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शहीद ध्रुव कुंडू: महज 13 साल की उम्र में दी थी कुर्बानी, स्मारक स्थल पर अब तक नहीं लगी प्रतिमा

13 वर्षीय ध्रुव कुंडू देश की आजादी के लिए अपनी जान कुर्बान कर गए. उनकी यादों को सहेजने के लिए ध्रव कुंडू स्मारक और पार्क अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहा है. स्थानीय लोग उनके बलिदान दिवस को राजकीय त्योहार के रूप में मनाने की मांग कर रहे हैं.

शहीद ध्रुव कुंडू स्मारक स्थल
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Published : Aug 13, 2019, 1:13 PM IST

Updated : Aug 13, 2019, 4:23 PM IST

पूर्णिया: 13 अगस्त 1942 को अंग्रेजों की गोलियों का सामना करते हुए 13 वर्षीय शहीद ध्रुव कुंडू ने देश की आजादी के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी थी. अपने वीर सपूत के बलिदान दिवस पर आज पूरा बिहार उन्हें याद कर रहा है. लेकिन उनकी यादों को सहेजने के लिए उनके नाम पर बने ध्रुव कुंडू स्मारक और पार्क अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहा है. इन पार्कों के सौंदर्यीकरण पर काफी पैसे खर्च किये गए, लेकिन बलिदान के 77 साल बाद भी शहीद ध्रुव की प्रतिमा स्मारक स्थल पर नहीं लगायी गयी है.

शहीद ध्रुव कुंडू के बलिदान दिवस पर विशेष

कौन थे वीर ध्रुव कुंडू
भारतीय स्वतंत्रता के लिए सैकड़ों वीर सपूत ऐसे हैं जिन्होंने अंग्रेजों से लड़ाई करते हुए अपनी जान गवां दी. लेकिन सबसे कम उम्र के शहीद ध्रुव कुंडू ने देश की आजादी के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी. पेशे से डॉक्टर किशोरी लाल कुंडू के छोटे बेटे ध्रुव कुंडू थे. डॉ. किशोरी लाल खुद एक स्वतंत्रता सेनानी थे. कहा जाता है कि ध्रुव कुंडू बचपन से ही काफी बहादुर थे. एक दिन स्कूल जाने के रास्ते में कुछ ब्रिटिश सिपाही डंडे से किसानों और मजदूरों पर ताबड़तोड़ हमले करने लगे. ध्रुव कुंडू ने रास्ते पर पड़े पत्थर से हमला कर ब्रिटिश सिपाही को लहूलुहान कर दिया. जिससे उन्हें वापस लौटना पड़ा.

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शहीद ध्रुव कुंडू की स्मृति में बना पार्क

13 वर्ष की उम्र में ही बने क्रांतिकारी
पेशे से प्राध्यापक डॉक्टर संजय कुमार सिंह ने बताया कि जिस उम्र में बच्चे खेलने कूदने में मस्त रहते हैं. वहीं,13 वर्षीय ध्रुव कुंडू महात्मा गांधी के 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' आंदोलन में कूद पड़े. 1942 का यह आंदोलन 13 अगस्त तक आजादी की लहर बनकर फैल चुकी थी. आजादी के परवानों की एक टोली ने तब कटिहार के सब रजिस्ट्रार का कार्यालय ध्वस्त कर अंग्रेजी हुकूमत वाली सरकारी दफ्तरों से ब्रिटिश झंडे उखाड़ फेंके थे. यहां के मुंसिफ कोर्ट सहित सरकारी दफ्तरों पर भारतीय तिरंगा लहराना शुरू कर दिया था.

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शहीद ध्रुव कुंडू का स्मारक स्थल

हंसते-हंसते खुद को कर दिया कुर्बान
आजादी के सिपाहियों की यह टोली कोतवाली थाने पर झंडा फहराने निकल गये थे. इसकी भनक पहले ही अंग्रेजों को लग चुकी थी. अंग्रेज सिपाहियों ने हाथों में तिरंगे लिए हजारों की संख्या वाले टोलियों से उल्टे पांव वापस लौटने को कहा. ब्रिटिश सिपाहियों की तनी बंदूकें देख सब लोग पीछे हट गए. मगर हाथ में तिरंगा लिए 13 वर्षीय कुंडू पुलिस स्टेशन की ओर बढ़ते चले गए. उसने कहा कि वीरों के पैर वतन पर मर मिटने के लिए आगे बढ़ते हैं. वापस लौटने के लिए नहीं. इस पर अंग्रेजों ने उनके ऊपर गोलियों चला दी. इसमें एक गोली उनके सीने में लग गई. आनन-फानन में उन्हें इलाज के लिए पूर्णिया सदर अस्पताल में भर्ती कराया गया. लेकिन 15 अगस्त 1942 को सुबह होते-होते उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया.

ईटीवी भारत की टीम ने लिया जायजा
वीर सपूत के समाधि स्थल पर उनके बलिदान के 77 सालों बाद भी महज सियासत के अलावा इनके स्मारकों और वाटिकाओं में कुछ खास इजाफा नहीं हो सका है. ईटीवी भारत की टीम मधुबनी चौक पर बने ध्रुव कुंडू के शहादत की याद में बने वाटिका पहुंचा तो इस वाटिका में ध्रुव कुंडू की प्रतिमा के बजाए छड़, गिट्टी और बालू पड़े मिले. जो किसी दूसरे के घर के निर्माण में उपयोग होने वाले थे.

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शहीद ध्रुव कुंडू पार्क में लोग करते हैं अपना काम

बर्बादी पर आसूं बहा रहे वीर कुंडू की याद में बने स्थल
शहीद ध्रुव कुंडू की वीरता को याद करते हुए स्थानीय अंशुमन कुमार बताते हैं कि आने वाली पीढियां ध्रुव कुंडू की वीर गाथाओं से प्रेरणा ले सके इसके लिए स्मारक और वाटिकाओं का निर्माण कराया गया. जिसमें जिले के मधुबनी चौक का ध्रुव कुंडू वाटिका भी शामिल है. जहां अंतिम बार ध्रुव कुंडू के दर्शन के लिए उनके शव को रखा गया था. शहीद ध्रुव के स्मारकों को बेहतर करने के लिए लाखों रुपए खर्च किए गए. लेकिन हालत जस की तस है. विधायक कोष से लाखों रुपये वाटिका के सौंदर्यीकरण के लिए खर्च किए गए. मगर किसी न किसी बाधा के कारण हर बार यह काम अधर में ही लटका रहा.

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पार्क पर हो गया है अतिक्रमण

राजकीय सम्मान की मांग
वहीं, स्थानीय पवन कुमार ने सरकार से मांग करते हुए कहा कि जिस तरह से कुंडू ने हंसते-हंसते अपने प्राणों की आहूति दे दी. उनके बलिदान दिवस को राजकीय त्योहार के रूप में मनाया जाना चाहिए.

पूर्णिया: 13 अगस्त 1942 को अंग्रेजों की गोलियों का सामना करते हुए 13 वर्षीय शहीद ध्रुव कुंडू ने देश की आजादी के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी थी. अपने वीर सपूत के बलिदान दिवस पर आज पूरा बिहार उन्हें याद कर रहा है. लेकिन उनकी यादों को सहेजने के लिए उनके नाम पर बने ध्रुव कुंडू स्मारक और पार्क अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहा है. इन पार्कों के सौंदर्यीकरण पर काफी पैसे खर्च किये गए, लेकिन बलिदान के 77 साल बाद भी शहीद ध्रुव की प्रतिमा स्मारक स्थल पर नहीं लगायी गयी है.

शहीद ध्रुव कुंडू के बलिदान दिवस पर विशेष

कौन थे वीर ध्रुव कुंडू
भारतीय स्वतंत्रता के लिए सैकड़ों वीर सपूत ऐसे हैं जिन्होंने अंग्रेजों से लड़ाई करते हुए अपनी जान गवां दी. लेकिन सबसे कम उम्र के शहीद ध्रुव कुंडू ने देश की आजादी के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी. पेशे से डॉक्टर किशोरी लाल कुंडू के छोटे बेटे ध्रुव कुंडू थे. डॉ. किशोरी लाल खुद एक स्वतंत्रता सेनानी थे. कहा जाता है कि ध्रुव कुंडू बचपन से ही काफी बहादुर थे. एक दिन स्कूल जाने के रास्ते में कुछ ब्रिटिश सिपाही डंडे से किसानों और मजदूरों पर ताबड़तोड़ हमले करने लगे. ध्रुव कुंडू ने रास्ते पर पड़े पत्थर से हमला कर ब्रिटिश सिपाही को लहूलुहान कर दिया. जिससे उन्हें वापस लौटना पड़ा.

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शहीद ध्रुव कुंडू की स्मृति में बना पार्क

13 वर्ष की उम्र में ही बने क्रांतिकारी
पेशे से प्राध्यापक डॉक्टर संजय कुमार सिंह ने बताया कि जिस उम्र में बच्चे खेलने कूदने में मस्त रहते हैं. वहीं,13 वर्षीय ध्रुव कुंडू महात्मा गांधी के 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' आंदोलन में कूद पड़े. 1942 का यह आंदोलन 13 अगस्त तक आजादी की लहर बनकर फैल चुकी थी. आजादी के परवानों की एक टोली ने तब कटिहार के सब रजिस्ट्रार का कार्यालय ध्वस्त कर अंग्रेजी हुकूमत वाली सरकारी दफ्तरों से ब्रिटिश झंडे उखाड़ फेंके थे. यहां के मुंसिफ कोर्ट सहित सरकारी दफ्तरों पर भारतीय तिरंगा लहराना शुरू कर दिया था.

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शहीद ध्रुव कुंडू का स्मारक स्थल

हंसते-हंसते खुद को कर दिया कुर्बान
आजादी के सिपाहियों की यह टोली कोतवाली थाने पर झंडा फहराने निकल गये थे. इसकी भनक पहले ही अंग्रेजों को लग चुकी थी. अंग्रेज सिपाहियों ने हाथों में तिरंगे लिए हजारों की संख्या वाले टोलियों से उल्टे पांव वापस लौटने को कहा. ब्रिटिश सिपाहियों की तनी बंदूकें देख सब लोग पीछे हट गए. मगर हाथ में तिरंगा लिए 13 वर्षीय कुंडू पुलिस स्टेशन की ओर बढ़ते चले गए. उसने कहा कि वीरों के पैर वतन पर मर मिटने के लिए आगे बढ़ते हैं. वापस लौटने के लिए नहीं. इस पर अंग्रेजों ने उनके ऊपर गोलियों चला दी. इसमें एक गोली उनके सीने में लग गई. आनन-फानन में उन्हें इलाज के लिए पूर्णिया सदर अस्पताल में भर्ती कराया गया. लेकिन 15 अगस्त 1942 को सुबह होते-होते उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया.

ईटीवी भारत की टीम ने लिया जायजा
वीर सपूत के समाधि स्थल पर उनके बलिदान के 77 सालों बाद भी महज सियासत के अलावा इनके स्मारकों और वाटिकाओं में कुछ खास इजाफा नहीं हो सका है. ईटीवी भारत की टीम मधुबनी चौक पर बने ध्रुव कुंडू के शहादत की याद में बने वाटिका पहुंचा तो इस वाटिका में ध्रुव कुंडू की प्रतिमा के बजाए छड़, गिट्टी और बालू पड़े मिले. जो किसी दूसरे के घर के निर्माण में उपयोग होने वाले थे.

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शहीद ध्रुव कुंडू पार्क में लोग करते हैं अपना काम

बर्बादी पर आसूं बहा रहे वीर कुंडू की याद में बने स्थल
शहीद ध्रुव कुंडू की वीरता को याद करते हुए स्थानीय अंशुमन कुमार बताते हैं कि आने वाली पीढियां ध्रुव कुंडू की वीर गाथाओं से प्रेरणा ले सके इसके लिए स्मारक और वाटिकाओं का निर्माण कराया गया. जिसमें जिले के मधुबनी चौक का ध्रुव कुंडू वाटिका भी शामिल है. जहां अंतिम बार ध्रुव कुंडू के दर्शन के लिए उनके शव को रखा गया था. शहीद ध्रुव के स्मारकों को बेहतर करने के लिए लाखों रुपए खर्च किए गए. लेकिन हालत जस की तस है. विधायक कोष से लाखों रुपये वाटिका के सौंदर्यीकरण के लिए खर्च किए गए. मगर किसी न किसी बाधा के कारण हर बार यह काम अधर में ही लटका रहा.

purena news
पार्क पर हो गया है अतिक्रमण

राजकीय सम्मान की मांग
वहीं, स्थानीय पवन कुमार ने सरकार से मांग करते हुए कहा कि जिस तरह से कुंडू ने हंसते-हंसते अपने प्राणों की आहूति दे दी. उनके बलिदान दिवस को राजकीय त्योहार के रूप में मनाया जाना चाहिए.

Intro:आकाश कुमार (पूर्णिया)
special story

13 अगस्त 1942. ये वह तारीख थी जब फिरंगियों की गोलियों का सामना करते 13 वर्षीय ध्रुव कुंडू देश की आजादी के लिए अपनी जान कुर्बान कर गए थे। अपने वीर सपूत के बलिदान दिवस पर आज समूचा बिहार उन्हें याद कर रहा है। मगर हैरत की बात है कि सबसे कम उम्र में देश की आजादी के लिए मर मिटने वाले ध्रुव कुंडू के स्मारक और वाटिकाएं आज अपनी बदहाली पर आंसू बहाते नजर आ रहे हैं। यूं तो इन वाटिकाओं के सौंदर्यीकरण के नाम पर पैसे पानी की तरह बहाए गए। मगर इसे देश का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि बलिदान के 77 सालों बाद भी ध्रुव कुंडू की एक प्रतिमा तक यहां नहीं लगाई जा सकी है।



Body:जिसकी साहस देश फिरंगियों के आंखों में थे आंसू...

दरअसल भारतीय स्वतंत्रता से जुड़ी स्वर्णिम इतिहासों के पन्ने पलटें तो ऐसे सैकड़ों ही आजादी के परवाने मिलते हैं। जिन्होंने फिरंगियों से दो-दो हाथ करते हुए अपनी जान कुर्बान कर दी।
मगर शायद ही आपने कभी सबसे कम उम्र के बलिदानी के बारे में सुना होगा। दरअसल असंख्य साहस और वीरता से जुड़ी यह कहानी है बिहार के उस बलिदानी की। जिस पर गोलियां चलाते हुए फिरंगियों की आंखों में आसूं भर आए थे ।


जानें कौन थे वीर ध्रुव कुंडू...


दरअसल कटिहार में जन्में ध्रुव कुंडू आजादी के परवानों में उन गिने -चुने नामों में से एक हैं। जिन्होंने महज 13 साल की उम्र में मुल्क के आजादी के खातिर फिरंगियों की गोलियों की परवाह किए बगैर हंसते-हंसते अपने प्राण की आहूति दे डाली थी। ध्रुव कुंडू के पिता डॉ किशोरी लाल कुंडू पेशे से डॉक्टर व एक बड़े स्वतंत्रता सेनानी थे। कहते हैं कि ध्रुव कुंडू बचपन से ही बड़े बहादुर थे। विद्यालय जाने के क्रम में एक रोज जब चंद ब्रिटिश सिपाही डंडे से किसानों व मजदूरों पर ताबडोड हमले करने लगे। ध्रुव कुंडू ने रास्ते पर पड़े पत्थर से हमले कर ब्रिटिश सिपाही को लहूलुहान कर दुम दबाकर भागने पर विवश कर दिया था।


महज 13 वर्ष की उम्र में स्वतंत्रता आंदोलन में कूदने वाले क्रांतिकारी ....


पेशे से प्राध्यापक डॉक्टर संजय कुमार सिंह की मानें तो जिस उम्र में लोग खेलने कूदने में मस्त रहते हैं। 13 वर्षीय ध्रुव कुंडू महात्मा गांधी के "अंग्रेजों भारत छोड़ो" आंदोलन में कूद पड़े थे। 1942 का यह आंदोलन तब 13 अगस्त होते-होते आजादी की आग बनकर धधक उठा था। आजादी के परवानों की एक टोली ने तब कटिहार स्थित सब रजिस्ट्रार का कार्यालय ध्वस्त कर अंग्रेजी हुकूमत वाली सरकारी दफ्तरों से ब्रिटिश झंडे उखाड़ फेंके थे। यहां के मुंसिफ कोर्ट सहित सरकारी दफ्तरों पर भारतीय तिरंगा लहराना शुरू कर दिया था। और आजादी के परवानों की यह टोली कोतवाली पर झंडे फहराने निकल पड़ा था।


हंसते-हंसते देश के लिए खुद को कर दिया था कुर्बान...


लिहाजा पहले ही इसकी भनक ब्रिटिशों ने भांप ली। हाथों में तिरंगे लिए हजारों की संख्या वाले टोलियों से जब उल्टे पांव लौट जाने को कहा गया। ब्रिटिश सिपाहियों की तनी बंदूकें देख हाथों में तिरंगा लिए बाकी परवाने तो पीछे हट गए। मगर हाथ में तिरंगा लिए 13 वर्षीय कुंडू पुलिस स्टेशन की ओर बढ़ चले। लिहाजा अंग्रेजों ने जब खूनी फरमान सुनाते हुए 13 वर्षीय ध्रुव कुंडू को तिरंगा लेकर उल्टे पांव वापस घर लौटने को कहा। अंग्रेजों पर बिजली की तरह गरजे ध्रुव कुंडू ने ये कहते हुए अपने पैर पीछे हटाने से साफ इंकार कर दिया - "कि वीरों के पैर वतन पर मर मिटने के लिए आगे बढ़ते हैं। वीर बुज़दिलों की गोलियों की परवाह नहीं किया करते" और इस तरह हंसते-हंसते फिरंगियों की सह पर चलाई गई गोलियों का सामना करते हुए ध्रुव कुंडू जमीं पर गिर पड़े। जिन्हें आनन-फानन में पूर्णिया सदर अस्पताल में भर्ती कराया गया।


जिसके वलिदान ने मुक़र्रर कर दी थी देश की आजादी की तारीख...


हालांकि 15 अगस्त 1942 को सुबह होते-होते वे देश को अलविदा कह गए। सबसे कम उम्र के आजादी के परवानों में से एक ध्रुव कुंडू पर लिखी किताब ' ध्रुव की अर्थी ' के मुताबिक 15 अगस्त 1942 को ध्रुव कुंडू की अंतिम यात्रा निकाली गई। भले ही यह महज एक इत्तेफाक हो। मगर ध्रुव कुंडू के बलिदान के साथ ही भारतीय स्वतंत्रता की तारीख मुकर्र हो चुकी थी। 13 वर्षीय ध्रुव कुंडू क़े बलिदान के ठीक पांच वर्ष बाद 15 अगस्त को ही देश को आजादी मिली। माउंटबेटन ने इसी दिन ठीक भारत के स्वतंत्रता की घोषणा की।


जब ईटीवी पहुंचा वीर सपूत के स्थल....


हैरत की बात है कि वीर ध्रुव कुंडू के बलिदान के 77 सालों बाद भी महज सियासत के अलावा इनके स्मारकों व वाटिकाओं में कुछ खास नहीं हो सका। ईटीवी भारत मधुबनी स्थित ध्रुव कुंडू के शहादत की याद में बने वाटिका पहुंचा। तो इस वाटिका में ध्रुव कुंडू की प्रतिमा के बजाए छड़-गिट्टी और बालू पड़े मिले। जो किसी दूसरे के घर के निर्माण में उपयोग में लाए जाने थे।


बर्बादी पर आसूं बहा रहे वीर कुंडू के याद में बने स्थल...


लिहाजा ध्रुव कुंडू के वीरता को याद करते हुए अंशुमन कुमार
बताते हैं कि आने वाली पीढियां ध्रुव कुंडू की वीर गाथाओं से प्रेरणा ले सके। इनके स्मारक और वाटिकाओं के निर्माण के लिए एक कमिटी बनाई गई। इसमें जिले के मधुबनी चौक स्थित वह ध्रुव कुताए वाटिका भी शामिल था। जहां अंतिम दफे ध्रुव कुंडू के दर्शन के लिए उनके शव को रखा गया था। वहीं वनभाग स्थित ध्रुव कुंडू के स्मारक समेत कई अन्य पार्क भी थे। जिसपर पैसे पानी की तरह बहाए गए मगर आज भी ये स्थल अपनी बर्बादी पर आसूं बहाते नजर आ रहे हैं।


स्वतंत्रता सेनानी ने संजोए रखी थी कुंडू की यादें...


वहीं अफसोस जताते हुए अनिल कुमार गुप्ता कहते हैं स्वतंत्रता सेनानी परमेश्वरी प्रसाद जब तक जीवित रहे ध्रुव कुताए वाटिका फूलों की सुंदरता से महकता रहा। लोग यहां उनकी शहीदी को याद करने आते रहे। उनके जाने के बाद इस वाटिका की देखरेख का काम अधर में लटक गया। विधायक कोस से लाखों रुपये वाटिका के सौंदर्यीकरण के लिए बहाए गए। मगर किसी न किसी अर्चन से हर दफे ही यह काम अधर में लटकता रहा है।


स्थानीय कर रहे राजकीय सम्मान की मांग....


वहीं स्थानीय पवन कुमार की मांग है जिसने कुंडू ने हंसते-हंसते अपने प्राणों की आहुति दे दी। उनके बलिदान दिवस को राजकीय त्योहार के रूप में मनाया जाना चाहिए। जिस वाटिका व स्मारक में ध्रुव कुंडू की प्रतिमाएं व उनसे जुड़ी यादों को सहेजकर रखा जाना चहिए वहां अब होर्डिंग व गंदगी का अंबार पड़ा है। वीरता की गाथा गाते ये स्थल आज अपनी बदहाली पर आंसू बहाते नजर आ रहे हैं।





Conclusion:
Last Updated : Aug 13, 2019, 4:23 PM IST
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