हैदराबादः देश के सत्ता की बागडोर आज भारतीय जनता पार्टी के हाथ में है. बीजेपी के नेता पूरे विश्व को भारत के आन-बान की गौरव गाथा सुना रहे हैं. लेकिन राजनीति का 42 साल का सफर पूरा करके आज बीजेपी जिस मुकाम पर पहुंची है, उसका सफर, समय और अवसर के गठजोड़ का रहा है. उत्तर भारत की राजनीति में भाजपा की दखल और उसकी हनक दोनों संयुक्त बिहार और अब बिहार-झारखंड के साथ के इन राज्यों से सटी दूसरे प्रदेशों की सीमा के साथ खड़ा हुआ है. 6 अप्रैल 1980 को जिस पार्टी की स्थापना हुई थी, वह भारतीय जनता पार्टी अपना 42वां स्थापना दिवस मना रही है. बिहार झारखंड की राजनीति ने देश के पटल पर बीजेपी को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. बीजेपी की सफलता की कहानी का बड़ा राज भी इन्हीं प्रदेशों से जुड़ा है.
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राजनीति का पहला पड़ावः 1951 से लेकर 1990 तक की राजनीति: 1951 से बिहार में विधानसभा चुनाव शुरू हुआ. 1951, 1957 और 1962 के चुनाव में कांग्रेस का ही संयुक्त बिहार की राजनीति पर दबदबा रहा. पहली बार हुए 1951 के चुनाव में कांग्रेस को 322 में से 239 सीट मिलीं थीं. 1957 के चुनाव में भी कांग्रेस ही सबसे बड़ी पार्टी बनी. उसे 312 में से 210 सीट मिलीं थीं. 1962 के चुनाव में कांग्रेस को 318 में से 185 सीट के साथ बहुमत हासिल हुआ था. उसके बाद स्वतंत्र पार्टी को सबसे ज्यादा 259 में से 50 सीट मिलीं थीं.
1967 विधानसभा चुनाव में हुई जनसंघ की एंट्री: 1967 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 318 में से 128, एसएसपी को 199 में से 68 और जन क्रांति दल को 60 में से 13 सीट मिलीं थीं. 1967 विधानसभा चुनाव में भारतीय जनसंघ ने 271 सीट पर चुनाव लड़कर कुल 26 सीट हासिल किया.
1969 विधानसभा चुनाव में जनसंघ का बढ़ा जनाधार: 1969 के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनसंघ को 303 सीट में से 34 सीट हासिल हुईं. बिहार में 318 सीट के लिए विधानसभा चुनाव हुआ था और जीत के लिए 160 सीट की जरूरत थी. कांग्रेस को 318 में से 118 सीट मिलीं. इस चुनाव में एसएसपी को 191 में से 52 और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया को 162 में से 25 सीट मिलीं. इस चुनाव में किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं मिला था.
1972 विधानसभा चुनाव और जेपी आंदोलन का वक्त:1972 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत हुई थी और उसे 259 में से 167 सीट मिलीं थीं. वहीं, भारतीय जन संघ को 270 में से 25 सीट हासिल हुईं थीं. राजनीतिक अस्थिरता का आलम यह था की 2 साल में कांग्रेस को 3 मुख्यमंत्री बदलने पड़े थे.
1977 विधानसभा चुनावः इन चुनावों में जनता पार्टी ने बिहार की 311 सीट पर चुनाव लड़ा और 214 सीट पर जीत हासिल की. कांग्रेस को इन चुनावों में 286 में से 57 सीट ही मिलीं थीं. इस वक्त जेपी आंदोलन का साफ असर बिहार की राजनीति पर दिखा था.
1980 का विधानसभा चुनाव और जनसंघ बन गयी भाजपा: 1980 के बिहार विधान सभा चुनाव के समय जनसंघ, भारतीय जनता पार्टी में तब्दील हो गई. 1980 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस (इंदिरा) को 311 में से 169 सीट मिली थी और कांग्रेस (यू) को 185 में से 14 सीट मिली थी. तब भाजपा ने 246 में से 21 सीट जीतीं. 1980 के इसी चुनाव के बाद भाजपा का सियासी रंग परवान चढ़ने लगा और आज बीजेपी राज्य में हनक के साथ सरकार में है.
1985 विधानसभा चुनाव और राजनीति: 1985 विधानसभा के चुनाव में भाजपा को 234 में से 16 सीट मिलीं थीं. इन चुनावों में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. उसे 323 में से 196 सीट मिलीं थीं जो बहुमत के आंकड़े से ज्यादा थी. इन्हीं चुनावों के बाद बिहार में एक ही कार्यकाल में चार मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी दुबे, भागवत झा आजाद, सत्येंद्र नारायण सिन्हा और जगन्नाथ मिश्र बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन हुए.
राजनीति का दूसरा पड़ाव- देश में मंडल और बीजेपी के राम रथ का कमंडल और गेरूआ रंग: देश की राजनीति में 1989 के दौर को सबसे बड़े बदलाव का दौर कहा जाता है, जहां से देश की राजनीति ने सियासत में बदलाव की दूसरी कहानी लिखनी शुरू कर दी. 1989 में मंडल कमीशन में देश में आरक्षण को ऐसी हवा दी कि छोटे राजनीतिक दल राज्यों के लिए स्वयंभू बन गए, राष्ट्रीय राजनीति में काग्रेस कमजोर पड़ने लगी और भाजपा ने सियासी फतह के लिए राम नाम का जाप हर मंच से करना शुरू कर दिया.
1990 में बिहार में बीजेपी ने लालू यादव की बनी सराकर को अपना समर्थन दिया. हालांकि 23 अक्टूबर 1990 का दिन बिहार से भाजपा की नई राजनीति को उस वक्त ऊंचाई पर पहुंचा दिया, जब बीजेपी के फायर ब्रांड नेता लाल कृष्ण आडवाणी को लालू यादव ने गिरफ्तार करवा लिया. आडवाणी 25 सितंबर को गुजरात के सोमनाथ मंदिर से अपनी रथ यात्रा लेकर निकले. ये यात्रा 30 अक्टूबर को अयोध्या पहुंचनी थी. उस दौरान वे समस्तीपुर के सर्किट हाउस में रूके हुए थे. लालू ने आडवाणी को तुरंत गिरफ्तार करने का आदेश जारी कर दिया. आडवाणी की गिरफ्तारी के बाद बीजेपी ने जनता दल की सरकार से समर्थन वापस ले लिया. बीजेपी के इस कदम से केंद्र की वीपी सिंह की सरकार तो गिर गई, लेकिन बिहार में लालू प्रसाद यादव अपना किला बचाने में कामयाब हो गए. क्योंकि इंदर सिंह नामधारी लालू के समर्थन में आ गए और बीजेपी में टूट हो गई.
लालू यादव की चाल को बीजेपी ने उस रूप में नहीं लिया लेकिन राम रथ की रस्सी इतनी कस के पकड़ी कि 1991 में बीजेपी ने लाल कृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा को राम नाम से जोड़कर यूपी की गद्दी कब्जा ली. कल्याण सिंह सीएम बने और यहीं से भाजपा की राजनीति ने राम राग के सहारे राजनीति की दूसरी पारी शुरू कर दी.
1990 से 2000 तक के सफर: 1988 में कई दलों के विलय से बने जनता दल ने पहली बार बिहार चुनाव लड़ा था. जनता पार्टी 276 सीट पर चुनाव लड़कर 122 सीट जीतने में कामयाब रही और सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. हालांकि, बहुमत का आंकड़ा 162 सीट का था. वहीं, कांग्रेस को 323 सीट में से 71 सीट और भाजपा को 237 सीट में से 39 सीट हासिल हुईं. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया ने 109 सीट पर चुनाव लड़कर 23 सीट जीतीं. जेएमएम 82 में से 19 सीट जीतने में कामयाब रही. तब बिहार में लालू यादव के नेतृत्व में जनता दल की सरकार बनी. इन चुनावों के बाद ही बिहार में एक ही कार्यकाल में कई मुख्यमंत्री बनने का दौर खत्म हुआ. 1994 में नीतीश कुमार ने जनता दल से अलग होकर समता पार्टी का गठन किया. लालू से नीतीश के अलग होने के बाद बिहार की राजनीति जेपी के चेले को लेकर हुई सियासत का केंद्र बन गई.
1995 का विधानसभा चुनाव से 2000: ये वो चुनाव था जब न तो बिहार में आरजेडी थी और न जेडी(यू). हालांकि, लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में जनता दल ने 264 सीट पर बिहार चुनाव लड़ा और वो 167 सीट जीतने में सफल हुई. भाजपा ने 315 सीट पर उम्मीदवार खड़े किए लेकिन सिर्फ 41 सीट ही जीत पाई. साल 1997 में चारा घोटाले में फंसने के कारण लालू प्रसाद यादव को बिहार के मुख्यमंत्री के पद से हटना पड़ा और उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया. उनके इस फैसले की काफी आलोचना हुई और पार्टी में फूट पड़ गई. बाद में 1997 में ही राष्ट्रीय जनता दल का गठन हुआ.
साल 2000 में एकीकृत बिहार में चुनाव: इन चुनावों से पहले बिहार में उथल-पुथल मची थी. लालू यादव ने राबड़ी देवी को अपनी जगह बिहार का मुख्यमंत्री बनाया था और 1997 में लगभग तीन हफ्तों का राष्ट्रपति शासन भी लगा था. इसके बाद मार्च 2000 में विधानसभा चुनाव हुए. तब बिहार में 324 सीट हुआ करतीं थीं और जीतने के लिए 162 सीट की जरूरत थी. इन चुनावों में राजद ने 293 सीट पर चुनाव लड़ा और 124 सीट पर कब्जा जमाया. वहीं, भाजपा को 168 में से 67 सीट हासिल हुईं. 2000 के चुनाव में राबड़ी देवी मुख्यमंत्री बनीं थीं. साल 2000 में ही लोजपा का गठन हुआ था. इन चुनावों में नीतीश कुमार ने बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाई थी.
2005 में दो बार हुए चुनाव: फरवरी 2005 में हुए इन चुनावों में राबड़ी देवी के नेतृत्व में राजद ने 215 सीट पर चुनाव लड़ा, जिसमें से उसे 75 सीट ही मिल पाईं. वहीं, जदयू ने 138 सीट पर चुनाव लड़कर 55 सीट हासिल कीं और भाजपा 103 में से 37 सीट लेकर आई. कभी बिहार में एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस इन चुनावों में 84 सीट पर लड़कर 10 सीट पर सिमट गई. इन चुनावों में 122 सीट का स्पष्ट बहुमत न मिल पाने के कारण कोई भी सरकार नहीं बन पाई और कुछ महीनों के राष्ट्रपति शासन के बाद अक्टूबर-नवंबर में फिर से विधानसभा चुनाव हुए. दूसरे विधानसभा चुनाव में जदयू 88 सीट के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. जदयू ने 139 सीट पर चुनाव लड़ा था.
2005 के बाद वाला बिहार: बिहार में 2005 में नीतीश के नेतृत्व में सरकार बन गई, बीजेपी के साथ बिहार में आज भी सरकार चल रही है. लेकिन 2005 से लेकर 2022 तक का जो सियासी सफर भाजपा ने बिहार और झारखंड में किया है, उसमें आज की राजनीति अब बीजेपी को नई दिशा दे रही है.
झारखंड रहा है बीजेपी का गढ़: संयुक्त बिहार के समय से ही आज के झारखंड में बीजेपी का कमल खिलता रहा है. इसके पीछे कई वजह रहीं हैं. झारखंड में संघ की सक्रियता का लाभ भी बीजेपी को आगे बढ़ने में मददगार हुआ. बाद में स्वतंत्र राज्य को लेकर जारी आंदोलन के बीच झारखंड को स्वतंत्र अस्तित्व में लाने का श्रेय भी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को गया. बिहार से अलग होकर 15 नवंबर 2000 को बने इस नये प्रदेश की पहली बागडोर भी बीजेपी के ही हाथ में रही. बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी. बाबूलाल मरांडी झारखंड के पहले मुख्यमंत्री बने. वो 15 नवंबर 2000 से 17 मार्च 2003 तक इस पद पर रहे. हालांकि बाद में बीजेपी के ही अर्जुन मुंडा को यह कुर्सी मिली.
झारखंड में बीजेपी का शासन: 15 नंवबर 2000 को झारखंड का गठन होने के बाद 2022 तक के 22 साल में लगभग 15 साल बीजेपी झारखंड में सत्ता में रही है. बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा और रघुवर दास बीजेपी के तीन मुख्यमंत्री रहे, जिन्होंने झारखंड की सत्ता में पार्टी का नेतृत्व किया. पहली बार बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी. बाबूलाल मरांडी झारखंड के पहले मुख्यमंत्री बने. वो 15 नवंबर 2000 से 17 मार्च 2003 तक इस पद पर रहे. उसके बाद अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री बने. अर्जुन मुंडा ने 18 मार्च 2003 से 01 मार्च 2005 तक राज्य की कमान संभाली. दूसरी बार बीजेपी के अर्जुन मुंडा ने 12 मार्च 2005 से 14 सितंबर 2006 तक शासन चलाया. 11 सितंबर 2010 को अर्जुन मुंडा तीसरी बार झारखंड के सीएम बने और 18 जनवरी 2013 तक राज्य का नेतृत्व किया. इसके बाद 28 दिसंबर 2014 को एक बार फिर बीजेपी के हाथ में सत्ता आई. इस बार रघुवर दास राज्य के मुखिया बने. रघुवर दास की सरकार झारखंड में पहली ऐसी सरकार साबित हुई, जिसने अपना कार्यकाल पूरा किया.
भाजपा के 2005 में बिहार की सत्ता में आ जाने के बाद भी भाजपा बिहार में नीतीश के भरोसे ही रही है. 2022 में नीतीश कुमार को लेकर जो हालात बने हैं, उससे इतर जाकर अगर देखा जाय तो जनसंघ से भाजपा बनने का सबसे बड़ा फायदा 2014 के लोकसभा चुनाव में मिला. जब बिहार की जनता ने नरेंद्र मोदी को पीएम बनाने के लिए पूरा जनाधार दे दिया. हालांकि नरेंद्र मोदी को लेकर नीतीश कुमार से विभेद गुजरात के विकास का मॉडल, नीतीश के विकास का मॅाडल, डीएनए की लड़ाई और नीतीश कुमार का बीजेपी के साथ जाना ,भाजपा के मजबूत राजनीतिक रणनीति के 42 साल के सफरनामे के जमीनी राजनीति को आधार देता है और आज भी बीजेपी बिहार में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर खड़ी है. पूर्वी भारत की राजनीति में भाजपा के स्थापित होने का बिहार भाजपा का ऐसा पनाहगार रहा है जहां से बीजेपी के आने वाले अच्छे दिन का नारा अच्छे दिन के साथ आ गए.
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