पटना: आज से चैत्र नवरात्र की शुरुआत (Chait Navratri From Today) हो गई है. नवरात्रि के आरंभ में प्रथम दिन मां शैलपुत्री की पूजा उपासना (Maa Shailputri Worship) की जाती है. प्रथम दिन कलश या घट की स्थापना होती है. मां शैलपुत्री की शक्तियां अनन्त हैं. इस दिन उपासना में योगी अपने मन को मूलाधार चक्र में स्थित करते हैं. यहीं से उनकी योगसाधना का आरम्भ होता है. भगवती का वाहन वृषभ, दाहिने हाथ में त्रिशूल, और बायें हाथ में कमल सुशोभित है. शैलपुत्री के पूजन करने से 'मूलाधार चक्र' जाग्रत होता है, जिससे अनेक प्रकार की उपलब्धियां प्राप्त होती हैं.
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चैत्र नवरात्रि सनातन धर्म के लिए काफी महत्वपूर्ण पर्व है. माना जाता है कि इस दिन ही सृष्टि की रचना भगवान ब्रह्मा ने की थी. इस वजह से सनातन धर्म में इस दिन को नव संवत्सर के रूप में जाना जाता है. नव संवत्सर यानी प्रकृति के एक नए स्वरूप का आगमन और प्रकृति के इस नए स्वरूप के साथ माता के आगमन को चैत्र नवरात्रि के पर्व के रूप में मनाने का विधान है. ज्योतिषाचार्य श्रीपति त्रिपाठी कहते हैं कि इस बार 2 अप्रैल से चैत्र नवरात्रि प्रारंभ होने जा रही है और 11 अप्रैल को पारण के साथ 9 दिन का व्रत रहने वाले लोगों का यह अनुष्ठान पूर्ण होगा. 9 दिनों तक इस बार नवरात्रि का पूजन होगा, ना ही किसी तिथि की हानि है और ना ही कोई तिथि ज्यादा है. यानी पूरे 9 दिन तक होने की वजह से यह नवरात्रि बेहद शुभ माना जा रहा है. लेकिन शास्त्रों में नवरात्रि के दौरान माता का आगमन और उनका जाना शुभ और अशुभ के संकेत देता है और इस बार माता का आगमन घोड़े पर और गमन भैंसे पर हो रहा है.
नवरात्र के आरंभ में प्रतिपदा तिथि को कलश या घट की स्थापना की जाती है. कलश को भगवान गणेश का रूप माना जाता है. हिन्दू धर्म में हर शुभ काम से पहले गणेश जी की पूजा का विधान है. इसलिए नवरात्र की शुभ पूजा से पहले कलश के रूप में गणेश को स्थापित किया जाता है. आइए जानते हैं कि नवरात्र में कलश स्थापना कैसे किया जाता है और इसके शुभ मुहूर्त क्या है.
इस मुहूर्त में करें कलश स्थापना : ज्योतिषाचार्य के अनुसार, चैत्र नवरात्रि की शुरुआत 2 अप्रैल को होने जा रही है. पंचांग के मुताबिक चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की शुरुआत 1 अप्रैल को सुबह 11:53 से होगी और प्रतिपदा तिथि 2 अप्रैल को सुबह 11:58 तक मान्य होगी. ऐसे में कलश स्थापना का शुभ मुहूर्त 2 अप्रैल की दोपहर 11:58 तक ही मान्य होगा. कलश स्थापना का उत्तम मुहूर्त 2 अप्रैल की सुबह 6:20 से लेकर सुबह 8:26 तक का होगा. इस दौरान आप कलश स्थापना नहीं कर पाते हैं तो दोपहर 12:00 बजे से पहले कलश स्थापना अवश्य कर लें.
कलश स्थापना के लिए आवश्यक सामग्री :-
- शुद्ध साफ की हुई मिट्टी
- शुद्ध जल से भरा हुआ सोना, चांदी, तांबा, पीतल या मिट्टी का कलश
- मोली (लाल सूत्र), साबुत सुपारी, कलश में रखने के लिए सिक्के, अशोक या आम के 5 पत्ते
- कलश को ढंकने के लिए मिट्टी का ढक्कन, अक्षत (साबुत चावल)
- एक पानी वाला नारियल, लाल कपड़ा या चुनरी
कलश स्थापना की विधि: नवरात्र में देवी पूजा के लिए जो कलश स्थापित किया जाता है वह सोना, चांदी, तांबा, पीतल या मिट्टी का ही होना चाहिए. लोहे या स्टील के कलश का प्रयोग पूजा में इस्तेमाल नहीं करना चाहिए. भविष्य पुराण के अनुसार कलश स्थापना के लिए सबसे पहले पूजा स्थल को शुद्ध कर लेना चाहिए. जमीन पर मिट्टी और जौ को मिलाकर गोल आकृति का स्वरूप देना चाहिए. उसके मध्य में गड्ढा बनाकर उस पर कलश रखें. कलश पर रोली से स्वास्तिक या ॐ बनाना चाहिए.
कलश के उपरी भाग में कलावा बांधे. इसके बाद कलश में करीब अस्सी प्रतिशत जल भर दें. उसमें थोड़ा सा चावल, पुष्प, एक सुपाड़ी और एक सिक्का डाल दें. इसके बाद आम का पञ्च पल्लव रखकर चावल से भरा कसोरा रख दें, जिस पर स्वास्तिक बना और चुनरी में लिपटा नारियल रखें. अंत में दीप जलाकर कलश की पूजा करनी चाहिए. कलश पर फूल और नैवेद्य चढ़ाना चाहिए.
ध्यान मंत्र
वन्दे वांछितलाभाय चन्द्रर्धकृत शेखराम्।
वृशारूढ़ा शूलधरां शैलपुत्री यशस्वनीम्॥
पूणेन्दु निभां गौरी मूलाधार स्थितां प्रथम दुर्गा त्रिनेत्राम्॥
पटाम्बर परिधानां रत्नाकिरीटा नामालंकार भूषिता॥
प्रफुल्ल वंदना पल्लवाधरां कातंकपोलां तुग कुचाम्।
कमनीयां लावण्यां स्नेमुखी क्षीणमध्यां नितम्बनीम्॥
स्तोत्र पाठ
प्रथम दुर्गा त्वंहि भवसागर: तारणीम्।
धन ऐश्वर्य दायिनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यम्॥
त्रिलोजननी त्वंहि परमानंद प्रदीयमान्।
सौभाग्यरोग्य दायनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यहम्॥
चराचरेश्वरी त्वंहि महामोह: विनाशिन।
मुक्ति भुक्ति दायनीं शैलपुत्री प्रमनाम्यहम्॥
पौराणिक मान्यता
अपने पूर्व जन्म में माता शैलपुत्री, प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थीं, तब इनका नाम सती था. इनका विवाह भगवान शंकर से हुआ था. पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार वह अपने पिता के घर आयोजित यज्ञ में गईं, जहां भगवान शंकर के अपमान को सुनकर उन्हें अत्यधिक क्रोध आया और माता सती ने वहीं पर अपने शरीर को योगाग्नि में भस्म कर दिया. अगले जन्म में सती ने शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया और शैलपुत्री नाम से विख्यात हुईं. इस जन्म में भी शैलपुत्री, शिवजी की ही अर्द्धांगिनी बनीं.
हर वर्ष अलग-अलग वाहनों पर सवार होकर आती मां दुर्गा: ज्योतिषाचार्य श्रीपति त्रिपाठी कहते हैं की दुर्गा साल में दो बार आने वाले नवरात्र के दौरान मां दुर्गा के आगमन और उनके धरती से देवलोक को प्रस्थान करने के समय हर वर्ष अलग-अलग वाहनों पर सवार होकर आती और जाती है. इनका अलग-अलग महत्व हिंदू शास्त्रों में बताया गया है. ज्योतिषाचार्य कहते हैं कि दिन के हिसाब से मां दुर्गा अपने-अपने वाहनों का स्वरूप बदल कर नवरात्र के दौरान धरती पर आगमन करती है. अगर हम बात सोमवार और रविवार की करें तो सोमवार को प्रारंभ होने वाली नवरात्र के दौरान माता का आगमन धरती पर हाथी पर होता है. अगर नवरात्र शनिवार या फिर मंगलवार से शुरू हो रहा है तो माता घोड़े पर सवार होकर पृथ्वी पर आगमन करती है. वहीं, अगर नवरात्र गुरुवार या फिर शुक्रवार से शुरू हो रहा है तो मां दुर्गा डोली पर बैठकर आती है. इसके अलावा अगर नवरात्र की शुरुआत बुधवार से हो रही है तो माता का आगमन धरती पर नाव पर होता है.
हर वाहन के अलग-अलग है महत्व: ज्योतिषाचार्य श्रीपति त्रिपाठी बताते हैं कि माता के धरती पर आगमन और उनके देवलोक प्रस्थान के वाहनों का महत्व धरती पर अलग-अलग होता है. अगर मां हाथी पर सवार होकर धरती पर आती हैं तो उस वर्ष ज्यादा वर्षा होती है. अगर मां दुर्गा घोड़े पर सवार होकर धरती पर अवतरित होती हैं तो उस वर्ष युद्ध की स्थिति बनी रहती है. मां दुर्गा अगर नाव पर सवार होकर धरती पर अवतरित होती हैं तो धरती के वासियों के लिए सब कार्य मंगल होता है. अगर मां डोली में बैठकर नवरात्र के दौरान धरती पर अवतरित होती हैं तो उस वर्ष पूरे देश में महामारी फैलने की आशंका लगी रहती है. दूसरी ओर ज्योतिषाचार्य श्रीपति त्रिपाठी ने माता के धरती से वापस लौटने वाले वाहनों की विशेषता भी बताई है.
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