ETV Bharat / state

AES पर सरकार की चूक, अभी तक नहीं हुई किसी पर कार्रवाई

2012 से लेकर 2014 तक बड़ी संख्या में AES से बच्चे बीमार पड़े थे और बड़ी संख्या में बच्चों की मौत हुई थी. लेकिन इस बार स्थिति और भी भयावह है.

बीमार बच्चा
author img

By

Published : Jun 19, 2019, 5:34 AM IST

Updated : Jun 19, 2019, 7:05 AM IST

पटना: बिहार में एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम AES से बच्चों की इस बार फिर से बड़ी संख्या में मौत हुई है. अभी भी बड़ी संख्या में बच्चे अस्पताल में इलाज के लिए आ रहे हैं. बिहार में लगभग डेढ़ दशक पहले से इस बीमारी को लेकर चर्चा शुरू हुई और 2012 से इस पर विशेष रूप से फोकस किया गया. 2012 में सबसे अधिक 120 मरीजों की मौत हुई थी. लेकिन इस बार का आंकड़ा इसे भी पार कर गया.

2012 में सबसे अधिक मरीजों की मौत होने के बाद कई तरह के जांच न केवल बिहार के डॉक्टरों ने किया, बल्कि बाहर से भी डॉक्टर आए थे. यह सिलसिला 2013 और 2014 तक चला कई उपाय किए गए. बिहार सरकार की ओर से आशा कार्यकर्ताओं को भी लगाया गया और उसका रिजल्ट भी आया पिछले 4 सालों में इस बीमारी से जो मौत हुई है, वह बहुत कम है. लेकिन इस बार लोकसभा चुनाव के बाद न ही स्वास्थ्य विभाग और न ही सरकार ने शीर्ष स्तर पर गंभीरता दिखाई. जिसके कारण स्थिति हाथ से निकल गई. इस बार मौसम ने भी कहर बरपा रखा है. ऐसे में अब जानकार कह रहे हैं कि मौसम के बदलने के बाद ही लोगों को राहत मिलेगी. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि सरकार की ओर से इतनी बड़ी चूक के बाद भी किसी के ऊपर जिम्मेवारी तय नहीं हुई न ही कोई कार्रवाई की गई.


2010 से हर साल हो रही है बच्चों की मौत
2010 से हर साल इस बीमारी से बच्चों की मौत होती रही है. हालांकि 1990 के बाद ही इस बीमारी पर लोगों की नजर गई थी और 1995 आते-आते इस पर चर्चा भी शुरू हो गई थी. लेकिन इसके बाद भी पिछले दो दशक में इस बीमारी पर पूरी तरह नियंत्रण नहीं पाया गया, हर साल बच्चे मरते रहे. मुजफ्फरपुर में 2010 में 59 मरीज बीमार पड़े थे, जिसमें से 24 की मौत हो गई थी. 2011 में 121 मरीज आए थे जिसमें से 45 की मौत हो गई थी. 2012 में 336 मरीज आए थे, जिसमें से 120 की मौत हो गई थी.


ये हैं मौत के आंकड़े
2013 में 124 मरीज आए थे, जिसमें से 40 की मौत हो गई थी. 2014 में 342 मरीज आए थे, जिसमें से 46 की मौत हो गई थी. 2015 में 75 मरीज आए थे, जिसमें से 11 की मौत हो गई थी. 2016 में 30 मरीज आए थे, जिसमें से चार की मौत हो गई थी. 2017 में सिर्फ 9 मरीज आए थे, जिसमें से 4 की मौत हुई थी और 2018 में 35 मरीज आये थे, जिसमें से 11 की मौत हुई थी. 2019 में अब तक 400 से अधिक मरीज आए हैं और सवा सौ से अधिक की मौत हो चुकी है.

तीन-चार साल तक दिखा जागरूकता असर
2012 से लेकर 2014 तक बड़ी संख्या में AES से बच्चे बीमार पड़े थे और बड़ी संख्या में बच्चों की मौत हुई थी. 2014 में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन ने राज्य सरकार के साथ मिलकर कुछ काम भी किया था. उसका असर भी जागरूकता के कारण आने वाले तीन-चार साल तक दिखा. इस बार सरकार की लापरवाही के कारण फिर से बच्चों की मौत का तांडव नए आंकड़ों को छू रहा है.

एक्शन लेने में हुआ विलंब
बिहार में लोकसभा चुनाव के बाद से मरने वाले बच्चों की संख्या बढ़ने लगी. उसके बाद भी सरकार की ओर से जो एक्शन लिया जाना चाहिए था उसमें काफी विलंब हुआ. एक तो बिहार के स्वास्थ्य मंत्री और स्वास्थ्य प्रधान सचिव कनाडा दौरे पर थे और मुख्यालय में कोई जिम्मेदार अधिकारी कुछ बताने की स्थिति में नहीं था. जब स्वास्थ्य मंत्री विदेश से लौटे भी तो बिहार आने में उन्हें कई दिन लग गए.

मीडिया में खबर चलने के बाद टूटी सरकार की नींद
मुजफ्फरपुर सिविल सर्जन की ओर से भी कोई एहतियातन कदम नहीं उठाया गया. यहां तक कि शुरू में मरने वाले बच्चों की संख्या भी दबाए जाने लगी. लेकिन भीषण गर्मी के कारण बच्चे लगातार बीमार होने लगे और मौत का सिलसिला चलता रहा. जब मीडिया में खबर चली तब जाकर सरकार की नींद टूटी लेकिन इसके बाद भी अब तक किसी लापरवाह अधिकारी पर कोई कार्रवाई नहीं की गई है.

पटना: बिहार में एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम AES से बच्चों की इस बार फिर से बड़ी संख्या में मौत हुई है. अभी भी बड़ी संख्या में बच्चे अस्पताल में इलाज के लिए आ रहे हैं. बिहार में लगभग डेढ़ दशक पहले से इस बीमारी को लेकर चर्चा शुरू हुई और 2012 से इस पर विशेष रूप से फोकस किया गया. 2012 में सबसे अधिक 120 मरीजों की मौत हुई थी. लेकिन इस बार का आंकड़ा इसे भी पार कर गया.

2012 में सबसे अधिक मरीजों की मौत होने के बाद कई तरह के जांच न केवल बिहार के डॉक्टरों ने किया, बल्कि बाहर से भी डॉक्टर आए थे. यह सिलसिला 2013 और 2014 तक चला कई उपाय किए गए. बिहार सरकार की ओर से आशा कार्यकर्ताओं को भी लगाया गया और उसका रिजल्ट भी आया पिछले 4 सालों में इस बीमारी से जो मौत हुई है, वह बहुत कम है. लेकिन इस बार लोकसभा चुनाव के बाद न ही स्वास्थ्य विभाग और न ही सरकार ने शीर्ष स्तर पर गंभीरता दिखाई. जिसके कारण स्थिति हाथ से निकल गई. इस बार मौसम ने भी कहर बरपा रखा है. ऐसे में अब जानकार कह रहे हैं कि मौसम के बदलने के बाद ही लोगों को राहत मिलेगी. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि सरकार की ओर से इतनी बड़ी चूक के बाद भी किसी के ऊपर जिम्मेवारी तय नहीं हुई न ही कोई कार्रवाई की गई.


2010 से हर साल हो रही है बच्चों की मौत
2010 से हर साल इस बीमारी से बच्चों की मौत होती रही है. हालांकि 1990 के बाद ही इस बीमारी पर लोगों की नजर गई थी और 1995 आते-आते इस पर चर्चा भी शुरू हो गई थी. लेकिन इसके बाद भी पिछले दो दशक में इस बीमारी पर पूरी तरह नियंत्रण नहीं पाया गया, हर साल बच्चे मरते रहे. मुजफ्फरपुर में 2010 में 59 मरीज बीमार पड़े थे, जिसमें से 24 की मौत हो गई थी. 2011 में 121 मरीज आए थे जिसमें से 45 की मौत हो गई थी. 2012 में 336 मरीज आए थे, जिसमें से 120 की मौत हो गई थी.


ये हैं मौत के आंकड़े
2013 में 124 मरीज आए थे, जिसमें से 40 की मौत हो गई थी. 2014 में 342 मरीज आए थे, जिसमें से 46 की मौत हो गई थी. 2015 में 75 मरीज आए थे, जिसमें से 11 की मौत हो गई थी. 2016 में 30 मरीज आए थे, जिसमें से चार की मौत हो गई थी. 2017 में सिर्फ 9 मरीज आए थे, जिसमें से 4 की मौत हुई थी और 2018 में 35 मरीज आये थे, जिसमें से 11 की मौत हुई थी. 2019 में अब तक 400 से अधिक मरीज आए हैं और सवा सौ से अधिक की मौत हो चुकी है.

तीन-चार साल तक दिखा जागरूकता असर
2012 से लेकर 2014 तक बड़ी संख्या में AES से बच्चे बीमार पड़े थे और बड़ी संख्या में बच्चों की मौत हुई थी. 2014 में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन ने राज्य सरकार के साथ मिलकर कुछ काम भी किया था. उसका असर भी जागरूकता के कारण आने वाले तीन-चार साल तक दिखा. इस बार सरकार की लापरवाही के कारण फिर से बच्चों की मौत का तांडव नए आंकड़ों को छू रहा है.

एक्शन लेने में हुआ विलंब
बिहार में लोकसभा चुनाव के बाद से मरने वाले बच्चों की संख्या बढ़ने लगी. उसके बाद भी सरकार की ओर से जो एक्शन लिया जाना चाहिए था उसमें काफी विलंब हुआ. एक तो बिहार के स्वास्थ्य मंत्री और स्वास्थ्य प्रधान सचिव कनाडा दौरे पर थे और मुख्यालय में कोई जिम्मेदार अधिकारी कुछ बताने की स्थिति में नहीं था. जब स्वास्थ्य मंत्री विदेश से लौटे भी तो बिहार आने में उन्हें कई दिन लग गए.

मीडिया में खबर चलने के बाद टूटी सरकार की नींद
मुजफ्फरपुर सिविल सर्जन की ओर से भी कोई एहतियातन कदम नहीं उठाया गया. यहां तक कि शुरू में मरने वाले बच्चों की संख्या भी दबाए जाने लगी. लेकिन भीषण गर्मी के कारण बच्चे लगातार बीमार होने लगे और मौत का सिलसिला चलता रहा. जब मीडिया में खबर चली तब जाकर सरकार की नींद टूटी लेकिन इसके बाद भी अब तक किसी लापरवाह अधिकारी पर कोई कार्रवाई नहीं की गई है.

Intro:पटना-- बिहार में एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (aes) से बच्चों की इस बार फिर से बड़ी संख्या में मौत हुई है और अभी भी बड़ी संख्या में बच्चे इलाज के लिए आ रहे हैं बिहार में लगभग डेढ़ दशक पहले से इस बीमारी को लेकर चर्चा शुरू हुई है और 2012 से इस पर विशेष रूप से फोकस किया गया जब 2012 में सबसे अधिक मरीज की मौत हुई थी कई तरह के जांच न केवल बिहार के डॉक्टरों ने किया बल्कि बाहर से भी डॉक्टर आए थे और यह सिलसिला 2013 और 2014 तक चला कई उपाय किए गए बिहार सरकार की ओर से आशा कार्यकर्ताओं को भी लगाया गया और उसका रिजल्ट भी आया 4 सालों में इस बीमारी से जो मौत हुई है वह बहुत कम है। लेकिन इस बार लोकसभा चुनाव के बाद स्वास्थ्य विभाग और ना ही सरकार के शीर्ष स्तर पर गंभीरता दिखाई गई। और उसके कारण स्थिति हाथ से निकल गया। इस बार मौसम ने भी कहर बरपा रखा है और ऐसे में अब जानकार कह रहे हैं मौसम के बदलने के बाद ही लोगों को राहत मिलेगी । लेकिन सबसे बड़ा सवाल कि सरकार की ओर से इतनी बड़ी चुक के बाद भी किसी के ऊपर जिम्मेवारी तय नहीं हुई ना ही कोई कार्रवाई की गई है।



Body: 2010 से देखें हर साल इस बीमारी से बच्चों की मौत होती रही है । हालांकि 1990 के बाद ही इस बीमारी पर लोगों की नजर गई थी और पंचानवे आते-आते इस पर चर्चा भी शुरू हो गई लेकिन इसके बाद भी पिछले दो दशक में इस बीमारी पर पूरी तरह नियंत्रण नहीं किया गया। हर साल बच्चे मरते रहे।
मुजफ्फरपुर में 2010 में 59 मरीज बीमार पड़े थे जिसमें 24 की मौत हो गई 2011 में 121 मरीज आए थे जिसमें से 45 की मौत हो गई 2012 में 336 मरीज आए थे इसमें 120 की मौत हो गई है
2013 में 124 मरीज आए थे और 40 की मौत हो गई
2014 में 342 मरीज आए थे 46 की मौत हो गई तो 2015 में 75 मरीज आए थे 11 की मौत हो गई 2016 में 30 मरीज आए थे चार की मौत हुई 2017 में 9 मरीज आए थे चार की मौत हुई 2018 में 35 आये थे 11 की मौत हुई
2019 में 400 से अधिक मरीज आए हैं और सवा सौ से अधिक की मौत हो चुकी है
2012 से लेकर 2014 तक बड़ी संख्या में aes से बच्चे बीमार पड़े थे और बड़ी संख्या में बच्चों की मौत हुई थी 2014 में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन ने राज्य सरकार के साथ मिलकर कुछ काम भी किया था और उसका असर भी जागरूकता के कारण आने वाले तीन चार साल तक दिखा इस बार सरकार की लापरवाही के कारण फिर से बच्चों की मौत का तांडव नई आंकड़ों को छू रहा है।
यह सही है कि लीची के मौसम के समय क्या बीमारी है अपना तांडव दिखाता है क्योंकि भीषण गर्मी इसी दौरान पड़ता है।


Conclusion:बिहार में लोकसभा चुनाव के बाद से मरने वाले बच्चों की संख्या बढ़ने लगी उसके बाद भी सरकार की ओर से जो एक्शन होना चाहिए था उसमें काफी विलंब हुआ एक तो बिहार के स्वास्थ्य मंत्री और स्वास्थ्य प्रधान सचिव कनाडा दौरे पर थे और मुख्यालय में कोई जिम्मेदार अधिकारी कुछ बताने की स्थिति में नहीं था जब स्वास्थ्य मंत्री विदेश से लौटे भी तो बिहार आने में उन्हें कई दिन लग गया । न हीं मुजफ्फरपुर सिविल सर्जन की ओर से कोई एहतियातन कदम उठाया गया यहां तक कि शुरू में मरने वाले बच्चों की संख्या भी दवाई जाने लगी। लेकिन भीषण गर्मी के कारण बच्चे लगातार बीमार होने लगे और मौत का सिलसिला जो शुरू हुआ और जब मीडिया में खबर चली तब जाकर सरकार की नींद टूटी लेकिन इसके बाद भी अब तक किसी लापरवाह अधिकारी पर कोई कार्रवाई नहीं की गई है
अविनाश, पटना।
Last Updated : Jun 19, 2019, 7:05 AM IST
ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.