पटना: पश्चिम बंगाल में विधानसभा की सत्ता की हुकूमत की होने वाली जंग के लिए चुनाव की तारीखों के एलान के बाद राजनीति का धर्म बंगाल में चाहे जिस रंग में हो, लेकिन धर्म की राजनीति ने बंगाल की सियासी धूरी में अपनी मजबूत जगह बना ली है. टीएमसी सुप्रीमो ममता बनर्जी को 'जय श्री राम' के नारे से भले ही गुरेज है लेकिन 'जय सीया राम' से उन्हें कोई दिक्क्त नहीं है. देश में नरेन्द्र मोदी और अमित शाह वाली राजनीति से ममता को दिक्कत है. लेकिन आरएसएस और संघ की राजनीति से उन्हें कोई एतराज नहीं है.
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बंगाल चुनाव में जीत के लिए जिस राजनीतिक मर्यादा के धर्म की दुहाई दी जा रही है उसका पूरा मजमून ही धर्म की राजनीति पर खड़ी हो रही है. टीएमसी सुप्रीमो ममता बनर्जी राजनीति की धुरंधर महारथी हैं. पूरे देश में वाम के गढ़ कहे जाने वाले पश्चिम बंगाल में 34 साल के वाम दुर्ग को ममता बनर्जी ने 2011 में अपनी दबंग राजनीति की बदौलत गिरा दिया. लेकिन इस बार बंगाल के होने वाले दंगल में बहुत कुछ सियासी समझौते की भेंट चढ़ता दिख रहा है.
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बंगाल चुनाव में भाजपा ने जिस तैयारी से ममता बनर्जी को घेरना शुरू किया है, उससे ममता बनर्जी ने भी अपने राजनीतिक मिजाज का तेवर बदल दिया है. भाजपा की अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार के समय अगर दीदी नाराज हो जाती थीं तो भाजपा का पूरा कुनबा उनको मनाने में जुट जाता था. लेकिन बदली राजनीति में भाजपा के जो चेहरे हैं उनसे दीदी नाराज भी हैं और नसीहत भी दे रही है. बंगाल के सियासी दंगल में ममता बनर्जी अपनी हिंदू विरोधी छवि को सुधारने में जुट गयी हैं. बंगाल में भाजपा ने जिस तरह से अपनी जड़े मजबूत की है, उससे ममता बनर्जी ने अपने सियासी कार्ड का जो पासा फेंका है उसमें भाजपा की राजनीति करने वालों को थोड़े से सकते में डाल दिया है.
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संयुक्त बंगाल की राजनीति बिहार में अपनी हनक और छाप दोनों छोड़ती रही हैं. बिहार माता सीता की जन्म भूमि है और बंगाल भी विदेह का राज्य माना जाता है. शिव के धनुष की कहानी हो या फिर बाबाधाम में भगवान भोले की महिमा, बंगाल और बिहार को राजनीति और धार्मिक संस्कृति से जोड़े हुए है. ममता बनर्जी ने 'सिया राम' की बात कह 'जय श्री राम' के नारे का उत्तर दे दिया. लेकिन राजनीतिक गठजोड़ की राह को कठिन कर दिया है.
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बंगाल से वाम दल को उखाड़ फेकने वाली ममता बनर्जी को 2020 में बिहार में हुए विधान सभा चुनाव में वाम दल की वापसी ने हल्का ही सही लेकिन माथे पर बल डाल दिया है. वाम दलों का गठबंधन राजद के साथ रहा और अब बंगाल चुनाव में राजद ममता बनर्जी के साथ चुनाव लड़ना चाह रही है. सोमवार को राजद के तेजस्वी यादव की मुलाकत ममता बनर्जी से हुई. सवाल यह उठ रहा है कि ममता 'जय सिया राम' की जिस राजनीति को जगह दे रही है अगर तेजस्वी के साथ ममता की पार्टी जुड़ती है तो विभेद की राजनीति भी सियासत में जगह खड़ा कर लेगी.
देश में गठबंधन की राजनीति सियासी मजबूरी है यह माना जाने लगा है. 2014 में जब नीतीश कुमार ने नरेन्द्र मोदी से नाता तोड़ा था, तो नोटबंदी के विरोध में ममता बनर्जी पटना के गदर्नीबाग में राजद के पक्ष में खड़ी थी. 2015 में राजद गठबंधन के साथ जब नीतीश कुमार ने सरकार बनायी थी तब भी ममता बनर्जी शपथ ग्रहण समारोह में पटना के गांधी मैदान में थी और अगली पंक्ति में बैठी थी.
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दरअसल 21 नवम्बर 2015 को गांधी मैदान में शपथ के लिए जो मंच सजा था उसपर मौजूद सभी नेता 'जय श्रीराम' के नारे के विरोधी ही कहे जाते थे. बात राहुल गांधी की हो या फिर फारुख अब्दुल्ला की, अरविंद केजरीवाल की हो या फिर हेमंत सोरेन की, अखिलेश यादव की हो या फिर मंच पर मौजूद वाम दल के नेता की. ममता बनर्जी भी उन्हीं में से एक थी.
अब बिहार और बंगाल में चुनावी समझौते की राजनीति की गोलबंदी ने देश की सियासत में 'जय श्री राम' और 'जय सिया राम' को लेकर एक बहस खड़ी कर दी है. नारी शक्ति की पीठ कोलकाता के कालीघाट से बंगाल के विकास की मन्नत मानी जाती है. जगत जननी सीता के पिता की विदेह का क्षेत्र बंगाल तक रहा है. ऐसे में 'जय सिया राम' की राजनीति से बंगाल के किसी को भी शिकायत नहीं होगी. 'जय श्री राम' भी अपनी जगह बंगाल में बना रही है. लेकिन इसके बीच बिहार से गठबंधन को जोड़ने की राजनीति अलग दिशा लिए बैठी है.
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तेजस्वी यादव की पार्टी राजद को भी 'जय श्री राम' के नारे से बहुत दिक्क्त है. मंदिर निर्माण को लेकर बिहार में रथ लेकर निकले भाजपा के दिग्गज लाल कृष्ण आडवाणी को लालू यादव ने समस्तीपुर में गिरफ्तार करवा लिया था. राम रथ को रोक दिया था और 'जय श्रीराम' के नारे को लेकर कहा था कि भाजपा के लोग सांप्रदायिक राजनीति कर रहे हैं. अब सवाल यह उठ रहा है कि 'जय श्री राम' भाजपा के पास है और 'जय सिया राम' से बंगाल में ममता को राजनीति छांव मिलने की उम्मीद वाली राजनीति चल निकली है. ऐसे में राजद के साथ तृणमूल बंगाल के चुनावी दंगल में उतरे यह भी समझ से परे है.
नीतीश कुमार बीजेपी साथ हैं. भले की 2015 में संघ की राजनीति को देश के लिए घातक बता दिए थे. ममता भाजपा के विरोध में हैं, लेकिन संघ की राजनीति को सही बता रही हैं. ऐसे में तेजस्वी की राजनीति जो उनके पिता से उनको विरासत में मिली है, उसमें क्या करना सही है शायद यह उन्हें पता ही नहीं चल रहा. लेकिन एक बात चल रही है कि चुनाव लड़ना है.
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पूरे देश में जमीन और जनाधार का आधार खोज रही कांग्रेस आज भी यह समझ ही नहीं पा रही है कि बंगाल में कौन सी राजनीति करे. तेजस्वी वाली राजनीति में साथ रहें या फिर अपने बूते आगे बढ़े. बंगाल ही नहीं पूरे देश में भाजपा ने अपनी तैयारी से कांग्रेस की इस सोच वाली राजनीति को भी पिछलग्गू बना दिया है. बंगाल में कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी परेशानी यही है कि वह भाजपा के 'जय श्रीराम वाली' राजनीति का प्रचंड विरोध करी है लेकिन ममता के 'जय सिया राम' वाली राजनीति का समर्थन करने की हालत में भी नहीं है.
बंगाल में कांग्रेस अगर 'सिया राम' वाली राजनीति के साथ हाथ मिलाती है तो उत्तर प्रदेश में एमवाई समीकरण के हर पत्ते को बिखेर देगी. शायद यही वजह है कि बंगाल की राजनीति में बहुत मुखर सियासी बयानबाजी से कांग्रेस के लोग बच रहे हैं. वाम दल की सियासत में 'जय श्री राम' या फिर 'सिया राम' कभी नहीं रहा. इसलिए वह इस राजनीति का हिस्सा है नहीं और इस वोट बैंक का हिस्सेदार भी.
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ममता के 'सिया राम' वाली राजनीति पर लौटने की असली वजह भाजपा की राजनीति है. क्योंकि बंगाल की राजनीति में हमेशा बांग्लादेशी शरणार्थियों का मुद्दा रहा है. इस वोट बैंक का सबसे बड़ा हिस्सा माना जानेवाला मतुआ समाज ममता का पक्षधर था. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद यह भाजपा के साथ हो चुका है. सीएए और एनआरसी पर बंगाल में जमकर राजनीति होती रही है. पर ममता बनर्जी के इस वोटबैंक में सेंधमारी के लिए एआईएमआईएम और फुरफुरा शरीफ के पीरजादा ने इंट्री मार दी है.
मतलब शरणर्थियों का बंगाल की राजनीति में वैसा असर रहा नहीं, तो बदलाव को असरदाार करने के लिए 'सिया राम' के सहारे ममता ने नई दिशा को राजनीति का मुहाना बना लिया. ऐसे में पश्चिम बंगाल चुनाव धर्म की राजनीति के जिस चंक्रव्यूह में फंस गया है उसमें बीजेपी के लिए खोने से ज्यादा पाने की चर्चा हो रही है. वजह भी साफ है कि ममता बनर्जी ने 'जय सिया राम' को अपना लिया. 'जय श्री राम' भाजपा का अपना सैद्धांतिक मंत्र है. यह भी शास्वत सत्य है कि राम के बगैर सीता और सीता के बैगर राम दोनों पूर्ण नहीं हैं. ऐसे में 'सीता-राम' की जिस राजनीति ने बंगाल में अपनी जमीन बनायी है उसमें बाकी दलों की राजनीति को मुद्दा से अलग कर दिया है.