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गोपालगंजः बांसुरी में सुरों की गंगा भरने वालों का जीवन बदहाल, सरकार से लगी है उम्मीद - गोपालगंज में परेशान बांसुरी कारीगर

बांसुरी बनाने वाले इन परिवारों में कोई भी पढ़ा लिखा नहीं है. क्योंकि स्कूल जाने की उम्र में इनके बच्चे बांसुरी बनाने के गुण सीखने लगते हैं. जिस कारण इन लोगों के साथ इनके बच्चे भी नहीं पढ़ सके.

बांसुरी बनाती महिला
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Published : Oct 19, 2019, 7:26 AM IST

गोपालगंजः जिला मुख्यालय से तकरीबन 25 किलोमीटर दूर हथुआ प्रखंड के हथुआ गांव में 100 वर्षों से चल रहा बांसुरी उद्योग अब अंतिम सांसें गिन रहा है. बांसुरी बनाने वाले कारीगर अपने इस पुश्तैनी धंधे से ही अपनी रोजी-रोटी का जुगाड़ करते हैं. सरकारी उदासीनता के कारण इन्हें आज तक किसी भी योजना का लाभ नहीं मिल सका है.

gopalganj
बांसुरी का टाल

उद्योग में लगे रहता है पूरा परिवार
यहां तकरीबन सौ परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी बांसुरी बनाने के काम में सालों से जुटा है. इस रोजगार में बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक लगे रहते हैं. कमाई का जरिया इन लोगों के लिए एकमात्र बांसुरी बनाना ही है. पेट भरने के लिए चिलचिलाती गर्मी के दिनों में आग जलाकर बांसुरी को छेड़ना और बनाना इनकी नियति बन गई है. बांसुरी बनाने के लिए यह लोग असम से बेत खरीदते हैं. स्थानीय स्तर पर बांसुरी के अंदर लगने वाले रहर के डंठल की खरीदारी कर बांसुरी बनाते हैं. इन लोगों को सरकार की तरफ से पीएम आवास योजना और वृद्धा पेंशन योजना का लाभ भी नहीं मिलता. इन्हें यह भी पता नहीं है कि सरकार की कौन-कौन सी योजनाएं चल रही हैं.

gopalganj
आग पर बांसुरी बनाती महिला

बच्चे नहीं जाते हैं स्कूल
जिले के हथुआ राज की जमीन पर बसे इन कारीगरों की बनाई हुई बांसुरी की मधुर आवाज देश के कई राज्यों में गूंजती है. लेकिन विकास की बात करने वाले सूबे की सरकार का ध्यान इस ओर नहीं जाता. जिस कारण इनके बच्चे आज भी स्कूल नहीं जा पाते. बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ सरकार का स्लोगन यहां दम तोड़ता नजर आता है. लोगों का कहना है कि राशन कार्ड के लिए कई बार प्रखंड से लेकर अनुमंडल तक चक्कर लगा चुके हैं. लेकिन उन्हें कुछ नहीं मिला. सबसे खास बात यह है कि बांसुरी बनाने वाले इन परिवार में कोई भी पढ़ा लिखा नहीं है. क्योंकि स्कूल जाने की उम्र में इनके बच्चे बांसुरी बनाने के गुण सीखने लगते हैं. जिस कारण इन लोगों के साथ इनके बच्चे भी नहीं पढ़ सके.

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बांसुरी बनाते लोग

साहूकारों के कर्जदार हैं कारीगर
यहां की बांसुरी की मांग देश के धर्मस्थल मथुरा वाराणसी महाराष्ट्र से समेत कई जगहों पर है. लेकिन बांसुरी बनाने वाले हाथ अब खाने को मोहताज हो गए हैं. पूंजी के अभाव में कारीगर साहूकारों के कर्जदार हो गए. लेकिन अभी भी इस उम्मीद में हैं कि शायद उनकी तरफ भी सरकार का ध्यान जाए.

स्पेशल रिपोर्ट

किसी तरह पाल रहे अपना पेट
स्थानीय लोंगो ने बताया कि यहां कई अधिकारी आए. लेकिन सबने सिर्फ उन्हें आश्वासन ही दिया. सरकार की तरफ से कोई सुविधा मिलती तो रोजगार के लिए भटकना नहीं पड़ता. अब तो बांसुरी की मांग नहीं रह गई है. काम के अनुसार दाम नहीं मिलता. किसी तरह अपना पेट पाल रहे हैं.

गोपालगंजः जिला मुख्यालय से तकरीबन 25 किलोमीटर दूर हथुआ प्रखंड के हथुआ गांव में 100 वर्षों से चल रहा बांसुरी उद्योग अब अंतिम सांसें गिन रहा है. बांसुरी बनाने वाले कारीगर अपने इस पुश्तैनी धंधे से ही अपनी रोजी-रोटी का जुगाड़ करते हैं. सरकारी उदासीनता के कारण इन्हें आज तक किसी भी योजना का लाभ नहीं मिल सका है.

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बांसुरी का टाल

उद्योग में लगे रहता है पूरा परिवार
यहां तकरीबन सौ परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी बांसुरी बनाने के काम में सालों से जुटा है. इस रोजगार में बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक लगे रहते हैं. कमाई का जरिया इन लोगों के लिए एकमात्र बांसुरी बनाना ही है. पेट भरने के लिए चिलचिलाती गर्मी के दिनों में आग जलाकर बांसुरी को छेड़ना और बनाना इनकी नियति बन गई है. बांसुरी बनाने के लिए यह लोग असम से बेत खरीदते हैं. स्थानीय स्तर पर बांसुरी के अंदर लगने वाले रहर के डंठल की खरीदारी कर बांसुरी बनाते हैं. इन लोगों को सरकार की तरफ से पीएम आवास योजना और वृद्धा पेंशन योजना का लाभ भी नहीं मिलता. इन्हें यह भी पता नहीं है कि सरकार की कौन-कौन सी योजनाएं चल रही हैं.

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आग पर बांसुरी बनाती महिला

बच्चे नहीं जाते हैं स्कूल
जिले के हथुआ राज की जमीन पर बसे इन कारीगरों की बनाई हुई बांसुरी की मधुर आवाज देश के कई राज्यों में गूंजती है. लेकिन विकास की बात करने वाले सूबे की सरकार का ध्यान इस ओर नहीं जाता. जिस कारण इनके बच्चे आज भी स्कूल नहीं जा पाते. बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ सरकार का स्लोगन यहां दम तोड़ता नजर आता है. लोगों का कहना है कि राशन कार्ड के लिए कई बार प्रखंड से लेकर अनुमंडल तक चक्कर लगा चुके हैं. लेकिन उन्हें कुछ नहीं मिला. सबसे खास बात यह है कि बांसुरी बनाने वाले इन परिवार में कोई भी पढ़ा लिखा नहीं है. क्योंकि स्कूल जाने की उम्र में इनके बच्चे बांसुरी बनाने के गुण सीखने लगते हैं. जिस कारण इन लोगों के साथ इनके बच्चे भी नहीं पढ़ सके.

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बांसुरी बनाते लोग

साहूकारों के कर्जदार हैं कारीगर
यहां की बांसुरी की मांग देश के धर्मस्थल मथुरा वाराणसी महाराष्ट्र से समेत कई जगहों पर है. लेकिन बांसुरी बनाने वाले हाथ अब खाने को मोहताज हो गए हैं. पूंजी के अभाव में कारीगर साहूकारों के कर्जदार हो गए. लेकिन अभी भी इस उम्मीद में हैं कि शायद उनकी तरफ भी सरकार का ध्यान जाए.

स्पेशल रिपोर्ट

किसी तरह पाल रहे अपना पेट
स्थानीय लोंगो ने बताया कि यहां कई अधिकारी आए. लेकिन सबने सिर्फ उन्हें आश्वासन ही दिया. सरकार की तरफ से कोई सुविधा मिलती तो रोजगार के लिए भटकना नहीं पड़ता. अब तो बांसुरी की मांग नहीं रह गई है. काम के अनुसार दाम नहीं मिलता. किसी तरह अपना पेट पाल रहे हैं.

Intro:जिला मुख्यालय गोपालगंज से करीब 25 किलोमीटर दूर हथुआ प्रखंड के हथुआ गांव में करीब 100 वर्षों से बांसुरी बनाने का उद्योग अंतिम सांस गिनने पर मजबूर है। यहां के कारीगर सिर्फ अपने पुश्तैनी धंधा को बरकरार रखकर रोजी-रोटी के जुगाड़ में लगे हैं। लेकिन सरकार के उदासीनता के कारण इन्हें आज तक किसी भी योजना का लाभ नहीं मिल सका है। जिसके कारण यह जिल्लत भरी जिंदगी जी रहे हैं।





Body:हथुआ राज के जमीन पर बसे इन कारीगरों द्वारा बनाया गया बांसुरी बिहार ही नहीं देश के कई राज्यो में भी इसकी मधुर आवाज सुनी जाती है। लेकिन विकास की बात करने वाले सूबे की सरकार की ध्यान इस ओर नहीं पहुंचती। जिस कारण इनके बच्चे आज भी स्कूल नहीं जाते हैं। बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ सरकार का स्लोगन यहां दम तोड़ती है। ये लोग अपने पेट भरने के लिए छोटे-छोटे बच्चे बच्चियों के साथ बांसुरी बनाने के काम में लग जाते हैं। बिहार के गोपालगंज जिला का यह हथुआ गांव जहां सौ परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी बांसुरी बनाने के रोजगार में जुटा है। इस रोजगार में बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक लगे रहते हैं। कमाई का जरिया इन लोगों के लिए एकमात्र बांसुरी बनाना ही है। इनके बच्चे स्कूल इसलिए नहीं जाते हैं क्योंकि उनके घर शाम में चूल्हा कैसे जलेगा। पेट भरने के लिए चिलचिलाती गर्मी के दिनों में आग जलाकर बांसुरी को छेड़ना और बनाना इनकी नियति बन गई है। बांसुरी बनाने के लिए यह लोग आसाम से बेत खरीद कर लाते हैं और स्थानीय स्तर पर बांसुरी के अंदर लगाने वाले रहर के डंठल की खरीदारी कर बनाते हैं। इन लोगों को सरकार की तरफ से पीएम आवास योजना का लाभ आज तक नही मिला। इस काम में लगे वृद्ध लोगों को पेंशन भी नही मिलता है । इन लोगों को यह भी पता नहीं है कि सरकार की कौन-कौन सी योजनाएं चल रही है। राशन कार्ड के लिए कई बार प्रखंड से लेकर अनुमंडल तक चक्कर लगा चुके हैं लेकिन उन्हें कुछ नहीं मिला। सबसे खास बात यह है कि बांसुरी बनाने वाले इन परिवार में साक्षर कोई नहीं है क्योंकि स्कूल जाने की उम्र में इनके बच्चे बांसुरी बनाने के गुण सीखने लगते हैं। जिस कारण इन लोगों के साथ इनके बच्चे भी निरक्षर रह जाते हैं। यहां के कारीगर अभी बांसुरी उद्योग को जिंदा रखने की जतन इस उम्मीद में कर थे है कि शायद उनके तरफ भी कोई ध्यान देगा। जिससे उनके हुनर के साथ ही हथुआ की परंपरागत बांसुरी की मधुर तान विखेरती। यहां की बांसुरी की मांग देश के धर्मस्थल मथुरा वाराणसी महाराष्ट्र से समेत कई जगहों पर है। लेकिन बांसुरी बनाने वाले हाथ अब खाने को मोहताज हो गए हैं। पूंजी के अभाव में कारीगर साहूकारों के कर्जदार हो गए। लेकिन इस उम्मीद में है कि शायद उनकी तरफ थी सरकार द्वारा ध्यान दिया जाएगा और उनके हुनर के साथ ही हो हथुआ की परंपरागत बांसुरी की मधुर तान भी विखेरती रहेगी स्थानीय लोगो ने बताया कि यहां कई अधिकारी आए लेकिन सब उन्हें आश्वासन ही दिए। सिर्फ आश्वासन के सिवा कुछ नहीं दिया। सरकार की तरफ से कोई सुविधा मिलता तो इसे बृहद रूप से की जाती रोजगार के लिए भटकना नहीं पड़ता ।अब तो बांसुरी की मांग नहीं रह गई है। काम के अनुसार दाम नहीं मिलते किसी तरह अपना पेट पाला जा रहा है


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