पटनाः हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा के अध्यक्ष जीतन राम मांझी महागठबंधन की सियासी चाल में उलझ कर रह गए हैं. 26 तारीख तक कोआर्डिनेशन कमेटी का गठन करने की धमकी देकर मांझी ने साफ किया था कि महागठबंधन में उनकी हनक कितनी मजबूत होगी. लेकिन आरजेडी और कांग्रेस ने उनकी इस बात पर कोई तवज्जो ही नहीं दी और 26 जून का वक्त निकल गया.
दरअसल मुद्दा 2020 के लिए बिहार में गोलबंद हो रहे महागठबंधन में राजनीतिक विरोध और सियासत के लिए तय होने वाले मुद्दों की गोलबंदी का है. महागठबंधन के चार मजबूत घटक दल राजद, कांग्रेस, हम और रालोसपा अपनी-अपनी राह पकड़े हुए हैं. सभी दलों के अपने सियासी मुद्दे हैं और उन मुद्दों पर टिके रहने की अपनी तय की गई राजनीति का सियासी मुकाम.
महागठबंधन की सियासी चाल
चेहरे की गोलबंदी किस सियासत से शुरू हुई. महागठबंधन की तकरार की कहानी मांझी के नजरिए से भी की जाए, तो उलझी नहीं है. अपनी बात रखने के लिए जीतन राम मांझी दिल्ली दरबार में कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी तक अपनी फरियाद लेकर पहुंचे. लेकिन मामला सिफर ही रहा.
सियासी चाल में फंसे मांझी
26 जून के अल्टीमेटम को लेकर मांझी को ऐसा लग रहा था कि उनकी बातों को इतनी तरजीह मिलेगी कि राजद और कांग्रेस इस पर तत्काल काम करते हुए उनके शब्दों को अमलीजामा दे देंगे. लेकिन उन्हें इसका कोई लाभ नहीं मिला. उल्टे अब राजद के चुप रहने पर हम ने अपनी सियासी जिल्लत को बचाने के लिए सामने आते हुए कह दिया कि हमने 5 दिन का अल्टीमेटम और बढ़ा दिया है. मामला साफ है कि आपने जो अल्टीमेटम दिया था, उसको लेकर आपकी बात को सुना कितना गया और फिर आपने अल्टीमेटम बढ़ाकर क्या सुनाने की बात कह रहे हैं.
महागठबंधन में मांझी को नहीं मिल रही तवज्जो
अगर पूरे सियासी घटनाक्रम को समझा जाए तो मांझी की पूरी सियासत फंस गई है. महागठबंधन में मांझी को कोई खास तवज्जो नहीं मिल रही है. जिसका प्रमाण 26 जून तक कोआर्डिनेशन कमेटी के गठन के अल्टीमेटम का था. राजद ने उनकी किसी बात को तवज्जो नहीं दिया. दिल्ली दौड़ जरूर मांझी लगाए. लेकिन सोनिया गांधी से भी कोई उन्हें सकारात्मक उत्तर नहीं मिला.
महागठबंधन में उनकी हालत अब पिछली कुर्सी पर बैठने वाली हो गई है. अगर वह महागठबंधन में रहते हैं तो उन्हें तेजस्वी यादव के चेहरे के नेतृत्व को मानना पड़ेगा, क्योंकि यह है कि राजद तेजस्वी यादव के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ेगा और महागठबंधन में अगर राजद का नेतृत्व रहा तो तेजस्वी चेहरा होंगे, यह बिल्कुल तय है.
राजनीतिक उठापटक
बीच के सियासी समीकरण को समझें तो मांझी जदयू के अध्यक्ष नीतीश कुमार से भी मुलाकात कर चुके हैं. वहां भी उन्हें बहुत कुछ राजनैतिक फायदा होता नहीं दिखा, क्योंकि मांझी की राजनीतिक उठापटक से नीतीश अपनी गद्दी देने के बाद वाकिफ हुए हैं. वो भी अब बहुत ज्यादा भाव मांझी को देने के मूड में नहीं है. मांझी को साफ तौर पर यह कह दिया गया है कि हम के साथ कोई समझौता नहीं होगा. अगर मांझी जदयू के साथ आना चाहते हैं, तो पूरी पार्टी का जदयू में विलय कर लें. हम के लिए जदयू में जाना महागठबंधन से बड़ी खाई के रूप में है, जहां पूरी पार्टी के अस्तित्व पर ही सवाल है.
बीजेपी के साथ नहीं हो सकती राजनीतिक समझौते की बात
बीजेपी के साथ मांझी की कोई राजनीतिक समझौते की बात ही नहीं हो सकती, क्योंकि बीजेपी पहले ही कह चुकी है कि बिहार में बीजेपी के नेतृत्व रणनीति और चुनाव के लिए योजना सब कुछ नीतीश के मध्य है और नीतीश ही बिहार में बीजेपी-जदयू गठबंधन के नेता हैं. तो ऐसे में भाजपा से कोई बात उनकी बनेगी या भाजपा से कोई बात होगी भी ये संभव नहीं लगता.
मांझी की सियासत मझधार में अटकी
2020 में अपने सियासी जमीन को मजबूत करने में जुटे जीतन राम मांझी अब सियासत में किसी भी राजनीतिक दल के साथ अगर गठबंधन करते हैं, तो वह मजबूर सियासत के तहत ही होगी, क्योंकि बीजेपी पहले ही दांव आजमा चुकी है. 2015 की राजनीति के लिए 40 सीटों पर इन्हें उतारा था. लेकिन सिर्फ एक सीट जीत पाए थे. जिसमें राजनीतिक पकड़ और कद की बात भी साफ हो चुकी थी. अब देखना ये होगा कि मांझी की सियासत जिस मंझधार में जाकर अटकी है. उसमें हम का कौन सा खेवनहार मांझी की सियासत को उस पार ले जाता है.