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ग्राउंड रिपोर्ट: बिहार के इस 'पाकिस्तान' में न सड़क है न बिजली, न इलाज को है अस्पताल

देश के दिल में बसते इस 'पाकिस्तान' में हिन्दू देवी-देवता, राष्ट्रगान और वंदे मातरम के प्रति संथालों की अपार श्रद्धा है.

गांव की तस्वीर
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Published : Apr 15, 2019, 11:56 AM IST

Updated : Apr 22, 2019, 6:15 PM IST

पूर्णियाः भारत के कदम चांद और मंगल तक जा पहुंचे हैं. इन ग्रहों पर जीवन के नए मौके तलाशे जा रहे हैं. लेकिन देश में पाकिस्तान टोला नामक एक ऐसी जगह है जो आज भी 'टाइम एंड ट्रैवेल की थ्योरी' को जीवंत कर 21 वीं सदी से सीधे नवपाषाण युग में होने का एहसास कराता है.

दरअसल, जिला मुख्यालय से 30 किलोमीटर दूर श्रीनगर प्रखंड के सिंघिया अररिया सीमा पर पाकिस्तान टोला नाम का एक ऐसा गांव है जो आज भी गरीबी और अशिक्षा का दंश झेल रहा है. अक्सर पाकिस्तान का नाम सुन कर हम भौहें तरेर लेते हैं. लेकिन देश के दिल में बसते इस 'पाकिस्तान' में हिन्दू देवी- देवता, राष्ट्रगान और वंदे मातरम के प्रति संथालों की अपार श्रद्धा है.

बयान देते गांव के लोग

अंधेरों में गुजरती है रात
इस गांव में आजादी के दशकों बाद भी ना सड़कें बन सकीं ना ही स्कूल. स्वास्थ्य केंद्र की तो बात ही छोड़ दिजीए. स्वास्थ्य केंद्र के आभाव में समय रहते रोगों का इलाज नहीं हो पाता. आंखों के सामने लोग दम तोड़ देते हैं. बिजली तो पहुंची मगर इनकी रातें आज भी अंधेरों में गुजरती हैं. दूसरे गांव में रहने वाले इनके मुखिया गंगाराम टुडू को छोड़ दें, तो 400 वोटरों के इस टोले में मौजूद सभी 30 घरों में आज भी टेलीविजन, रेडियो, मोबाइल फोन हो या अखबार इनकी पहुंच से काफी दूर है.

बुनियादी सुविधाओं से महरूम
नेता शब्द सुनकर भड़कती संथाली समाज की एक महिला सीता की मानें तो यहां आज तक ना कोई स्थानीय प्रतिनिधि ही आया और न ही कोई सरकारी योजना. संथाल आदिवासियों की मानें तो आज भी वे उज्ज्वला के इंतजार में मिट्टी के चूल्हे और जलावन से ही खाना बनाकर पेट की भूख मिटाते हैं. शौचालय का एक मात्र जरिया खेत है. वहीं फूस और मिट्टी के ढहती दीवारों में रहने वाले ये लोग आज भी इंदिरा आवास की बाट जोह रहे हैं.

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गांव की तस्वीर

गड्ढेनुमा राह से गुजरते हैं लोग
सिंघिया से पाकिस्तान टोले तक जाने को लिए वर्षों पुरानी कोसी कोरा ब्रिज है. सड़क के नाम पर श्रीनगर से पाकिस्तान टोला जाने को 'अप टू डाउन' वाली झूले का एहसास कराती गड्ढेनुमा राह है. वर्षों पहले झारखंड छोड़ इस टोले में आ बसे तकरीबन 1 हजार की आबादी वाले इन संथालियों के कई तौर-तरीके नवपाषाण युग से मिलते हैं. ये लोग जीविकोपार्जन के लिए कृषि व मछली पालन पर निर्भर हैं. वहीं भोजन व रोजगार का एक बड़ा साधन, सुअर, गाय-भैंस, बकरी, मुर्गी व बत्तख पालन है.

बच्चों में पायलट तक बनने की चाह
गांव से दूर सिंघिया में 8 वीं कक्षा में पढ़ने वाले राजू टुडू की जुबां से निकले शब्द आदिवासी संथालियों के दर्द बयां करने के साथ ही ताज्जुब करने को काफी है. 13 वर्षीय राजू महज इसलिए पायलट बनना चाहते हैं, ताकि अपने कमाई के पैसों से हिंदुस्तान में बसने वाले इस पाकिस्तान टोले की तस्वीर बदल सकें. वहीं राजू व शिव नारायण टुडू की मानें तो गांव की लड़कियां व लड़के इसलिए छठी कक्षा से आगे नहीं पढ़ते क्योंकि गांव से दूर उच्च विद्यालय तकरीबन 10-12 किलोमीटर के फासले पर श्रीनगर में स्थित है.

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गांव में फैली गंदगी

यहां बसते हैं हिन्दू मान्यता के लोग
वहीं, हिन्दू देवी-देवताओं व प्रकृति को पूजने वाले संथालियों के इस पाकिस्तान में सड़क से लेकर घर के दीवारों तक पर हिन्दू देवी-देवताओं के साथ भारतीयता की झलक साफ देखी जा सकती है. यहां के लोगों की मानें तो सन 1947 की आजादी के बाद यहां रहने वाले मुस्लिम परिवारों ने भारत व पाकिस्तान के बंटवारे के बाद पाकिस्तान की खलती कमी को देखते हुए टोले का नाम पाकिस्तान टोला रख दिया था. उसके बाद1971 के आस-पास वे एक-एक कर यहां से चले गए.

गांव का नाम बना विकास में रोड़ा
नए बसेरे के तौर पर संथाल जो अब झारखंड में है वहां से आए आदिवासियों को यह इलाका पाकिस्तान टोले के नाम के साथ मिला. तब किसी ने इसके नाम में परिवर्तन की नहीं सोची. इस तरह एक पाकिस्तान भारत में भी रह गया. संथाली आदिवासियों की मानें तो टोले का नाम पाकिस्तान होना इसके विकास में एक बड़ा बाधक है.

पूर्णियाः भारत के कदम चांद और मंगल तक जा पहुंचे हैं. इन ग्रहों पर जीवन के नए मौके तलाशे जा रहे हैं. लेकिन देश में पाकिस्तान टोला नामक एक ऐसी जगह है जो आज भी 'टाइम एंड ट्रैवेल की थ्योरी' को जीवंत कर 21 वीं सदी से सीधे नवपाषाण युग में होने का एहसास कराता है.

दरअसल, जिला मुख्यालय से 30 किलोमीटर दूर श्रीनगर प्रखंड के सिंघिया अररिया सीमा पर पाकिस्तान टोला नाम का एक ऐसा गांव है जो आज भी गरीबी और अशिक्षा का दंश झेल रहा है. अक्सर पाकिस्तान का नाम सुन कर हम भौहें तरेर लेते हैं. लेकिन देश के दिल में बसते इस 'पाकिस्तान' में हिन्दू देवी- देवता, राष्ट्रगान और वंदे मातरम के प्रति संथालों की अपार श्रद्धा है.

बयान देते गांव के लोग

अंधेरों में गुजरती है रात
इस गांव में आजादी के दशकों बाद भी ना सड़कें बन सकीं ना ही स्कूल. स्वास्थ्य केंद्र की तो बात ही छोड़ दिजीए. स्वास्थ्य केंद्र के आभाव में समय रहते रोगों का इलाज नहीं हो पाता. आंखों के सामने लोग दम तोड़ देते हैं. बिजली तो पहुंची मगर इनकी रातें आज भी अंधेरों में गुजरती हैं. दूसरे गांव में रहने वाले इनके मुखिया गंगाराम टुडू को छोड़ दें, तो 400 वोटरों के इस टोले में मौजूद सभी 30 घरों में आज भी टेलीविजन, रेडियो, मोबाइल फोन हो या अखबार इनकी पहुंच से काफी दूर है.

बुनियादी सुविधाओं से महरूम
नेता शब्द सुनकर भड़कती संथाली समाज की एक महिला सीता की मानें तो यहां आज तक ना कोई स्थानीय प्रतिनिधि ही आया और न ही कोई सरकारी योजना. संथाल आदिवासियों की मानें तो आज भी वे उज्ज्वला के इंतजार में मिट्टी के चूल्हे और जलावन से ही खाना बनाकर पेट की भूख मिटाते हैं. शौचालय का एक मात्र जरिया खेत है. वहीं फूस और मिट्टी के ढहती दीवारों में रहने वाले ये लोग आज भी इंदिरा आवास की बाट जोह रहे हैं.

pakistan tola
गांव की तस्वीर

गड्ढेनुमा राह से गुजरते हैं लोग
सिंघिया से पाकिस्तान टोले तक जाने को लिए वर्षों पुरानी कोसी कोरा ब्रिज है. सड़क के नाम पर श्रीनगर से पाकिस्तान टोला जाने को 'अप टू डाउन' वाली झूले का एहसास कराती गड्ढेनुमा राह है. वर्षों पहले झारखंड छोड़ इस टोले में आ बसे तकरीबन 1 हजार की आबादी वाले इन संथालियों के कई तौर-तरीके नवपाषाण युग से मिलते हैं. ये लोग जीविकोपार्जन के लिए कृषि व मछली पालन पर निर्भर हैं. वहीं भोजन व रोजगार का एक बड़ा साधन, सुअर, गाय-भैंस, बकरी, मुर्गी व बत्तख पालन है.

बच्चों में पायलट तक बनने की चाह
गांव से दूर सिंघिया में 8 वीं कक्षा में पढ़ने वाले राजू टुडू की जुबां से निकले शब्द आदिवासी संथालियों के दर्द बयां करने के साथ ही ताज्जुब करने को काफी है. 13 वर्षीय राजू महज इसलिए पायलट बनना चाहते हैं, ताकि अपने कमाई के पैसों से हिंदुस्तान में बसने वाले इस पाकिस्तान टोले की तस्वीर बदल सकें. वहीं राजू व शिव नारायण टुडू की मानें तो गांव की लड़कियां व लड़के इसलिए छठी कक्षा से आगे नहीं पढ़ते क्योंकि गांव से दूर उच्च विद्यालय तकरीबन 10-12 किलोमीटर के फासले पर श्रीनगर में स्थित है.

pakistan tola
गांव में फैली गंदगी

यहां बसते हैं हिन्दू मान्यता के लोग
वहीं, हिन्दू देवी-देवताओं व प्रकृति को पूजने वाले संथालियों के इस पाकिस्तान में सड़क से लेकर घर के दीवारों तक पर हिन्दू देवी-देवताओं के साथ भारतीयता की झलक साफ देखी जा सकती है. यहां के लोगों की मानें तो सन 1947 की आजादी के बाद यहां रहने वाले मुस्लिम परिवारों ने भारत व पाकिस्तान के बंटवारे के बाद पाकिस्तान की खलती कमी को देखते हुए टोले का नाम पाकिस्तान टोला रख दिया था. उसके बाद1971 के आस-पास वे एक-एक कर यहां से चले गए.

गांव का नाम बना विकास में रोड़ा
नए बसेरे के तौर पर संथाल जो अब झारखंड में है वहां से आए आदिवासियों को यह इलाका पाकिस्तान टोले के नाम के साथ मिला. तब किसी ने इसके नाम में परिवर्तन की नहीं सोची. इस तरह एक पाकिस्तान भारत में भी रह गया. संथाली आदिवासियों की मानें तो टोले का नाम पाकिस्तान होना इसके विकास में एक बड़ा बाधक है.

Intro:आकाश कुमार (पूर्णिया)


आज जब भारत के कदम चांद और मंगल तक जा पहुंचे हैं। इन ग्रहों पर जीवन के नए मौके तलाशे जा रहे हैं। देश में पाकिस्तान टोला नाम की एक जगह है। जो 'टाइम एंड ट्रैवेल की थ्योरी' को जीवंत कर 21 वी सदी से सीधे नवपासान युग में होने का एहसास कराता है। आमूमन जिस पाकिस्तान का नाम सुन हम भौहें तरेर लेते हैं। देश के दिल में बसते इस 'पाकिस्तान' में हिन्दू देवी- देवता ,राष्ट्रगान और वंदे मातरम के प्रति संथालों की अपार श्रद्धा है।










Body:जान लें कैसा दिखता है यह 'पाकिस्तान'...

दरअसल जिला मुख्यालय से एनएच 31 बाघमारा होते हुए तकरीबन 30 किलोमीटर का फासला तय कर जैसे ही आप श्रीनगर प्रखंड के सिंघिया अररिया सीमा के करीब पहुंचे हैं।
पाकिस्तान टोला नाम का एक ऐसा गांव मिलता है। जो 'टाइम एंड ट्रैवेल की थ्योरी' को जीवंत कर 21 वी सदी से सीधे नवपासान युग में लिए जाने का एहसास कराता है। यह हाल तब है जब देश के कदम मंगल व चांद पर जा पहुंचे हैं। इन ग्रहों पर आशियाना बसाने के मौके तलाशें जा रहे हैं।


नव पासान युग से मिलते हैं इनके तौर-तरीके...


सिंघिया से पाकिस्तान टोले तक जाने को वर्षों पुरानी कोसी कोरा ब्रिज है। वहीं सड़क के नाम पर श्रीनगर से पाकिस्तान टोला जाने को 'अप टू डाउन' वाली झूले का एहसास कराती गड्ढ़ेनुमा राह। वर्षों पहले झारखंड छोड़ इस टोले में आ बसे तकरीबन 1 हजार की आबादी वाले इन संथालियों के कई तौर-तरीके नवपासां युग से मिलते हैं। एक ओर जहां वे जीविकोपार्जन के लिए कृषि व मछली पालन पर निर्भर हैं। वहीं भोजन व रोजगार का एक बड़ा साधन, सुअर, गाय-भैंस, बकरी, मुर्गी व बत्तख पालन है। वहीं हिन्दू देवी -देवताओं व प्रकृति को पूजने वाले संथालियों के इस पाकिस्तान में सड़क से लेकर घर के दीवारों पर हिन्दू देवी-देवताओं के साथ भारतीयता की धसक साफ़ देखी जा सकती है।


टेक्नोलॉजी इसकी पहुंच से आज भी कोसों दूर...


दरअसल एक ओर जहां इस गांव में आजादी के दशकों बाद से आज तलक न सड़कें बन सकीं। ना ही स्कूल व स्वास्थ्य केंद्र ही खोले जा सकें। बिजली तो पहुंची। मगर इनकी रातें आज भी अंगराइयों के साथ अंधेरों में गुजरती हैं। वहीं हैरत की बात यह है यह टोला अब तलक टेक्नोलॉजी की धूप से कोसो दूर है। दूसरे गांव में रहने वाले इनके मुखिया गंगाराम टुडू को छोड़ दें। तो 400 वोटरों के इस टोले में मौजूद सभी तकरीबन 30 घरों में आज भी टेलीविजन ,रेडियों ,मोबाइल फोन हो या अखबार इनकी पहुंच से काफी दूर हैं।


8वी का छात्र बदल सकेगा इस पाकिस्तान की सूरत...


8 वी कक्षा में पढ़ने वाले राजू टुडू की जुबां से निकले शब्द आदिवासी संथालियों के दर्द बयां करने के साथ ही ताज्जुब करने को काफी हैं। दरअसल 13 वर्षीय राजू महज इसलिए पायलट बनना चाहता है। ताकि अपने कमाई के पैसों से हिंदुस्तान में बसने वाले इस पाकिस्तान टोले की तस्वीर बदल सकें। वहीं राजू व शिव नारायण टुडू की मानें तो गांव की लड़कियां व लड़के इसलिए छठी कक्षा से आगे नहीं पढ़ती क्योंकि गांव से दूर उच्च विद्यालय तकरीबन 10-12 किलोमीटर के फासले पर श्रीनगर में स्थित है। इस टोले ने ऐसे दिन भी देखें हैं। जब स्वास्थ्य केंद्र के आभाव में समय रहते रोगों का इलाज नहीं हो सका। आंखों के सामने अपने-अपनों को जुदा कह गए।


नाम बन रहा विकास में बाधक...


दरअसल युदू टुडू सहित अन्य संथालों इनकी मानें तो सन 1947 की आजादी के बाद यहां रहने वाले मुस्लिम परिवारों ने भारत व पाकिस्तान के बंटवारे के बाद पाकिस्तान की खलती कमी को देखते हुए टोले का नाम पाकिस्तान टोला रख दिया था। हालांकि 1971 के आस-पास वे एक-एक कर यहां से चले गए। नए बसेरे के तौर पर झारखंड से आये संथाल आदिवासियों को पाकिस्तान टोले का साथ मिला। तब किसी ने इसके नाम में परिवर्तन की नहीं सोची। इस तरह एक पाकिस्तान भारत में भी रह गया। संथाली आदिवासियों की मानें तो टोले का नाम पाकिस्तान होना इसके विकास में एक बड़ा बाधक है। हालांकि समाजसेवी गिरीन्द्र नाथ झा व स्वतंत्र पत्रकार चिन्मय आनंद की मानें तो इसके पिछड़ेपन की एक बड़ी वजह नेताओं के नजर में वोटरों की मामूली संख्या है।


बुनियादी सुविधाओं से महरूम...


नेता शब्द सुनकर भड़कती संथाली समाज की महिला सीता की मानें तो न ही यहां आज तलक कोई स्थानीय प्रतिनिधि ही झक मारने आया और न ही कोई सरकारी योजना इस गांव तक आ सकी। संस्थाल आदिवासियों की मानें तो आज भी वे उज्ज्वला के इंतेजार में मिट्टी के चूल्हे और जलावन से ही पेट की भूख मिटाते हैं। शौचालय का एक मात्र जरिया खेत है। वहीं फुस और मिट्टी के ढहती दीवारों से बने इनके आशियाने आज भी इंदिरा आवास की राह में टकटकी लगाए बैठें हैं।







Conclusion:
Last Updated : Apr 22, 2019, 6:15 PM IST
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