नालंदा: बिहार के नालंदा ज़िला मुख्यालय बिहार शरीफ स्थित बाबा मणिराम अखाड़ा पर है, जहां मनोकामना पूरी होने पर लंगोट चढ़ाया जाता है. हर साल यहां पर आषाढ़ पूर्णिमा से सात दिवसीय मेला लगता है. आज सोमवार को मेला शुरू होने के मौके पर ज़िला प्रशासन की ओर से बाबा मणिराम अखाड़ा पर लंगोट अर्पण कर ज़िले की सुख शांति एवं समृद्धि की दुआ मांगी गयी. कई राज्यों से लाखों श्रद्धालु बाबा की समाधि पर लंगोट चढ़ाने पहुंचेंगे.
इसे भी पढ़ेंः Guru Purnima 2023 : गुरु पूर्णिमा व व्यास पूर्णिमा की ही नहीं भगवान बुद्ध का भी है कनेक्शन, सबका एक ही संदेश
"बाबा मणिराम का यहां आगमन 1238 ई. में हुआ था. वे अयोध्या से चलकर यहां आएं थे. बाबा ने शहर के दक्षिणी छोर पर पंचाने नदी के पिस्ता घाट को अपना पूजा स्थल बनाया था. वर्तमान में यही स्थल ‘अखाड़ा पर’ के नाम से प्रसिद्ध है. बाबा जंगल में रहकर मां भगवती की पूजा-अर्चना करने लगे. लोगों को कुश्ती भी सिखाते थे."- विश्वनाथ मिश्रा, बाबा मणिराम अखाड़ा न्यास समिति के पुजारी
क्या है मान्यताः परंपरा के मुताबिक पुलिस और प्रशासन के अधिकारी सबसे पहले बाबा की समाधि पर लंगोट चढ़ाते हैं, महिलाएं रुमाल अर्पण करती हैं. इसी के साथ मेले की शुरुआत हो गई. रामनवमीं में हुई हिंसक झड़प के कारण इस बार शहर में गाजे-बाजे के साथ लंगोट जुलूस नहीं निकाला गया है. इसके साथ ही आज से 7 दिवसीय मेला की भी शुरुआत हो गई.
1952 से लंगोट मेला लग रहाः नालंदा में उत्पाद निरीक्षक कपिलदेव प्रसाद के प्रयास से 6 जुलाई 1952 में बाबा के समाधि स्थल पर लंगोट मेले की शुरुआत हुई थी. इसके पहले रामनवमी के मौके पर श्रद्धालु बाबा की समाधि पर पूजा-अर्चना करने आते थे. तब से हर वर्ष आषाढ़ पूर्णिमा के दिन से सात दिवसीय मेला यहां लगता है. कहा जाता है कि कपिलदेव बाबू को पांच पुत्रियां थीं. बाबा की कृपा से उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई थी. बाबा की कृपा इतनी कि उनके दरबार से कोई खाली हाथ नहीं लौटता है. सच्चे मन से मांगी गई मुराद जरूर पूरी होती है.
सूफी संतों की नगरीः बाबा मणिराम और मखदूम साहब में खूब दोस्ती थी. इस लिए बिहार शरीफ को सूफी संतों की नगरी भी कही जाती है. बाबा मणिराम और महान सूफी संत मखदूम साहब में काफी गहरी दोस्ती यहां के लोगों के लिए आपसी सौहार्द का प्रतीक भी कहा जाता है. एक बार वे दीवार पर बैठकर दातून कर रहे थे तभी मखदुम साहब ने मिलने की इच्छा जाहिर की तो उन्होंने दीवार को ही चलने का आदेश दिया तो दीवार ही चलने लगी थी. दोनों संतो की दोस्ती और गंगा जमुनी तहजीब की लोग आज भी मिसल देते हैं.