गया: बिहार के गया में एक अनोखा गांव है, जहां प्याली में दोनों पैरों को डालकर ठेहुने के भार से बैठाकर इलाज किया जाता (Unique Treatment Is Done In Gaya) है. यहां कुत्ते, बिच्छू, सांप, छिपकली, बंदर, सियार आदि के काटने का इलाज इस विधि से होता है. साथ ही पुरखों के बताए नुस्खे और झाड़-फूंक मंत्रोच्चार से किया जाता है. बड़ी बात यह है कि इस गांव के ज्यादातर लोग इस विधि से इलाज करने और मरीज को ठीक करने का दावा करते हैं. गांव में कई जगहों पर इसका पोस्टर भी लगाया गया है. बड़ी बात यह है कि आधे घंटे की प्रक्रिया के दौरान प्याली टूटती भी नहीं.
ये भी पढे़ं- VIDEO : जलाभिषेक के बाद भगवान को आया बुखार, कब तक चलेगी तीमारदारी, ऐसा है भक्त और भगवान का रिश्ता
100 सालों से पुरखों के बताएं नुस्खों से हो रहा इलाज : ऐसा करने वालों का दावा है कि इस तरीके से पिछले 100 वर्षों से इस तरह की बीमारी से पीड़ित लोगों का इलाज कर रहे हैं. 100 साल का यह नुस्खा अब भी कारगर है. कुत्ता, सांप, बिच्छू, छिपकली आदि के काटने का हम लोग आज भी इलाज करते हैं. बैजनाथ विश्वकर्मा बताते हैं कि वे लगातार 43 वर्षों से ऐसा कर रहे हैं. पहले उसके दादा उसके बाद पिता और अब वे खुद यह कर रहे हैं. वहीं, सागर शर्मा समेत अन्य लोग भी इस तरह का दावा करते हैं. इस गांव की इसी से पहचान होती है. बिहार-झारखंड से लोग यहां इलाज कराने पहुंचते हैं.
बिहार झारखंड से लोग गया इलाज कराने पहुंचते हैं : गया जिला के बांकेबाजार प्रखंड अंतर्गत जमुआर कला गांव की पहचान इस तरह से इलाज करने के कारण होती है. इस तरह से इलाज करने में गांव के कई परिवार जुड़े हुए हैं. कई जगहों पर तो इसका बोर्ड भी लगा हुआ है, जिसमें उक्त बीमारियों का इलाज करने का दावा किया जाता है. यहां लोग दूर-दूर से पहुंचते हैं. बिहार के गया के अलावे औरंगाबाद, जहानाबाद, नवादा, पटना, रोहतास, कैमूर समेत कई जिलों से इस तरह की बीमारियों के पीड़ित के पहुंचने की बात लोग बताते हैं. साथ ही यह भी कहते हैं कि यहां झारखंड के चतरा समेत कई जिलों से भी लोग आते हैं. वहीं, इसमें पढ़े-लिखे लोग भी होते हैं जो कि इंजीनियर, वकील, शिक्षक या बड़े परिवार के लोग होते हैं.
ऐसे करते हैं इलाज : जमुआर कला गांव के बैजनाथ विश्वकर्मा बताते हैं कि एक मिट्टी का बर्तन पका हुआ, जिसे प्याली (ढकनी) कहा जाता है. उसे मंत्र द्वारा बांधते हैं. उसमें मंत्र पेंसिल या खल्ली से लिखते भी हैं. धरती को भी बांधते हैं. इसके बाद पेशेंट को ढकनी प्याली में बैठाते हैं. फिर धान या जौ हाथ में लेकर छींटते हैं. इस दौरान मंत्रोच्चार पढ़ा जाता है. जिनको इन्फेक्शन रहता है, उनका ढकनी घूमने लगता है. करीब आधे घंटे तक मरीज को बैठाते हैं. शनिवार मंगलवार को ही ज्यादातर पेशेंट को बुलाया जाता है. बैजनाथ विश्वकर्मा दावा करते हैं, कि इससे मरीज ठीक हो जाता है.
'मरीज का जिस तरह से सुधार होता है, उसी के हिसाब से उनको बुलाया जाता है. वैसे 21 दिनों में यह बीमारी ठीक होने लगती है. इस बीच पेशेंट कहता है कि तकलीफ ठीक हो रही है, तो फिर ढक्कन घूमना भी बंद हो जाता है. मरीज को खाने के लिए नमक पढ़ कर देते हैं. यह पुरखों के बताए हुए नुस्खे में से एक है.' - बैजनाथ विश्वकर्मा, झाड़-फूंक से इलाज करने वाले
हर उम्र के लोग आते हैं इलाज कराने : जिले के बांकेबाजार के जमुआर कला गांव में इस तरह से इलाज कराने को लेकर काफी लोग आते हैं. शनिवार और मंगलवार को अच्छी खासी भीड़ देखी जा सकती है. यहां इलाज कराने के लिए लोग अपने बच्चों को लेकर भी आते हैं. वही युवा, बुजुर्ग हर उम्र के लोग यहां पहुंचते हैं. इस संबंध में मगध मेडिकल कॉलेज अस्पताल के उपाधीक्षक प्रदीप कुमार अग्रवाल बताते हैं कि स्वास्थ्य विभाग इस तरह के झाड़-फूंक से लोगों को जागरूक करने के लिए अभियान चला रहा है. झाड़-फूंक पर विश्वास का मतलब नहीं है.
'प्रकृति की में कई ऐसी चीजें हैं, जिससे यह संभव है. कहीं न कहीं प्रकृति की शक्ति का यह लोग सहारा लेते होंगे. यदि किसी व्यक्ति में मरने के लायक जहर चला गया तो एंटी डोज नहीं लेने पर जान जा सकती है. ऐसे मरीज झाड़-फूंक के भरोसे रहेंगे तो मौत निश्चित है. झाड़-फूंक अंधविश्वास की चीज है.' - प्रदीप कुमार अग्रवाल, मगध मेडिकल कॉलेज अस्पताल के उपाधीक्षक