पटना: बिहार में राजनीति का अपराधीकरण लोकतंत्र के लिए बड़ी चुनौती है. सुप्रीम कोर्ट ने कई फैसलों के माध्यम से राजनीति के अपराधीकरण पर ब्रेक लगाने की कोशिश की है. इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद चुनावों में भी मतदाताओं को नोटा का अधिकार दिया गया जिसके माध्यम से वोटर्स अगर किसी भी प्रत्याशी को पसंद न करते हों तो नोटा का इस्तेमाल कर विरोध जता सकते हैं. इसी साल हुये लोकसभा चुनावों में नोटा इस्तेमाल करने में बिहार के मतदाता पूरे देश में सबसे आगे रहे.
17वें लोकसभा चुनावों में पूरे देश के कुल 65.13 लाख मतदाताओं ने नोटा का प्रयोग किया था, जो कुल वोटों का 1.06 प्रतिशत था. बिहार में 40 लोकसभा सीटों पर कुल पड़े वोटों का 2 प्रतिशत वोट नोटा के नाम रहा, जिसकी संख्या 8.17 लाख रही.
नेताओं की विश्वसनीयता हुई है कम
बिहार में इतने बड़े पैमाने पर हुये नोटा के इस्तेमाल पर राजनीतिक विश्लेषक डी एम दिवाकर का कहना है कि सरकार और नेताओं को जो डिलीवर करना चाहिए, वह नहीं कर पा रहे हैं. राजनीति का अपराधीकरण भी बड़ी एक वजह है. वहीं, चुनाव सुधार के लिए काम करने वाली संस्था एडीआर के बिहार संयोजक राजीव कुमार ने बताया कि बिहार जैसे राज्यों में नेताओं की विश्वसनीयता कम हुई है. लोगों की मूलभूत आवश्यकताएं पूरी नहीं हो रही. नेताओं की कथनी और करनी में बड़ा फर्क है. जिस कारण से मतदाता नोटा का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं.
2013 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद नोटा को शामिल किया गया
भारत में उम्मीदवारों की सूची में नोटा को 2013 में उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद शामिल किया गया था. नोटा से मतदाताओं को एक ऐसा विकल्प मिला जिससे वे अगर अपने क्षेत्र के किसी उम्मीदवार को पसंद नहीं करते हैं तो वह अपना मतदान नोटा पर कर सकते हैं.
नोटा को लेकर बंटा मत
हालांकि, नोटा को लेकर सियासी गलियारों में सवाल उठते रहते हैं. नेताओं का मानना है कि लोगों को पक्ष या विपक्ष में मतदान करना चाहिए. नोटा का इस्तेमाल लोकतंत्र के लिए सही नहीं है. बहरहाल, नोटा के औचित्य पर लगातार डिबेट्स हो रहे हैं और इसे राइट टू रिजेक्ट या राइट टू रिकॉल के अधिकारों के तौर पर मान्यता दिये जाने की मांग लगातार चल रही है. राजनीतिक विश्लेषकों द्वारा कहा जा रहा है कि नोटा को वैल्यू नहीं देने से चुनावों में जनता का रुझान कम हो सकता है, जो लोकतंत्र की सेहत के लिए ठीक नहीं है.