वे बतौर हॉकर अखबार बेचकर न सिर्फ अपना और अपनी पढ़ाई का खर्च निकाल रहे हैं, बल्कि परिवार संग रहकर वे परदेस से कहीं अधिक खुश हैं.

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दुकान में चाय बनाते हुए अनिल की तस्वीर

'पिता शैलेन्द्र पंडित और मां करीब 5 साल तक हरियाणा के करनाल में रहे. वहां वे मिट्टी व हरयाणवी संस्कृति से जुड़ी सजावटी सामान और मिट्टी के बर्तन का कारोबार करते थे. साल 2019 में पिता के बुलावे पर मैं भी करनाल चला गया. संक्रमण काल में जब कोरोना के मामले बढ़ने लगे. व्यपार पर प्रभाव पड़ा एक से दो महीनों में जमापूंजी पूरी तरह खत्म हो गई. बकाया मांगने पर गैरों जैसा सुलूक किया जाने लगा. मकान मालिक मकान खाली करने के लिए जबर्दस्ती करने लगा. किसी तरह से अपने माता पिता के साथ बीते लॉकडाउन को हमलोग अररिया पहुंचे.'- विपिन कुमार पंडित, प्रवासी श्रमिक

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विपिन कुमार पंडित, प्रवासी श्रमिक

यह भी पढ़ें- लॉकडाउन की आहट! दिल्ली-महाराष्ट्र से अपने घर को लौट रहे प्रवासी मजदूर

किशन और शहनाज की दास्तां
लॉकडाउन से जुड़ी ऐसी ही कड़वी यादें जेल रोड स्थित चाय और नाश्ते की दुकान चलाने वाली दंपत्ति की है. किशन और शहनाज परवीन ने अपनी दुकान लॉकडाउन के ठीक बाद घर वापस आने के बाद शुरू की थी. एक साल पूरे होने में अभी कुछ वक्त बाकी है. इसके बावजूद यह दुकान ग्राहकों की सबसे पसंदीदा दुकानों में से एक है. प्रवासी दंपत्ति की मेहनत रंग लाई है. आज वे जयपुर से कहीं बेहतर जिंदगी अपनों के बीच रहकर बिहार में गुजार रहे हैं.

'हम दोनों एक ढाबे पर काम करते थे. कोरोना काल में ऐसी परिस्थिति बनी की दोनों को मालिक ने निकाल दिया. जिसके बाद करीब एक महीने काम की तलाश में इधर उधर भटकते रहे. कई दिन ऐसे गुजरे जब एक वक्त का निवाला तक मिलना मुश्किल होता था. प्रदेश वापसी के बाद दुकान खोला और अब दुकान से अच्छी आमदनी होती है. लोगों को बस यही कहूंगा कि अपना घर छोड़कर जाने की क्या जरुरत है जब यहीं रोजगार मिल रहा है. परदेस जाने से कोई फायदा नहीं है.'- किशन, प्रवासी श्रमिक

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किशन, प्रवासी श्रमिक

'लॉकडाउन में बहुत परेशानी झेली थी. खाने-खाने को मोहताज हुए थे. कोई मदद नहीं मिली थी. अब सब अच्छा है, दुकान से आमदनी अच्छी हो रही है. अब कहीं नहीं जाएंगे.'- शहनाज परवीन, प्रवासी श्रमिक

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शहनाज परवीन, प्रवासी श्रमिक

इरफान को पुणे से बेहतर पूर्णिया लगता है
आर एन शॉ चौक स्थित टेलरिंग शॉप चलाने वाले मो इरफान की तकलीफें किसी से कम नहीं थी. अब कोई लाख रुपये भी दे तो भी वे परदेस वापस जाना नहीं चाहते हैं. अब इरफान को पुणे से बेहतर पूर्णिया ही लगता है. यहां अपनो के बीच की जिंदगी पुणे की दिखावटी चकाचौंध भरी जिंदगी से कहीं बेहतर है.

'मैं करीब 2 साल पुणे में रहा लेकिन घर वापसी के बाद अब यहां की जिंदगी ज्यादा बेहतर लग रही है. यहां रहकर टेलरिंग का काम करते हैं. इससे अच्छी कमाई होती है. घरवालों को भी पैसे भेजते हैं. कोरोना काल में एकदम से परिस्थियां विपरीत हो गई थी. पैसों-पैसों के लिए मोहताज हो गए थे. मेरे कई रिश्तेदार जो बाहर रहते थे उनका भी हाल कुछ ऐसा ही था. मैंने तो यही सीखा है कि लोगों को अपने घर में ही रहकर काम करना चाहिए.'- मो. इरफान, प्रवासी श्रमिक

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हॉकर बने विपिन

अनिल ने कहा यहीं कमाएंगे-खाएंगे
रामबाग स्थित चाय की दुकान चलाने वाले अनिल कुमार पासवान बताते हैं कि वे करीब 7 साल तक दिल्ली में रहे. यहां वे गारमेंट्स कारखाने में काम किया करते थे. लॉकडाउन ने बाकी श्रमिकों की तरह ही उनकी भी नौकरी छीन ली.

'नौकरी चले जाने के बाद कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. सप्ताह के कई दिन ऐसे होते जब बगैर खाए ही सोना पड़ता था. अगले दिन किसी कैंप तक पहुंचने पर एक वक्त का खाना मिलता था. इस तरह करीब एक महीने दिल्ली में काटे और इसके बाद करीब आधे महीने की भागदौड़ के बाद किसी तरह श्रमिक स्पेशल ट्रेन से पूर्णिया पहुंचे. लॉकडाउन का अनुभव जिंदगी का अब तक का सबसे बुरा अनुभव रहा है.'- अनिल कुमार पासवान, प्रवासी श्रमिक

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अनिल कुमार पासवान, प्रवासी श्रमिक

सरकार से मदद की अपील
ईटीवी भारत की टीम ने जितने भी प्रवासी श्रमिकों से बात की सभी ने एक स्वर में कहा कि वापस जाने का सवाल ही नहीं उठता. इज्जत के साथ दो रोटी मिल जाये तो यही बहुत है. इन सभी ने सरकार से मदद करने की अपील की है ताकि अपनी जिंदगी को और बेहतर बना सके. साथ ही बिहार सरकार द्वारा अब तक उठाए गए कदमों की सराहना भी कर रहे हैं.

यह भी पढ़ें- फिर लौटा कोरोना का खौफ, दिल्ली-मुंबई से आ रही ट्रेनें फुल, खिड़कियों से घुस रहे यात्री

पूर्णिया: पिछले साल लॉकडाउन लगने के बाद बिहार के लाखों प्रवासी श्रमिक अपने गांव लौट गए थे. एक बार फिर कोरोनाकाल की दूसरी लहर में श्रमिकों को अपने बैग पैक करने पर मजबूर होना पड़ा है. इस बार भी सैकड़ों मजदूरों ने परिवार के साथ वापस लौटना शुरू कर दिया है. ऐसे में ईटीवी भारत ने जानने की कोशिश की उन श्रमिकों की स्थिति जो 2020 में कई बाधाओं का सामना करते हुए वापस आए थे. उसके बाद से उनके मन में वापस जाने का विचार तक नहीं आया. ये सभी लोग एक सुर में कह रहे हैं कि अब बिहार से बाहर नहीं जाना है.

देखें रिपोर्ट

यह भी पढ़ें- कोविड-19: प्रवासी श्रमिकों के लिए 18003456138 है टोल फ्री नंबर, 24X7 मिलेगी मदद

प्रवासी श्रमिकों को बिहार पसंद है
गुजरे लॉकडाउन में हजारों की संख्या में प्रवासी श्रमिक गृह जिलों में वापस लौटे थे. लॉकडाउन और अनलॉक जैसी स्थितियों के खत्म होते ही दोबारा जिंदगियां पटरी पर लौटने लगी हैं. गुजरे वक्त से सबक लेकर कोई सरकार की ओर से मनरेगा के तहत दी जा रही रोजगार से जुड़ गया, तो वहीं किसी ने जिंदगी की गाड़ी फिर से शुरू की. किसी ने परिवार के बीच रहकर अपनों संग गुजारे के लिए दुकान शुरू कर दिया है.

bihar Migrant Labourer
ईटीवी भारत gfx

सुकून से गुजार रहे जिंदगी
बिहार से वापस न लौटने का अटल फैसला कर चुके प्रवासी श्रमिक अपने-अपने गृह जिले में रहकर एक बेहतर जिंदगी जी रहे हैं. उन्हें ना सिर्फ प्रदेशों से बेहतर आमदनी मिल रही है बल्कि अब उन्हें अपनो की फिक्र भी नहीं सताती है.

bihar Migrant Labourer
मो. इरफान ने शुरू किया सिलाई का काम

प्रवासी श्रमिक की आप बीती
शहर के रामबाग स्थित किराए के मकान में रहकर खुद की और अपने परिवार का पेट पालने वाले विपिन कुमार पंडित ऐसे ही प्रवासी बिहारियों में से एक हैं जिन्होंने परदेस में रहकर कड़वी सच्चाई का सामना किया है. मूलतः अररिया के जोकीहाट के रहने वाले प्रवासी श्रमिक विपिन अब वापस नहीं जाना चाहते हैं. जोकीहाट में ही वे अब अखबार बेचकर आगे की पढ़ाई भी करते हैं. एक साल होने को है, वे बतौर हॉकर अखबार बेचकर न सिर्फ अपना और अपनी पढ़ाई का खर्च निकाल रहे हैं, बल्कि परिवार संग रहकर वे परदेस से कहीं अधिक खुश हैं.

bihar Migrant Labourer
दुकान में चाय बनाते हुए अनिल की तस्वीर

'पिता शैलेन्द्र पंडित और मां करीब 5 साल तक हरियाणा के करनाल में रहे. वहां वे मिट्टी व हरयाणवी संस्कृति से जुड़ी सजावटी सामान और मिट्टी के बर्तन का कारोबार करते थे. साल 2019 में पिता के बुलावे पर मैं भी करनाल चला गया. संक्रमण काल में जब कोरोना के मामले बढ़ने लगे. व्यपार पर प्रभाव पड़ा एक से दो महीनों में जमापूंजी पूरी तरह खत्म हो गई. बकाया मांगने पर गैरों जैसा सुलूक किया जाने लगा. मकान मालिक मकान खाली करने के लिए जबर्दस्ती करने लगा. किसी तरह से अपने माता पिता के साथ बीते लॉकडाउन को हमलोग अररिया पहुंचे.'- विपिन कुमार पंडित, प्रवासी श्रमिक

bihar Migrant Labourer
विपिन कुमार पंडित, प्रवासी श्रमिक

यह भी पढ़ें- लॉकडाउन की आहट! दिल्ली-महाराष्ट्र से अपने घर को लौट रहे प्रवासी मजदूर

किशन और शहनाज की दास्तां
लॉकडाउन से जुड़ी ऐसी ही कड़वी यादें जेल रोड स्थित चाय और नाश्ते की दुकान चलाने वाली दंपत्ति की है. किशन और शहनाज परवीन ने अपनी दुकान लॉकडाउन के ठीक बाद घर वापस आने के बाद शुरू की थी. एक साल पूरे होने में अभी कुछ वक्त बाकी है. इसके बावजूद यह दुकान ग्राहकों की सबसे पसंदीदा दुकानों में से एक है. प्रवासी दंपत्ति की मेहनत रंग लाई है. आज वे जयपुर से कहीं बेहतर जिंदगी अपनों के बीच रहकर बिहार में गुजार रहे हैं.

'हम दोनों एक ढाबे पर काम करते थे. कोरोना काल में ऐसी परिस्थिति बनी की दोनों को मालिक ने निकाल दिया. जिसके बाद करीब एक महीने काम की तलाश में इधर उधर भटकते रहे. कई दिन ऐसे गुजरे जब एक वक्त का निवाला तक मिलना मुश्किल होता था. प्रदेश वापसी के बाद दुकान खोला और अब दुकान से अच्छी आमदनी होती है. लोगों को बस यही कहूंगा कि अपना घर छोड़कर जाने की क्या जरुरत है जब यहीं रोजगार मिल रहा है. परदेस जाने से कोई फायदा नहीं है.'- किशन, प्रवासी श्रमिक

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किशन, प्रवासी श्रमिक

'लॉकडाउन में बहुत परेशानी झेली थी. खाने-खाने को मोहताज हुए थे. कोई मदद नहीं मिली थी. अब सब अच्छा है, दुकान से आमदनी अच्छी हो रही है. अब कहीं नहीं जाएंगे.'- शहनाज परवीन, प्रवासी श्रमिक

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शहनाज परवीन, प्रवासी श्रमिक

इरफान को पुणे से बेहतर पूर्णिया लगता है
आर एन शॉ चौक स्थित टेलरिंग शॉप चलाने वाले मो इरफान की तकलीफें किसी से कम नहीं थी. अब कोई लाख रुपये भी दे तो भी वे परदेस वापस जाना नहीं चाहते हैं. अब इरफान को पुणे से बेहतर पूर्णिया ही लगता है. यहां अपनो के बीच की जिंदगी पुणे की दिखावटी चकाचौंध भरी जिंदगी से कहीं बेहतर है.

'मैं करीब 2 साल पुणे में रहा लेकिन घर वापसी के बाद अब यहां की जिंदगी ज्यादा बेहतर लग रही है. यहां रहकर टेलरिंग का काम करते हैं. इससे अच्छी कमाई होती है. घरवालों को भी पैसे भेजते हैं. कोरोना काल में एकदम से परिस्थियां विपरीत हो गई थी. पैसों-पैसों के लिए मोहताज हो गए थे. मेरे कई रिश्तेदार जो बाहर रहते थे उनका भी हाल कुछ ऐसा ही था. मैंने तो यही सीखा है कि लोगों को अपने घर में ही रहकर काम करना चाहिए.'- मो. इरफान, प्रवासी श्रमिक

bihar Migrant Labourer
हॉकर बने विपिन

अनिल ने कहा यहीं कमाएंगे-खाएंगे
रामबाग स्थित चाय की दुकान चलाने वाले अनिल कुमार पासवान बताते हैं कि वे करीब 7 साल तक दिल्ली में रहे. यहां वे गारमेंट्स कारखाने में काम किया करते थे. लॉकडाउन ने बाकी श्रमिकों की तरह ही उनकी भी नौकरी छीन ली.

'नौकरी चले जाने के बाद कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. सप्ताह के कई दिन ऐसे होते जब बगैर खाए ही सोना पड़ता था. अगले दिन किसी कैंप तक पहुंचने पर एक वक्त का खाना मिलता था. इस तरह करीब एक महीने दिल्ली में काटे और इसके बाद करीब आधे महीने की भागदौड़ के बाद किसी तरह श्रमिक स्पेशल ट्रेन से पूर्णिया पहुंचे. लॉकडाउन का अनुभव जिंदगी का अब तक का सबसे बुरा अनुभव रहा है.'- अनिल कुमार पासवान, प्रवासी श्रमिक

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अनिल कुमार पासवान, प्रवासी श्रमिक

सरकार से मदद की अपील
ईटीवी भारत की टीम ने जितने भी प्रवासी श्रमिकों से बात की सभी ने एक स्वर में कहा कि वापस जाने का सवाल ही नहीं उठता. इज्जत के साथ दो रोटी मिल जाये तो यही बहुत है. इन सभी ने सरकार से मदद करने की अपील की है ताकि अपनी जिंदगी को और बेहतर बना सके. साथ ही बिहार सरकार द्वारा अब तक उठाए गए कदमों की सराहना भी कर रहे हैं.

यह भी पढ़ें- फिर लौटा कोरोना का खौफ, दिल्ली-मुंबई से आ रही ट्रेनें फुल, खिड़कियों से घुस रहे यात्री

Last Updated : Apr 21, 2021, 7:06 PM IST
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