पटना: बिहार में चुनाव की आहट के साथ ही दलबदल का खेल शुरू हो गया है. शुरुआत, आरजेडी के पांच विधान पार्षदों के जदयू में जाने से हुई. इसके बाद कुछ दिनों तक कोरोना संक्रमण के चलते राजनीति ठंडी हुई. लेकिन इलेक्शन कमीशन ने जैसे ही निर्धारित समय पर चुनाव की बात कही, वैसे ही राजनीतिक गलियारों में सियासत तेज हुई. 15 अगस्त से ही बिहार की पॉलिटिक्स उफान पर आ गई.
स्वतंत्रता दिवस पर लोजपा ने जहां बैठक की. तो वहीं, 16 अगस्त को आरजेडी ने अपने 3 विधायकों को बाहर का रास्ता दिखा दिया, जिन्होंने बाद में जदयू का दामन थाम लिया. दूसरी ओर बिहार कैबिनेट के उद्योग मंत्री श्याम रजक ने जदयू का साथ छोड़ने का फैसला लिया, तो पार्टी ने उससे पहले ही उन्हें निष्कासित कर दिया. 17 अगस्त को उन्होंने नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव की मौजूदगी में आरजेडी ज्वाइन कर ली. ऐसे में श्याम रजक ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा, 'ये तो बस शुरूआत है. आगे आगे देखिए होता है क्या'
दलबदल का सिलसिला वर्षों पुराना
श्याम रजक के बयान पर ही नहीं, सत्तारूढ़ दल भी इस बात की तस्दीक कर चुके हैं कि विपक्षी पार्टियों के कई नेता उनके साथ शामिल होने वाले हैं. चुनावों के समय दलबदल तेजी के साथ होता है. लोकसभा चुनाव 2019 में टूट की बात करें, तो पूर्व केंद्रीय मंत्री सह रालोसपा प्रमुख का नाम सबसे पहले आता है. उन्होंने एनडीए का साथ छोड़ महागठबंधन का हाथ थामा लिया था. ऐसे में इसबार बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में भी बड़ी टूट होगी, ये आश्चर्य करने वाली बात नहीं होगी.
आने वाले वक्त में कई बड़े चेहरे बिहार विधानसभा चुनाव से पहले इधर से उधर हो सकते हैं. बिहार में दल बदल का यह खेल कोई नया नहीं है. पिछले कुछ वर्षों में शिवानंद तिवारी, रामकृपाल यादव, अशोक चौधरी, दिलीप चौधरी, ललन पासवान, रमई राम, उदय नारायण चौधरी, नागमणि और वृषण पटेल समेत कई बड़े चेहरे दल बदल कर चुके हैं. लेकिन इस दल बदल के बीच जनता का क्या होगा. वह जनता जो पार्टी और चेहरे के नाम पर वोट देती है और पलक झपकते ही वह चेहरा किसी और दल में शामिल हो जाता है. ऐसे में ना तो कहीं विचारधारा की चर्चा होती है और ना ही पब्लिक सेंटीमेंट्स की.
'दलबदल करने वाले नेताओं से टूट जाती हैं उम्मीदें'
ईटीवी भारत ने इस खास मुद्दे पर शिक्षाविद, छात्र संघ से जुड़े नेता और आम लोगों से बात की. सबने अपनी अलग-अलग दी है. आम लोग यह मानते हैं कि उनकी मजबूरी है कि वह किस नेता को वोट दें, उनके सामने जो चेहरा होता है. उसपर भरोसा कर उन्हें वोट डालते हैं. छात्र संघ से जुड़े नेता निशांत ने कहा कि जिस विचारधारा को मानते हुए जनता वोट देती है. अगर, उनका नेता उस विचारधारा से अलग हो जाता है, तो यह बड़ी विडंबना है और इसे विश्वासघात कहा जाएगा. जो व्यक्ति अपनी विचारधारा पर कायम नहीं रह सकता. उससे और क्या उम्मीद कर सकते हैं.
'भरोसा कर देते हैं वोट'
कई लोगों ने यह भी कहा कि इस मामले में फायदा और नुकसान दोनों हैं. युवा व्यवसायी सोनू ने बताया कि पब्लिक मजबूर है. नोटा का कोई महत्व नहीं है. नोटा में बटन दबाने का मतलब अपना वोट बर्बाद करना है इसलिए हम लोग भरोसा करके वोट डालते हैं. यह उम्मीद रखते हैं कि किसी जनप्रतिनिधि को हम चुन रहे हैं और वो हमारा ख्याल रखेगा.
'पार्टियां को नाम पर चल रही पॉलिटिकल कंपनियां'
वहीं इस बारे में राजनीतिक विश्लेषक डॉक्टर डीएम दिवाकर ने कहा कि अब तो चुनाव का महत्व ही क्या कहें, जब टिकट बिकता है और उम्मीदवारी खरीदी जाती है. सब कुछ पैसे का खेल हो गया है. राजनीतिक दलों के नाम पर कंपनियां चल रही हैं, जिनके एजेंट को हम मजबूरी में वोट देते हैं. ऐसे लोगों से क्या उम्मीद कर सकते हैं.
कुल मिलाकर, नेताओं के दलबदल से पार्टियों भले ही कहती हों कि उन्हें कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला. लेकिन मतदाताओं पर इसका असर पड़ता है. शायद यही वजह है कि अक्सर लोग कहते हैं कि राजनीति बड़ी गंदा दलदल है. इससे दूर ही रहना चाहिए क्योंकि उन्हें इसी दलबदल के चलते कुछ समझ नहीं आता.