गया: 'कफन बेचकर किसी तरह से बच्चों को पढ़ा रहे हैं. एक बेटे को इंजीनियर भी बना चुके हैं. बेटा विकास कुमार इंजीनियर बना है और दूसरे राज्य में काम करता है. बेटी भी कंपटीशन की तैयारी कर रही है. कफन बनाना पुश्तैनी धंधा है.' यह कहानी अकेली मुन्नी देवी (story of the gaya shroud weavers) की नहीं हैं. बिहार के गया जिले में कफन कारोबार से जुड़े लोगों की माने तो जब लाश जलती है तब जलते हैं घरों के चूल्हेृ. मुर्दों की संख्या घटते ही खाने के लाले पड़ जाते हैं.
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गया में कफन का कारोबार : बिहार के गया के मानपुर पटवा टोली और इससे सटे इलाके में अब चंद बुनकर परिवार की कफन बनाने के काम से जुड़े रह गए हैं. प्रतिदिन यहां पांच हजार कफन तैयार किए जाते हैं. महीने में डेढ़ लाख यहां से कफन सप्लाई की जाती है. एक घर से 200 से 300 के बीच में रोजाना कफन का निर्माण किया जाता है. यहां बना कफन ही बिहार और झारखंड के कई जिलों में भेजा जाता है. वहीं, ऑर्डर पर इसकी सप्लाई बंगाल तक भी होती है.
'कफन बनाने का मन नहीं करता, लेकिन..' : कफन के कारोबार से जुड़े सुरेश प्रसाद और उनकी पत्नी मेमनी देवी अपने हस्तकरघा में धागे लगा रहे हैं. धागा लगाना और उस पर रंग चढ़ाना कफन बनाने की पहली प्रक्रिया में आता है. फिर माड़ी लगाना, उसे सुखाना, प्रिंट करना होता है. सुरेश प्रसाद बताते हैं कि कभी-कभी कफन बनाने का मन नहीं करता. कफन देखकर ही अजीब लगता है, लेकिन क्या करें, पुश्तैनी में यही मिला है. इस व्यवसाय से हमारी पांच कुर्सी (पुश्तें) गुजरे हैं.
''हमें हर तरह से उपेक्षित रखा गया है. सुबह से लेकर कफन के धागे चढाने से लेकर उसे सुखाने के लिए काफी मेहनत लगते हैं, लेकिन मुनाफा सीमित ही है. कफन निर्माण का कारोबार करने के बावजूद इतनी आमदनी नहीं हो पाती, जिससे अच्छी तरह से घर चल सके. हमेशा आर्थिक तंगहाली से जूझते रहते हैं. बैंक भी हमारी ओर ध्यान नहीं देते. पटवाटोली में ही सूती वस्त्र बनाने में हैंडलूम-पावरलूम सब है. उन्हें बैंक लोन दे देते है, लेकिन कफन के कारोबारियों को बैंक नहीं मिलता है.'' - सुरेश प्रसाद, कफन कारोबारी
पिंडदान से जुड़ा है कफन निर्माण का प्रसंग : बिहार के गया में ही कफन बनने के पीछे कई प्रसंग जुड़े हुए हैं. सैकड़ों साल से गया में कफन निर्माण का इतिहास है. अंग्रेजों के जमाने में भी गया के बने कफन की ही सप्लाई होती थी. वैसे इसके संबंध में यह भी कहा जाता है, कि गया मोक्ष की नगरी है. गया में पिंडदान से पितरों को मोक्ष मिलता है. इसके पीछे ही मोक्षधाम गया में कफन बनाए जाने की भी कहानी है और यही वजह है कि गया की नगरी मानपुर पटवाटोली क्षेत्र में आज भी कुछ परिवार अपने इस पुश्तैनी काम को संभाल रहे हैं. वे इस धंधे से जुड़े रहने की वजह इसका पुश्तैनी होना भी बताते हैं.
'कफन बिकता है तो घर की दाल रोटी चलती है' : कफन निर्माण के काम से जुड़े बुनकर बताते हैं, कि यह वर्षों से चला आ रहा है. मजबूरी में करते हैं, धीरे-धीरे कई लोगों ने अपने इस पुश्तैनी कारोबार को छोड़ा है. हमारे पास पैसों का अभाव है, इसलिए इसी धंधे को चलाने की मजबूरी है. किसी के मरने के बाद कफन बिकता है. दाल रोटी इसी से चल रही है. कफन निर्माण की प्रक्रिया में इसे धूप में सुखाना पड़ता है. धूप में रहने की इच्छा नहीं होती, बार-बार मन में आता है कि अब कफन निर्माण के काम को छोड़ देंगे. किंतु मजबूरी में करना पड़ता है. हस्तकरघे पर आज भी कफन बनाए जाते हैं.
''पति-पत्नी या बच्चे हों, सब मिलकर यह काम कर रहे हैं. बिहार में सिर्फ गया में ही कफन बनता है. यहां से पटना, हजारीबाग, कोडरमा, फतुआ समेत सभी जिलों में इसे बेचा जाता है. ऑर्डर पर बंगाल तक यहीं से कफन जाता है. सरकार की ओर से अब तक कोई मदद नहीं मिला है. बैंक लोन तक नहीं मिला. अन्य व्यवसाय के लिए बैंक लोन देती है, लेकिन इसे बढ़ावा देने के लिए बैंक वाले लोन नहीं देते हैं.'' - मेहताब, कफन कारीगर