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नवरात्रि आज से, प्रथम दिन करें मां शैलपुत्री की आराधना - नवरात्रि 2020

नवरात्रि के पहले दिन मां शैलपुत्री की पूजा की जाती है. इसके पीछे एक पौराणिक कथा भी है. पूजा की विधि, कलश स्थापना और ध्यान मंत्र के बारे में पढ़ें पूरी खबर...

नवरात्रि 2020
नवरात्रि 2020
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Published : Oct 17, 2020, 6:03 AM IST

पटना: नवरात्रि के आरंभ में प्रथम दिन मां शैलपुत्री की पूजा उपासना की जाती है. प्रथम दिन कलश या घट की स्थापना होती है. मां शैलपुत्री की शक्तियां अनन्त हैं. इस दिन उपासना में योगी अपने मन को मूलाधार चक्र में स्थित करते हैं. यहीं से उनकी योगसाधना का आरम्भ होता है. भगवती का वाहन वृषभ, दाहिने हाथ में त्रिशूल, और बायें हाथ में कमल सुशोभित है. शैलपुत्री के पूजन करने से 'मूलाधार चक्र' जाग्रत होता है, जिससे अनेक प्रकार की उपलब्धियां प्राप्त होती हैं.

नवरात्र के आरंभ में प्रतिपदा तिथि को कलश या घट की स्थापना की जाती है. कलश को भगवान गणेश का रूप माना जाता है. हिन्दू धर्म में हर शुभ काम से पहले गणेश जी की पूजा का विधान है. इसलिए नवरात्र की शुभ पूजा से पहले कलश के रूप में गणेश को स्थापित किया जाता है. आइए जानते हैं कि नवरात्र में कलश स्थापना कैसे किया जाता है.

घट स्थापना मुहूर्त

  • अभिजीत मुहूर्त सभी शुभ कार्यों के लिए अति उत्तम होता है. जो मध्यान्ह 11:36 से 12:24 तक होगा.
  • चित्रा नक्षत्र में कलश स्थापना प्रशस्त नहीं माना गया है. चित्रा नक्षत्र की समाप्ति दिन में 2:20 बजे के बाद किया जा सकेगा.
  • स्थिर लग्न कुम्भ दोपहर 2:30 से 3:55 तक होगा. साथ ही शुभ चौघड़िया भी इस समय प्राप्त होगा. यह अवधि कलश स्थापना हेतु अतिउत्तम है.
  • दूसरा स्थिर लग्न वृष रात में 07:06 से 09:02 बजे तक होगा.
  • लेकिन चौघड़िया 07:30 तक ही शुभ है. 7:08 से 7:30 बजे के बीच मे कलश स्थापना किया जा सकता है.

कलश स्थापना के लिए आवश्यक सामग्री :-

  • शुद्ध साफ की हुई मिट्टी
  • शुद्ध जल से भरा हुआ सोना, चांदी, तांबा, पीतल या मिट्टी का कलश
  • मोली (लाल सूत्र), साबुत सुपारी, कलश में रखने के लिए सिक्के, अशोक या आम के 5 पत्ते
  • कलश को ढंकने के लिए मिट्टी का ढक्कन, अक्षत (साबुत चावल)
  • एक पानी वाला नारियल, लाल कपड़ा या चुनरी

कलश स्थापना की विधि
नवरात्र में देवी पूजा के लिए जो कलश स्थापित किया जाता है वह सोना, चांदी, तांबा, पीतल या मिट्टी का ही होना चाहिए. लोहे या स्टील के कलश का प्रयोग पूजा में इस्तेमाल नहीं करना चाहिए. भविष्य पुराण के अनुसार कलश स्थापना के लिए सबसे पहले पूजा स्थल को शुद्ध कर लेना चाहिए. जमीन पर मिट्टी और जौ को मिलाकर गोल आकृति का स्वरूप देना चाहिए. उसके मध्य में गड्ढा बनाकर उस पर कलश रखें. कलश पर रोली से स्वास्तिक या ॐ बनाना चाहिए.

कलश के उपरी भाग में कलावा बांधे. इसके बाद कलश में करीब अस्सी प्रतिशत जल भर दें. उसमें थोड़ा सा चावल, पुष्प, एक सुपाड़ी और एक सिक्का डाल दें. इसके बाद आम का पञ्च पल्लव रखकर चावल से भरा कसोरा रख दें, जिस पर स्वास्तिक बना और चुनरी में लिपटा नारियल रखें. अंत में दीप जलाकर कलश की पूजा करनी चाहिए. कलश पर फूल और नैवेद्य चढ़ाना चाहिए.

ध्यान मंत्र

वन्दे वांछितलाभाय चन्द्रर्धकृत शेखराम्।
वृशारूढ़ा शूलधरां शैलपुत्री यशस्वनीम्॥
पूणेन्दु निभां गौरी मूलाधार स्थितां प्रथम दुर्गा त्रिनेत्राम्॥
पटाम्बर परिधानां रत्नाकिरीटा नामालंकार भूषिता॥
प्रफुल्ल वंदना पल्लवाधरां कातंकपोलां तुग कुचाम्।
कमनीयां लावण्यां स्नेमुखी क्षीणमध्यां नितम्बनीम्॥

स्तोत्र पाठ

प्रथम दुर्गा त्वंहि भवसागर: तारणीम्।
धन ऐश्वर्य दायिनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यम्॥
त्रिलोजननी त्वंहि परमानंद प्रदीयमान्।
सौभाग्यरोग्य दायनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यहम्॥
चराचरेश्वरी त्वंहि महामोह: विनाशिन।
मुक्ति भुक्ति दायनीं शैलपुत्री प्रमनाम्यहम्॥

पौराणिक मान्‍यता
अपने पूर्व जन्म में माता शैलपुत्री, प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थीं, तब इनका नाम सती था. इनका विवाह भगवान शंकर से हुआ था. पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार वह अपने पिता के घर आयोजित यज्ञ में गईं, जहां भगवान शंकर के अपमान को सुनकर उन्‍हें अत्‍यधिक क्रोध आया और माता सती ने वहीं पर अपने शरीर को योगाग्नि में भस्म कर दिया. अगले जन्म में सती ने शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया और शैलपुत्री नाम से विख्यात हुईं. इस जन्म में भी शैलपुत्री, शिवजी की ही अर्द्धांगिनी बनीं.

पटना: नवरात्रि के आरंभ में प्रथम दिन मां शैलपुत्री की पूजा उपासना की जाती है. प्रथम दिन कलश या घट की स्थापना होती है. मां शैलपुत्री की शक्तियां अनन्त हैं. इस दिन उपासना में योगी अपने मन को मूलाधार चक्र में स्थित करते हैं. यहीं से उनकी योगसाधना का आरम्भ होता है. भगवती का वाहन वृषभ, दाहिने हाथ में त्रिशूल, और बायें हाथ में कमल सुशोभित है. शैलपुत्री के पूजन करने से 'मूलाधार चक्र' जाग्रत होता है, जिससे अनेक प्रकार की उपलब्धियां प्राप्त होती हैं.

नवरात्र के आरंभ में प्रतिपदा तिथि को कलश या घट की स्थापना की जाती है. कलश को भगवान गणेश का रूप माना जाता है. हिन्दू धर्म में हर शुभ काम से पहले गणेश जी की पूजा का विधान है. इसलिए नवरात्र की शुभ पूजा से पहले कलश के रूप में गणेश को स्थापित किया जाता है. आइए जानते हैं कि नवरात्र में कलश स्थापना कैसे किया जाता है.

घट स्थापना मुहूर्त

  • अभिजीत मुहूर्त सभी शुभ कार्यों के लिए अति उत्तम होता है. जो मध्यान्ह 11:36 से 12:24 तक होगा.
  • चित्रा नक्षत्र में कलश स्थापना प्रशस्त नहीं माना गया है. चित्रा नक्षत्र की समाप्ति दिन में 2:20 बजे के बाद किया जा सकेगा.
  • स्थिर लग्न कुम्भ दोपहर 2:30 से 3:55 तक होगा. साथ ही शुभ चौघड़िया भी इस समय प्राप्त होगा. यह अवधि कलश स्थापना हेतु अतिउत्तम है.
  • दूसरा स्थिर लग्न वृष रात में 07:06 से 09:02 बजे तक होगा.
  • लेकिन चौघड़िया 07:30 तक ही शुभ है. 7:08 से 7:30 बजे के बीच मे कलश स्थापना किया जा सकता है.

कलश स्थापना के लिए आवश्यक सामग्री :-

  • शुद्ध साफ की हुई मिट्टी
  • शुद्ध जल से भरा हुआ सोना, चांदी, तांबा, पीतल या मिट्टी का कलश
  • मोली (लाल सूत्र), साबुत सुपारी, कलश में रखने के लिए सिक्के, अशोक या आम के 5 पत्ते
  • कलश को ढंकने के लिए मिट्टी का ढक्कन, अक्षत (साबुत चावल)
  • एक पानी वाला नारियल, लाल कपड़ा या चुनरी

कलश स्थापना की विधि
नवरात्र में देवी पूजा के लिए जो कलश स्थापित किया जाता है वह सोना, चांदी, तांबा, पीतल या मिट्टी का ही होना चाहिए. लोहे या स्टील के कलश का प्रयोग पूजा में इस्तेमाल नहीं करना चाहिए. भविष्य पुराण के अनुसार कलश स्थापना के लिए सबसे पहले पूजा स्थल को शुद्ध कर लेना चाहिए. जमीन पर मिट्टी और जौ को मिलाकर गोल आकृति का स्वरूप देना चाहिए. उसके मध्य में गड्ढा बनाकर उस पर कलश रखें. कलश पर रोली से स्वास्तिक या ॐ बनाना चाहिए.

कलश के उपरी भाग में कलावा बांधे. इसके बाद कलश में करीब अस्सी प्रतिशत जल भर दें. उसमें थोड़ा सा चावल, पुष्प, एक सुपाड़ी और एक सिक्का डाल दें. इसके बाद आम का पञ्च पल्लव रखकर चावल से भरा कसोरा रख दें, जिस पर स्वास्तिक बना और चुनरी में लिपटा नारियल रखें. अंत में दीप जलाकर कलश की पूजा करनी चाहिए. कलश पर फूल और नैवेद्य चढ़ाना चाहिए.

ध्यान मंत्र

वन्दे वांछितलाभाय चन्द्रर्धकृत शेखराम्।
वृशारूढ़ा शूलधरां शैलपुत्री यशस्वनीम्॥
पूणेन्दु निभां गौरी मूलाधार स्थितां प्रथम दुर्गा त्रिनेत्राम्॥
पटाम्बर परिधानां रत्नाकिरीटा नामालंकार भूषिता॥
प्रफुल्ल वंदना पल्लवाधरां कातंकपोलां तुग कुचाम्।
कमनीयां लावण्यां स्नेमुखी क्षीणमध्यां नितम्बनीम्॥

स्तोत्र पाठ

प्रथम दुर्गा त्वंहि भवसागर: तारणीम्।
धन ऐश्वर्य दायिनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यम्॥
त्रिलोजननी त्वंहि परमानंद प्रदीयमान्।
सौभाग्यरोग्य दायनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यहम्॥
चराचरेश्वरी त्वंहि महामोह: विनाशिन।
मुक्ति भुक्ति दायनीं शैलपुत्री प्रमनाम्यहम्॥

पौराणिक मान्‍यता
अपने पूर्व जन्म में माता शैलपुत्री, प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थीं, तब इनका नाम सती था. इनका विवाह भगवान शंकर से हुआ था. पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार वह अपने पिता के घर आयोजित यज्ञ में गईं, जहां भगवान शंकर के अपमान को सुनकर उन्‍हें अत्‍यधिक क्रोध आया और माता सती ने वहीं पर अपने शरीर को योगाग्नि में भस्म कर दिया. अगले जन्म में सती ने शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया और शैलपुत्री नाम से विख्यात हुईं. इस जन्म में भी शैलपुत्री, शिवजी की ही अर्द्धांगिनी बनीं.

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