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बिहार में ढह गया वाम दुर्ग, 'लाल सलाम' को ध्वस्त करने में कन्हैया ने ठोकी आखिरी कील ! - बिहार की राजनीतिक खबरें

एक वक्त था जब बिहार में लेफ्ट का मजबूत आधार था. बेगूसराय कम्युनिस्टों का 'लेनिन ग्राम' था. वो आधार भी अब उनके हाथ से छूट गया. बिहार में कन्हैया वाम दलों की मजबूत उम्मीद थे लेकिन उन्होंने भी पाला बदल लिया. इसके पीछे भी एक बड़ी वजह है- पढ़ें पूरी खबर-

बिहार और वामपंथ
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Published : Sep 30, 2021, 2:02 PM IST

Updated : Sep 30, 2021, 7:47 PM IST

पटना: बिहार में वाम दल (Communist Party) की सियासत के सिरमौर बनने की राजनीतिक मंशा पाल कर बिहार के कभी लेनिन ग्राम (Lenin Gram) कहे जाने वाले बेगूसराय से राजनीति को आत्मसात करने वाले कन्हैया कुमार (Kanhaiya Kumar) ने वाम दल से नाता तोड़ कांग्रेस के दामन में अपना राजनीतिक जीवन जीने का संकल्प ले लिया है. कांग्रेस की राजनीति से जुड़ने के बाद वाम की राजनीति को लेकर एक बार फिर से चर्चा शुरू हो गयी है कि आखिर कन्हैया के बदलने की वजह क्या है?


ये भी पढ़ें- कांग्रेस और RJD के रिश्तों में बढ़ेगी तल्खी... बिहार में तेजस्वी के लिए चुनौती बनेंगे कन्हैया कुमार?

जनहित पर भारी पार्टी हित
वास्तव में, वाम दल बिहार में अपनी राजनीतिक जमीन पर सियासी बुनियाद का आधार ही खोज रहा है. इसकी एक नहीं कई वजह हो सकती है, लेकिन सबसे बड़ी वजह जनता के मुद्दों से दूर होती वाम दल की राजनीति. वामपंथी, राजनीति में सिर्फ निहायत हित खोजने के आधार वाली राजनीति से जुड़ गए और यह जनता के हित भूल गए. यह बात जनता के बीच खुलकर सामने भी आ गयी. इस दुर्दशा के लिए वामपंथी दल स्वयं भी जिम्मेवार रहे हैं. अपने वास्तविक मुद्दों से वे दूर हुए हैं और कई बार वामदलों में एकता की कोशिशें नाकाम होने के कारण भी उनकी साख घटी है. कन्हैया बिहार में वाम दल की एक ऐसी नाव पर सवार हुए जो सियासी लड़ाई में जमीन और जनाधार दोनों खो चुकी है.

बिहार में वामदलों का पतन क्यों?
बिहार में आजादी के बाद की राजनीति को देखा जाय तो वाम दल की सियासी दखल में तूती बोलती थी. बिहार ही नहीं देश की बात की जाए तो वाम दल अपने मजबूत जमीनी कैडर की बदौलत देश की सत्ता में अपनी हनक रखते थे. लेकिन, हर बार बदले राजनीतिक आधार और अवसरवादी राजनीति ने राष्ट्रीय स्तर पर वाम दल की राजनीति को नकार दिया. राष्ट्रीय स्तर पर बात करें तो 2004 के चुनाव में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला.

कांग्रेस से हाथ मिलाना वामदलों की भूल?
मनमोहन सिंह (Manmohan Singh) की सरकार के गठन में दूसरी पार्टियों के साथ-साथ वामपंथी पार्टियों की भी बेहद अहम भूमिका थी. इसे एक जुट करने में राजद सुप्रीमो लालू यादव (Lalu Prasad Yadav) का काफी अहम योगदान रहा. 2004 में वामपंथी दलों को 59 सीटें थीं. सन 2009 के चुनावों में ये कम होकर 24 रह गईं. वजह साफ है कि जिस कांग्रेस की नीतियों के विरोध के बदौलत वाम दल की जमीन मजबूत हुई थी. उसी के साथ जाकर उन्होंने जनता के बीच अपनी छवि खराब कर ली.

यहीं से वाम दल की कमर ही टूट गयी और कांग्रेस की नीतिगत राजनीति भी यही थी. वाम दल की सीट संख्या घटी और यूपीए 2 में लालू यादव को जगह ही नहीं मिली. 2014 में बीजेपी के आधार और नरेन्द्र मोदी की आंधी में यह आधी होकर सिर्फ 12 पर ही रह गई.


जनवादी मुद्दों से बनाई थी पैठ
बिहार की सियासत में एक वह भी दौर था, जब वामपंथी दल की तूती बोला करती थी. बिहार विधानसभा में दो दर्जन से ज्यादा विधायक और लोकसभा में चार-पांच सांसद वामपंथी दलों से हुआ करते थे. 1972 के विधानसभा में सीपीआई (CPI) मुख्य विपक्षी दल थी और सुनील मुखर्जी प्रतिपक्ष के नेता हुआ करते थे. मार्क्‍सवादी कम्‍युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) और भाकपा माले के भी कई विधायक हुआ करते थे. 1991 में सीपीआई के आठ सांसद थे. बिहार में वामपंथी दलों ने भूमि सुधार, बटाईदारों को हक, ग्रामीण गरीबों को हक और शोषण-अत्याचार के खिलाफ अथक संघर्ष के बल पर अपने लिए जो जमीन तैयार की थी और मुद्दे पर जनता उन पर भरोसा भी करती थी.


1969 से टूटने लगा आधार
बिहार में वाम दल अपनी नीतियों के कारण मजबूत होने के बाद भी सियासत के किनारे होने लगा. मुद्दों की राजनीति के बजाय जरूरत की राजनीति को वाम दल जगह देने लगे और यहीं से वाम दलों से जनता का मोहभंग होने लगा. 1969 में बिहार मध्यावधि चुनाव हुए और इसमें किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला. जनसंघ और सीपीआई के पास विधायकों की संख्या इतनी थी कि वे किसी की सरकार बना सकते थे. सीपीआई ने बीच का रास्ता अपनाया और अपना समर्थन देकर दारोगा प्रसाद राय के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनवा दी.

बिहार में वामपंथी सीटों का ग्राफ

बिहार की राजनीति में वाम दल के इस बदले रवैये ने बिहार की वामपंथी राजनीति को एक नया मोड़ दे दिया. इसके बाद तो सीपीआई ने कांग्रेस से राजनीतिक रिश्ता बना लिया और कांग्रेस की पिछलग्गू होकर अपनी राजनीति का हित साधने लगी. एक नजर में देखें- बिहार में वामपंथी दलों का चुनाव में प्रदर्शन-

ईटीवी भारत GFX
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जेपीवाद से भटकी बुनियाद
बिहार में 1972 के विधानसभा में सीपीआई मुख्य विपक्षी दल थी, भूमि सुधार, बटाइदारों को हक, ग्रामीण गरीबों को हक और शोषण-अत्याचार के खिलाफ वाम दलों ने अपने जमीन और जनाधार की राजनीति को खड़ा किया था. बिहार में वाम दलों की राजनीति को जगह मिलती थी लेकिन 1975 में जेपी आंदोलन ने देश की राजनीति को नयी दिशा दी और बिहार में एक राजनीतिक क्रांति आ गयी. इंदिरा के साथ खड़ी भकापा ने जेपी आंदोलन को प्रतिक्रियावादी आंदोलन कह दिया जिसका बहुत बड़ा घाटा वाम दलों को उठाना पड़ा. जेपी आंदोलन के विरोध में खड़े होकर वाम दलों ने वैसे ही जनता के विश्वास से अलग हो गयी थी. वहीं, रही-सही कसर 1979 में मंडल कमीशन के बाद निकले मंडलवाद ने खत्म कर दिया.

मंडलवाद ने तोड़ा वामपंथ का आधार
मंडलवाद की राजनीति से उभरे दलों एवं नेताओं ने सामाजिक न्याय के नारे के नाम पर राजनीति की ऐसी फसल बोयी कि उसे वे इसी आधार पर अब तक जमकर काटने का काम कर रहे हैं. कर्पूरी ठाकुर, लालू यादव, नीतीश कुमार और राम विलास पासवान (Ramvilash Paswan) जैसे नेताओं ने बिहार में दलित और ओबीसी को लिए सामाजिक नारा बुलंद किया जिसमें वाम दल की सियासात हवा हो गयी. लालू यादव के सामाजिक न्याय की राजनीति ने वाम दलों का पूरा वोट बैंक ही तोड़ दिया और वामदल अपनी सियासी जमीन के लिए सिर्फ चुनावों में कहीं कहीं दिखते रहे.


2005 से नीतीश का सुशासनवाद
बिहार में लालू की राजनीति ने कांग्रेस और वाम दल को किनारे तो कर दिया लेकिन जिस अतिवाद ने जन्म लिया उसने लालू की राजनीति को भी किनारे कर दिया. वाम दलों की हालत बद से बदतर हो गयी. 2005 में भाकपा माले ने पिछली बार 104 सीटों पर चुनाव लड़ा था. वामपंथ की इससे बड़ी त्रासदी क्या हो सकती है कि 96 स्थानों पर जमानत जब्त हो गयी. वोट के लिहाज से बात करें तो माले को 2005 में 5 लाख 20 हजार 352 मत हासिल हुए थे, जो कुल पड़े मतों के मुकाबले केवल 1.79 फीसदी था.

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने 56 सीटों पर चुनाव लड़ा था. 48 सीटों पर उसकी जमानत जब्त हो गयी थी और वोटों के रूप में उसे केवल 4 लाख 91 हजार 630 मत हासिल हुए थे, जो कुल पड़े मतों के सापेक्ष केवल 1.69 फीसदी रहे. भाकपा के केवल एक उम्मीदवार अवधेश कुमार राय बछवाड़ा सीट से विजयी रहे. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने 30 सीटों पर चुनाव लड़ा और 28 जगहों पर उसके उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गयी.

2020 में बेहतर प्रदर्शन
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के सबसे मजबूत चुनाव 2010 को देखा जाय तो इसमें वाम दल का पूरी तरह से सफाया हो गया. इस चुनाव में वाम दल को 1 सीट मिली. 2015 में नीतीश और लालू साथ हुए तो वाम दल को थोड़ी मजबूती मिली और 3 सीटों पर उसने जीत हासिल की. 2020 की सियासत में फिर से वाम दल, राजद और कांग्रेस के साथ राजनीतिक जमीन की पकड़ को मजबूत किया. 1985 को बाद का सबसे बड़ा जनाधार मिला और वाम दलों ने कुल 16 सीटों जीत ली.

वामदलों का गढ़ 'लेनिन ग्राम'
बिहार की सियासत में वाम दल के जिस वोट बैंक को जेपी के सिद्धांत की राजनीति करने वालों ने पकड़ा, उसमें नीतीश और रामविलास पासवान वाली लोजपा बीजेपी के साथ है. बेगूसराय जिसे वाम दल का गढ़ माना जाता था और इसे 'लेनिन ग्राम' कहा जाता था वहां भी वाम दल अपनी जमीन नहीं बचा सकी. भोला सिंह के बाद कट्टर हिन्दूवादी छवि के नेता गिरिराज सिंह ने लोकसभा चुनाव में जिस अंतर से जीत दर्ज की उसने वाम दल की मजबूती और राजनीतिक पकड़ की कहानी की मटिया पलीत कर दी.

कन्हैया ने भी बदल लिया पाला
कन्हैया कुमार यहां बेगूसराय से चुनावी मैदान में थे लेकिन 'लेनिन ग्राम' को ही वाम दल की राजनीतिक मुद्दे की बात को नहीं बता पाऐ. बिहार में 1985 को बाद 35 सालों की राजनीति में वाम दल का पूरा कुनबा ही बिखर गया. 1975 को जेपी आंदोलन को प्रतिक्रियावादी आंदोलन का नारा देने वाली वाम दल 1989 के मंडल कमीशन के वाद राजनीति में मुद्दों की राजनीति में प्रतिक्रिया देने लायक नहीं रही. वाम दलों के नेता सियासी फायदे की राजनीति में गांव की खेत वाली डगर से हट कर दिल्ली में दरबार वाली राजनीति को आत्मसात कर लिया. यही वजह रही कि वाम दल वाले वोट ने दूसरे दलों के साथ का हाथ पकड़ लिया, अब जिस राह पर कन्हैया भी चल दिए हैं.

वामदलों की बिखरती सियासत
2020 और 2021 देश की राजनीति में वाम दलों के राजनीतिक वजूद की मजबूती के नए पैमाने का साह कहा जा रहा था. मान जा रहा था कि बिहार में वामदलों ने 2020 के विधानसभा चुनाव में जिस तरह से वापसी की है उसका असर पश्चिम बंगाल के चुनाव में दिखेगा. ममता और भाजपा के बीच जिस तरह का सियासी संग्राम छिड़ा था उसमें वाम को जगह मिलेगी लेकिन मामला नहीं बन पाया. वाम दल की बिखरती सियासत और मुद्दा विहीन राजनीति से कन्हैया को यह लगने लगा कि वाम के साथ राजनीतिक जीवन की नाव पार नहीं लगेगी और कन्हैया ने सियासी सफर में 'हाथ' पकड़कर नई डगर पर कदम बढ़ा दिया.

पटना: बिहार में वाम दल (Communist Party) की सियासत के सिरमौर बनने की राजनीतिक मंशा पाल कर बिहार के कभी लेनिन ग्राम (Lenin Gram) कहे जाने वाले बेगूसराय से राजनीति को आत्मसात करने वाले कन्हैया कुमार (Kanhaiya Kumar) ने वाम दल से नाता तोड़ कांग्रेस के दामन में अपना राजनीतिक जीवन जीने का संकल्प ले लिया है. कांग्रेस की राजनीति से जुड़ने के बाद वाम की राजनीति को लेकर एक बार फिर से चर्चा शुरू हो गयी है कि आखिर कन्हैया के बदलने की वजह क्या है?


ये भी पढ़ें- कांग्रेस और RJD के रिश्तों में बढ़ेगी तल्खी... बिहार में तेजस्वी के लिए चुनौती बनेंगे कन्हैया कुमार?

जनहित पर भारी पार्टी हित
वास्तव में, वाम दल बिहार में अपनी राजनीतिक जमीन पर सियासी बुनियाद का आधार ही खोज रहा है. इसकी एक नहीं कई वजह हो सकती है, लेकिन सबसे बड़ी वजह जनता के मुद्दों से दूर होती वाम दल की राजनीति. वामपंथी, राजनीति में सिर्फ निहायत हित खोजने के आधार वाली राजनीति से जुड़ गए और यह जनता के हित भूल गए. यह बात जनता के बीच खुलकर सामने भी आ गयी. इस दुर्दशा के लिए वामपंथी दल स्वयं भी जिम्मेवार रहे हैं. अपने वास्तविक मुद्दों से वे दूर हुए हैं और कई बार वामदलों में एकता की कोशिशें नाकाम होने के कारण भी उनकी साख घटी है. कन्हैया बिहार में वाम दल की एक ऐसी नाव पर सवार हुए जो सियासी लड़ाई में जमीन और जनाधार दोनों खो चुकी है.

बिहार में वामदलों का पतन क्यों?
बिहार में आजादी के बाद की राजनीति को देखा जाय तो वाम दल की सियासी दखल में तूती बोलती थी. बिहार ही नहीं देश की बात की जाए तो वाम दल अपने मजबूत जमीनी कैडर की बदौलत देश की सत्ता में अपनी हनक रखते थे. लेकिन, हर बार बदले राजनीतिक आधार और अवसरवादी राजनीति ने राष्ट्रीय स्तर पर वाम दल की राजनीति को नकार दिया. राष्ट्रीय स्तर पर बात करें तो 2004 के चुनाव में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला.

कांग्रेस से हाथ मिलाना वामदलों की भूल?
मनमोहन सिंह (Manmohan Singh) की सरकार के गठन में दूसरी पार्टियों के साथ-साथ वामपंथी पार्टियों की भी बेहद अहम भूमिका थी. इसे एक जुट करने में राजद सुप्रीमो लालू यादव (Lalu Prasad Yadav) का काफी अहम योगदान रहा. 2004 में वामपंथी दलों को 59 सीटें थीं. सन 2009 के चुनावों में ये कम होकर 24 रह गईं. वजह साफ है कि जिस कांग्रेस की नीतियों के विरोध के बदौलत वाम दल की जमीन मजबूत हुई थी. उसी के साथ जाकर उन्होंने जनता के बीच अपनी छवि खराब कर ली.

यहीं से वाम दल की कमर ही टूट गयी और कांग्रेस की नीतिगत राजनीति भी यही थी. वाम दल की सीट संख्या घटी और यूपीए 2 में लालू यादव को जगह ही नहीं मिली. 2014 में बीजेपी के आधार और नरेन्द्र मोदी की आंधी में यह आधी होकर सिर्फ 12 पर ही रह गई.


जनवादी मुद्दों से बनाई थी पैठ
बिहार की सियासत में एक वह भी दौर था, जब वामपंथी दल की तूती बोला करती थी. बिहार विधानसभा में दो दर्जन से ज्यादा विधायक और लोकसभा में चार-पांच सांसद वामपंथी दलों से हुआ करते थे. 1972 के विधानसभा में सीपीआई (CPI) मुख्य विपक्षी दल थी और सुनील मुखर्जी प्रतिपक्ष के नेता हुआ करते थे. मार्क्‍सवादी कम्‍युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) और भाकपा माले के भी कई विधायक हुआ करते थे. 1991 में सीपीआई के आठ सांसद थे. बिहार में वामपंथी दलों ने भूमि सुधार, बटाईदारों को हक, ग्रामीण गरीबों को हक और शोषण-अत्याचार के खिलाफ अथक संघर्ष के बल पर अपने लिए जो जमीन तैयार की थी और मुद्दे पर जनता उन पर भरोसा भी करती थी.


1969 से टूटने लगा आधार
बिहार में वाम दल अपनी नीतियों के कारण मजबूत होने के बाद भी सियासत के किनारे होने लगा. मुद्दों की राजनीति के बजाय जरूरत की राजनीति को वाम दल जगह देने लगे और यहीं से वाम दलों से जनता का मोहभंग होने लगा. 1969 में बिहार मध्यावधि चुनाव हुए और इसमें किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला. जनसंघ और सीपीआई के पास विधायकों की संख्या इतनी थी कि वे किसी की सरकार बना सकते थे. सीपीआई ने बीच का रास्ता अपनाया और अपना समर्थन देकर दारोगा प्रसाद राय के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनवा दी.

बिहार में वामपंथी सीटों का ग्राफ

बिहार की राजनीति में वाम दल के इस बदले रवैये ने बिहार की वामपंथी राजनीति को एक नया मोड़ दे दिया. इसके बाद तो सीपीआई ने कांग्रेस से राजनीतिक रिश्ता बना लिया और कांग्रेस की पिछलग्गू होकर अपनी राजनीति का हित साधने लगी. एक नजर में देखें- बिहार में वामपंथी दलों का चुनाव में प्रदर्शन-

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जेपीवाद से भटकी बुनियाद
बिहार में 1972 के विधानसभा में सीपीआई मुख्य विपक्षी दल थी, भूमि सुधार, बटाइदारों को हक, ग्रामीण गरीबों को हक और शोषण-अत्याचार के खिलाफ वाम दलों ने अपने जमीन और जनाधार की राजनीति को खड़ा किया था. बिहार में वाम दलों की राजनीति को जगह मिलती थी लेकिन 1975 में जेपी आंदोलन ने देश की राजनीति को नयी दिशा दी और बिहार में एक राजनीतिक क्रांति आ गयी. इंदिरा के साथ खड़ी भकापा ने जेपी आंदोलन को प्रतिक्रियावादी आंदोलन कह दिया जिसका बहुत बड़ा घाटा वाम दलों को उठाना पड़ा. जेपी आंदोलन के विरोध में खड़े होकर वाम दलों ने वैसे ही जनता के विश्वास से अलग हो गयी थी. वहीं, रही-सही कसर 1979 में मंडल कमीशन के बाद निकले मंडलवाद ने खत्म कर दिया.

मंडलवाद ने तोड़ा वामपंथ का आधार
मंडलवाद की राजनीति से उभरे दलों एवं नेताओं ने सामाजिक न्याय के नारे के नाम पर राजनीति की ऐसी फसल बोयी कि उसे वे इसी आधार पर अब तक जमकर काटने का काम कर रहे हैं. कर्पूरी ठाकुर, लालू यादव, नीतीश कुमार और राम विलास पासवान (Ramvilash Paswan) जैसे नेताओं ने बिहार में दलित और ओबीसी को लिए सामाजिक नारा बुलंद किया जिसमें वाम दल की सियासात हवा हो गयी. लालू यादव के सामाजिक न्याय की राजनीति ने वाम दलों का पूरा वोट बैंक ही तोड़ दिया और वामदल अपनी सियासी जमीन के लिए सिर्फ चुनावों में कहीं कहीं दिखते रहे.


2005 से नीतीश का सुशासनवाद
बिहार में लालू की राजनीति ने कांग्रेस और वाम दल को किनारे तो कर दिया लेकिन जिस अतिवाद ने जन्म लिया उसने लालू की राजनीति को भी किनारे कर दिया. वाम दलों की हालत बद से बदतर हो गयी. 2005 में भाकपा माले ने पिछली बार 104 सीटों पर चुनाव लड़ा था. वामपंथ की इससे बड़ी त्रासदी क्या हो सकती है कि 96 स्थानों पर जमानत जब्त हो गयी. वोट के लिहाज से बात करें तो माले को 2005 में 5 लाख 20 हजार 352 मत हासिल हुए थे, जो कुल पड़े मतों के मुकाबले केवल 1.79 फीसदी था.

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने 56 सीटों पर चुनाव लड़ा था. 48 सीटों पर उसकी जमानत जब्त हो गयी थी और वोटों के रूप में उसे केवल 4 लाख 91 हजार 630 मत हासिल हुए थे, जो कुल पड़े मतों के सापेक्ष केवल 1.69 फीसदी रहे. भाकपा के केवल एक उम्मीदवार अवधेश कुमार राय बछवाड़ा सीट से विजयी रहे. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने 30 सीटों पर चुनाव लड़ा और 28 जगहों पर उसके उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गयी.

2020 में बेहतर प्रदर्शन
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के सबसे मजबूत चुनाव 2010 को देखा जाय तो इसमें वाम दल का पूरी तरह से सफाया हो गया. इस चुनाव में वाम दल को 1 सीट मिली. 2015 में नीतीश और लालू साथ हुए तो वाम दल को थोड़ी मजबूती मिली और 3 सीटों पर उसने जीत हासिल की. 2020 की सियासत में फिर से वाम दल, राजद और कांग्रेस के साथ राजनीतिक जमीन की पकड़ को मजबूत किया. 1985 को बाद का सबसे बड़ा जनाधार मिला और वाम दलों ने कुल 16 सीटों जीत ली.

वामदलों का गढ़ 'लेनिन ग्राम'
बिहार की सियासत में वाम दल के जिस वोट बैंक को जेपी के सिद्धांत की राजनीति करने वालों ने पकड़ा, उसमें नीतीश और रामविलास पासवान वाली लोजपा बीजेपी के साथ है. बेगूसराय जिसे वाम दल का गढ़ माना जाता था और इसे 'लेनिन ग्राम' कहा जाता था वहां भी वाम दल अपनी जमीन नहीं बचा सकी. भोला सिंह के बाद कट्टर हिन्दूवादी छवि के नेता गिरिराज सिंह ने लोकसभा चुनाव में जिस अंतर से जीत दर्ज की उसने वाम दल की मजबूती और राजनीतिक पकड़ की कहानी की मटिया पलीत कर दी.

कन्हैया ने भी बदल लिया पाला
कन्हैया कुमार यहां बेगूसराय से चुनावी मैदान में थे लेकिन 'लेनिन ग्राम' को ही वाम दल की राजनीतिक मुद्दे की बात को नहीं बता पाऐ. बिहार में 1985 को बाद 35 सालों की राजनीति में वाम दल का पूरा कुनबा ही बिखर गया. 1975 को जेपी आंदोलन को प्रतिक्रियावादी आंदोलन का नारा देने वाली वाम दल 1989 के मंडल कमीशन के वाद राजनीति में मुद्दों की राजनीति में प्रतिक्रिया देने लायक नहीं रही. वाम दलों के नेता सियासी फायदे की राजनीति में गांव की खेत वाली डगर से हट कर दिल्ली में दरबार वाली राजनीति को आत्मसात कर लिया. यही वजह रही कि वाम दल वाले वोट ने दूसरे दलों के साथ का हाथ पकड़ लिया, अब जिस राह पर कन्हैया भी चल दिए हैं.

वामदलों की बिखरती सियासत
2020 और 2021 देश की राजनीति में वाम दलों के राजनीतिक वजूद की मजबूती के नए पैमाने का साह कहा जा रहा था. मान जा रहा था कि बिहार में वामदलों ने 2020 के विधानसभा चुनाव में जिस तरह से वापसी की है उसका असर पश्चिम बंगाल के चुनाव में दिखेगा. ममता और भाजपा के बीच जिस तरह का सियासी संग्राम छिड़ा था उसमें वाम को जगह मिलेगी लेकिन मामला नहीं बन पाया. वाम दल की बिखरती सियासत और मुद्दा विहीन राजनीति से कन्हैया को यह लगने लगा कि वाम के साथ राजनीतिक जीवन की नाव पार नहीं लगेगी और कन्हैया ने सियासी सफर में 'हाथ' पकड़कर नई डगर पर कदम बढ़ा दिया.

Last Updated : Sep 30, 2021, 7:47 PM IST
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