गोपालगंजः जिला मुख्यालय से तकरीबन 25 किलोमीटर दूर हथुआ प्रखंड के हथुआ गांव में 100 वर्षों से चल रहा बांसुरी उद्योग अब अंतिम सांसें गिन रहा है. बांसुरी बनाने वाले कारीगर अपने इस पुश्तैनी धंधे से ही अपनी रोजी-रोटी का जुगाड़ करते हैं. सरकारी उदासीनता के कारण इन्हें आज तक किसी भी योजना का लाभ नहीं मिल सका है.
उद्योग में लगे रहता है पूरा परिवार
यहां तकरीबन सौ परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी बांसुरी बनाने के काम में सालों से जुटा है. इस रोजगार में बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक लगे रहते हैं. कमाई का जरिया इन लोगों के लिए एकमात्र बांसुरी बनाना ही है. पेट भरने के लिए चिलचिलाती गर्मी के दिनों में आग जलाकर बांसुरी को छेड़ना और बनाना इनकी नियति बन गई है. बांसुरी बनाने के लिए यह लोग असम से बेत खरीदते हैं. स्थानीय स्तर पर बांसुरी के अंदर लगने वाले रहर के डंठल की खरीदारी कर बांसुरी बनाते हैं. इन लोगों को सरकार की तरफ से पीएम आवास योजना और वृद्धा पेंशन योजना का लाभ भी नहीं मिलता. इन्हें यह भी पता नहीं है कि सरकार की कौन-कौन सी योजनाएं चल रही हैं.
बच्चे नहीं जाते हैं स्कूल
जिले के हथुआ राज की जमीन पर बसे इन कारीगरों की बनाई हुई बांसुरी की मधुर आवाज देश के कई राज्यों में गूंजती है. लेकिन विकास की बात करने वाले सूबे की सरकार का ध्यान इस ओर नहीं जाता. जिस कारण इनके बच्चे आज भी स्कूल नहीं जा पाते. बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ सरकार का स्लोगन यहां दम तोड़ता नजर आता है. लोगों का कहना है कि राशन कार्ड के लिए कई बार प्रखंड से लेकर अनुमंडल तक चक्कर लगा चुके हैं. लेकिन उन्हें कुछ नहीं मिला. सबसे खास बात यह है कि बांसुरी बनाने वाले इन परिवार में कोई भी पढ़ा लिखा नहीं है. क्योंकि स्कूल जाने की उम्र में इनके बच्चे बांसुरी बनाने के गुण सीखने लगते हैं. जिस कारण इन लोगों के साथ इनके बच्चे भी नहीं पढ़ सके.
साहूकारों के कर्जदार हैं कारीगर
यहां की बांसुरी की मांग देश के धर्मस्थल मथुरा वाराणसी महाराष्ट्र से समेत कई जगहों पर है. लेकिन बांसुरी बनाने वाले हाथ अब खाने को मोहताज हो गए हैं. पूंजी के अभाव में कारीगर साहूकारों के कर्जदार हो गए. लेकिन अभी भी इस उम्मीद में हैं कि शायद उनकी तरफ भी सरकार का ध्यान जाए.
किसी तरह पाल रहे अपना पेट
स्थानीय लोंगो ने बताया कि यहां कई अधिकारी आए. लेकिन सबने सिर्फ उन्हें आश्वासन ही दिया. सरकार की तरफ से कोई सुविधा मिलती तो रोजगार के लिए भटकना नहीं पड़ता. अब तो बांसुरी की मांग नहीं रह गई है. काम के अनुसार दाम नहीं मिलता. किसी तरह अपना पेट पाल रहे हैं.