पूर्णिया: 13 अगस्त 1942 को अंग्रेजों की गोलियों का सामना करते हुए 13 वर्षीय शहीद ध्रुव कुंडू ने देश की आजादी के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी थी. अपने वीर सपूत के बलिदान दिवस पर आज पूरा बिहार उन्हें याद कर रहा है. लेकिन उनकी यादों को सहेजने के लिए उनके नाम पर बने ध्रुव कुंडू स्मारक और पार्क अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहा है. इन पार्कों के सौंदर्यीकरण पर काफी पैसे खर्च किये गए, लेकिन बलिदान के 77 साल बाद भी शहीद ध्रुव की प्रतिमा स्मारक स्थल पर नहीं लगायी गयी है.
कौन थे वीर ध्रुव कुंडू
भारतीय स्वतंत्रता के लिए सैकड़ों वीर सपूत ऐसे हैं जिन्होंने अंग्रेजों से लड़ाई करते हुए अपनी जान गवां दी. लेकिन सबसे कम उम्र के शहीद ध्रुव कुंडू ने देश की आजादी के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी. पेशे से डॉक्टर किशोरी लाल कुंडू के छोटे बेटे ध्रुव कुंडू थे. डॉ. किशोरी लाल खुद एक स्वतंत्रता सेनानी थे. कहा जाता है कि ध्रुव कुंडू बचपन से ही काफी बहादुर थे. एक दिन स्कूल जाने के रास्ते में कुछ ब्रिटिश सिपाही डंडे से किसानों और मजदूरों पर ताबड़तोड़ हमले करने लगे. ध्रुव कुंडू ने रास्ते पर पड़े पत्थर से हमला कर ब्रिटिश सिपाही को लहूलुहान कर दिया. जिससे उन्हें वापस लौटना पड़ा.
13 वर्ष की उम्र में ही बने क्रांतिकारी
पेशे से प्राध्यापक डॉक्टर संजय कुमार सिंह ने बताया कि जिस उम्र में बच्चे खेलने कूदने में मस्त रहते हैं. वहीं,13 वर्षीय ध्रुव कुंडू महात्मा गांधी के 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' आंदोलन में कूद पड़े. 1942 का यह आंदोलन 13 अगस्त तक आजादी की लहर बनकर फैल चुकी थी. आजादी के परवानों की एक टोली ने तब कटिहार के सब रजिस्ट्रार का कार्यालय ध्वस्त कर अंग्रेजी हुकूमत वाली सरकारी दफ्तरों से ब्रिटिश झंडे उखाड़ फेंके थे. यहां के मुंसिफ कोर्ट सहित सरकारी दफ्तरों पर भारतीय तिरंगा लहराना शुरू कर दिया था.
हंसते-हंसते खुद को कर दिया कुर्बान
आजादी के सिपाहियों की यह टोली कोतवाली थाने पर झंडा फहराने निकल गये थे. इसकी भनक पहले ही अंग्रेजों को लग चुकी थी. अंग्रेज सिपाहियों ने हाथों में तिरंगे लिए हजारों की संख्या वाले टोलियों से उल्टे पांव वापस लौटने को कहा. ब्रिटिश सिपाहियों की तनी बंदूकें देख सब लोग पीछे हट गए. मगर हाथ में तिरंगा लिए 13 वर्षीय कुंडू पुलिस स्टेशन की ओर बढ़ते चले गए. उसने कहा कि वीरों के पैर वतन पर मर मिटने के लिए आगे बढ़ते हैं. वापस लौटने के लिए नहीं. इस पर अंग्रेजों ने उनके ऊपर गोलियों चला दी. इसमें एक गोली उनके सीने में लग गई. आनन-फानन में उन्हें इलाज के लिए पूर्णिया सदर अस्पताल में भर्ती कराया गया. लेकिन 15 अगस्त 1942 को सुबह होते-होते उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया.
ईटीवी भारत की टीम ने लिया जायजा
वीर सपूत के समाधि स्थल पर उनके बलिदान के 77 सालों बाद भी महज सियासत के अलावा इनके स्मारकों और वाटिकाओं में कुछ खास इजाफा नहीं हो सका है. ईटीवी भारत की टीम मधुबनी चौक पर बने ध्रुव कुंडू के शहादत की याद में बने वाटिका पहुंचा तो इस वाटिका में ध्रुव कुंडू की प्रतिमा के बजाए छड़, गिट्टी और बालू पड़े मिले. जो किसी दूसरे के घर के निर्माण में उपयोग होने वाले थे.
बर्बादी पर आसूं बहा रहे वीर कुंडू की याद में बने स्थल
शहीद ध्रुव कुंडू की वीरता को याद करते हुए स्थानीय अंशुमन कुमार बताते हैं कि आने वाली पीढियां ध्रुव कुंडू की वीर गाथाओं से प्रेरणा ले सके इसके लिए स्मारक और वाटिकाओं का निर्माण कराया गया. जिसमें जिले के मधुबनी चौक का ध्रुव कुंडू वाटिका भी शामिल है. जहां अंतिम बार ध्रुव कुंडू के दर्शन के लिए उनके शव को रखा गया था. शहीद ध्रुव के स्मारकों को बेहतर करने के लिए लाखों रुपए खर्च किए गए. लेकिन हालत जस की तस है. विधायक कोष से लाखों रुपये वाटिका के सौंदर्यीकरण के लिए खर्च किए गए. मगर किसी न किसी बाधा के कारण हर बार यह काम अधर में ही लटका रहा.
राजकीय सम्मान की मांग
वहीं, स्थानीय पवन कुमार ने सरकार से मांग करते हुए कहा कि जिस तरह से कुंडू ने हंसते-हंसते अपने प्राणों की आहूति दे दी. उनके बलिदान दिवस को राजकीय त्योहार के रूप में मनाया जाना चाहिए.