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पितृपक्ष 2021 का हुआ आगाज, जानें पहले दिन का महत्व - latest news

इस बार कोरोना काल के चलते मोक्ष नगरी गयाजी में पितृपक्ष मेले का आयोजन नहीं किया गया है. लेकिन लोग पिंडदान कर सकते हैं. ऐसे में पौराणिक मान्यताओं को ध्यान में रखना बेहद जरूरी हो जाता है. पढ़ें पूरी खबर...

pitru paksha 2021
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Published : Sep 20, 2021, 6:44 AM IST

Updated : Sep 20, 2021, 8:34 AM IST

गया : पितृपक्ष के तहत पिंडदान शुरू हो गया है. गयाजी में आज यानि पूर्णिमा तिथि को फल्गुनी नदी तीर्थ में स्नान, तर्पण और नदी तट पर खीर के पिंड से फल्गु श्राद्ध करने का विधान है. जिन लोगों की मृत्यु पूर्णिमा तिथि पर हुई हो, उनका श्राद्ध इस दिन करना चाहिए. इस बार पितृपक्ष (Pitru Paksha 2021) 20 सितंबर से शुरू हुआ है. इस बार पितृपक्ष अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि से शुरू होकर अश्विनी मास की अमावस्या तिथि यानी 6 अक्टूबर तक रहेगा.

ये भी पढ़ें- पितृपक्ष 2021: पुनपुन मे पिंडदान हुआ प्रारंभ, मूलभूत सुविधाओं का घोर अभाव

19 सितंबर को अंनत चतुदर्शी के बाद दूसरे दिन गया जी में त्रैपाक्षिक कर्मकांड का पहला दिन का फल्गु नदी के तट पर पिंडदान करने का महत्व है. श्रापित फल्गु नदी की एक बूंद से तर्पण करने से पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है.

दरअसल कोरोना महामारी के बीच पहली बार गया में पितृपक्ष के दौरान पिंडदान किया जा रहा है. जिला प्रशासन और विष्णुपद प्रबन्धकारणी समिति ने पिंडदानियों के सुविधाओं के लिए व्यवस्था की है. आज पितृपक्ष में पहले दिन गया जी में प्रवाहित होनेवाले फल्गु नदी के तट पर पिंडदान करने का महत्व है.

पंडित राजाचार्य ने बताया कि आज के दिन पुनपुन नदी के तट पर पिंडदानी गया जी में आकर यहां फल्गु नदी के तट पर तीर्थपुरोहित को पांव पूजन करके पिंडदान शुरू करते हैं. 17 दिवसीय पिंडदान का आज दूसरा दिन है. गया जी में पिंडदान का पहला दिन है. गया जी में फल्गु नदी में पिंडदान करने का महत्व है. फल्गु नदी पर खीर का अगर पिंडदान किया जाए तो उसे अति उत्तम माना जाता है.

पितृपक्ष का शाब्दिक अर्थ होता है पितरों का पखवाड़ा, यानि कि पूर्वजों के लिए 15 दिन. पितृ पक्ष हर साल अनंत चतुर्दर्शी के बाद भाद्रपद मास की पूर्णिमा से लेकर आश्विन मास की अमावस्या तक पितृपक्ष के रूप में मनाया जाता है. ऐसी मान्यता है कि इन पंद्रह दिनों के दौरान पूर्वज मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से अपने परिजनों के पास पहुंचते हैं. पितृ पक्ष के दौरान पिंडदान व श्राद्धकर्म करने से पूर्वजों को पृथ्वी लोक में बार-बार जन्म लेने के चक्र से मुक्ति मिलती है और उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है. इस पर्व में अपने पितरों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता व उनकी आत्मा के लिए शान्ति देने के लिए श्राद्ध किया जाता है.

पितृपक्ष श्राद्ध की पूजा विधि

  • श्राद्ध में तिल, चावल, जौ आदि को अधिक महत्त्व दिया जाता है.
  • श्राद्ध में इन चीजों को विशेष रुप से सम्मिलित करें.
  • इसके बाद श्राद्ध को पितरों को भोग लगाकर किसी ब्राह्मण को भोजन कराएं.
  • तिल और पितरों की पंसद चीजें, उन्हें अर्पित करें.
  • श्राद्ध में पितरों को अर्पित किए जाने वाले भोज्य पदार्थ को पिंडी रूप में अर्पित करना चाहिए.
  • श्राद्ध का अधिकार पुत्र, भाई, पौत्र, प्रपौत्र समेत महिलाओं को भी होता है.
  • अंत में कौओं को श्राद्ध को भोजन कराएं. क्योंकि कौए को पितरों का रुप माना जाता है.

गयावाल पंडा समाज के गजाधर लाल पंडा कहते हैं, 'पिंडवेदी कोई एक जगह नहीं है. तीर्थयात्रियों को धार्मिक कर्मकांड में दिनभर का समय लग जाता है. ऐसे में लोग पूरी तरह थक जाते हैं, और तीर्थयात्री अपने परिवार के साथ आराम की तलाश करते हैं. आश्विन माह के कृष्णपक्ष के पितृपक्ष पखवारे में विष्णुनगरी में अपने पितरों को मोक्ष दिलाने की कामना लिए देश ही नहीं, विदेशों से भी सनातन धर्मावलंबी गया आते हैं. इस मेले में कर्मकांड का विधि-विधान कुछ अलग-अलग है.'

गजाधर लाल पंडा ने बताया, 'श्रद्घालु एक दिन, तीन दिन, सात दिन, 15 दिन और 17 दिन तक का कर्मकांड करते हैं. कर्मकांड करने आने वाले श्रद्घालु यहां रहने के लिए तीन-चार महीने पूर्व से ही इसकी व्यवस्था कर चुके होते हैं.'

ये भी पढ़ें- गया जी और तिल में है गहरा संबंध, पिंडदान से लेकर प्रसाद तक में होता है उपयोग

ज्योतिषों के अनुसार जिस तिथि को माता-पिता, दादा-दादी आदि परिजनों की मृत्यु होती है, उस तिथि पर इन सोलह दिनों में उनका श्राद्ध करना उत्तम रहता है. जब पितरों के पुत्र या पौत्र द्वारा श्राद्ध किया जाता है तो पितृ लोक में भ्रमण करने से मुक्ति मिलकर पूर्वजों को मोक्ष प्राप्त हो जाता है.

आश्विन कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से शुरू होकर अमावस्या तक की अवधि को पितृपक्ष माना जाता है. वैदिक परंपरा और हिंदू मान्यताओं के अनुसार पितरों के लिए श्रद्धा से श्राद्ध करना एक महान और उत्कृष्ट कार्य है. मान्यता के मुताबिक, पुत्र का पुत्रत्व तभी सार्थक माना जाता है, जब वह अपने जीवन काल में जीवित माता-पिता की सेवा करे और उनके मरणोपरांत उनकी मृत्यु तिथि (बरसी) तथा महालय (पितृपक्ष) में उनका विधिवत श्राद्ध करें.

ये भी पढ़ें- पितृपक्ष में गया में करना है पिंडदान, तो आने से पहले जान लीजिए गाइडलाइंस

वहीं सर्वश्रेष्ठ नदी कैसे श्रापित हो गयी इसके पीछे कहानी है. फल्गु नदी को पंचतीर्थ नदी कहा जाता है. फल्गु नदी पांच नदियों के संगम से उत्पन्न हुआ है. विष्णुपद क्षेत्र के राजाचार्य ने बताया फल्गु नदी देश की सभी नदियों में सबसे ज्यादा पवित्र है. यहां तक कि गंगा से भी ज्यादा इसे पवित्र माना जाता है. फल्गु नदी सतयुग सतत सलिला प्रवाहित होती थी लेकिन एक वाक्या इस नदी को श्रापित कर दिया.

भगवान राम, माता सीता और लक्ष्मण जी अपने पिता के मृत्यु उपरांत गया जी मे पिंडदान करने आये थे , पिंडदान का सामग्री लाने दोनों भाई नगर में चले गए और माता सीता फल्गु नदी में अठखेलियां कर रही थी. इसी बीच आकाशवाणी हुआ पुत्री पिंडदान का वक्त हो गया है मुझे पिंड दो. माता सीता ने फल्गु नदी, गाय, ब्राह्मण और अक्षयवट को साक्षी रखकर राजा दशरथ को बालू का पिंडदान दी.

भगवान राम और लक्ष्मण के वापस आने पर माता सीता ने पूरा वाक्या बताया लेकिन भगवान राम को भरोसा नहीं हुआ. माता सीता ने साक्षी चारो से पूछा लेकिन ब्राह्मण, फल्गु और गौ ने कह दिया माता सीता ने पिंडदान नहीं किया. माता सीता ने आक्रोशित होकर फल्गु नदी को अततः सलिला होने का श्राप दे दी.

गया को विष्णु का नगर माना जाता है, जिसे लोग विष्णु पद के नाम से भी जानते हैं. यह मोक्ष की भूमि कहलाती है. विष्णु पुराण के अनुसार यहां पूर्ण श्रद्धा से पितरों का श्राद्ध करने से उन्हें मोक्ष मिलता है. मान्यता है कि गया में भगवान विष्णु स्वयं पितृ देवता के रूप में उपस्थित रहते हैं, इसलिए इसे पितृ तीर्थ भी कहते हैं. ऐसी मान्यताएं हैं कि त्रेता युग में भगवान राम, लक्ष्मण और सीता राजा दशरथ के पिंडदान के लिए यहीं आये थे और यही कारण है की आज पूरी दुनिया अपने पूर्वजों के मोक्ष के लिए आती है.

पिंडवेदियों में प्रेतशिला, रामशिला, अक्षयवट, देवघाट, सीताकुंड, देवघाट, ब्राह्मणी घाट, पितामहेश्वर घाट काफी महत्वपूर्ण माने जाते हैं. कई दशकों से यहां पितृपक्ष मेला लगता रहा है. लेकिन इस बार कोरोना महामारी के चलते मेले को रद्द कर दिया गया है.


पितृपक्ष पक्ष की तिथियां

  • 20 सितंबर पूर्णिमा श्राद्ध
  • 21 सितंबर प्रतिपदा श्राद्ध
  • 22 सितंबर द्वितीया श्राद्ध
  • 23 सितंबर तृतीया श्राद्ध
  • 24 सितंबर तृतीया श्राद्ध
  • 25 सितंबर पंचमी श्राद्ध
  • 26/27 सितंबर षष्ठी श्राद्ध
  • 28 सितंबर सप्तमी श्राद्ध
  • 29 सितंबर अष्टमी श्राद्ध
  • 30 सितंबर नवमी श्राद्ध
  • एक अक्टूबर दशमी श्राद्ध
  • दो अक्टूबर एकादशी श्राद्ध
  • तीन अक्टूबर द्वादशी श्राद्ध
  • चार अक्टूबर त्रयोदशी श्राद्ध
  • पांच अक्टूबर चतुर्दशी श्राद्ध
  • छह अक्टूबर अमावस्या श्राद्ध

गया : पितृपक्ष के तहत पिंडदान शुरू हो गया है. गयाजी में आज यानि पूर्णिमा तिथि को फल्गुनी नदी तीर्थ में स्नान, तर्पण और नदी तट पर खीर के पिंड से फल्गु श्राद्ध करने का विधान है. जिन लोगों की मृत्यु पूर्णिमा तिथि पर हुई हो, उनका श्राद्ध इस दिन करना चाहिए. इस बार पितृपक्ष (Pitru Paksha 2021) 20 सितंबर से शुरू हुआ है. इस बार पितृपक्ष अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि से शुरू होकर अश्विनी मास की अमावस्या तिथि यानी 6 अक्टूबर तक रहेगा.

ये भी पढ़ें- पितृपक्ष 2021: पुनपुन मे पिंडदान हुआ प्रारंभ, मूलभूत सुविधाओं का घोर अभाव

19 सितंबर को अंनत चतुदर्शी के बाद दूसरे दिन गया जी में त्रैपाक्षिक कर्मकांड का पहला दिन का फल्गु नदी के तट पर पिंडदान करने का महत्व है. श्रापित फल्गु नदी की एक बूंद से तर्पण करने से पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है.

दरअसल कोरोना महामारी के बीच पहली बार गया में पितृपक्ष के दौरान पिंडदान किया जा रहा है. जिला प्रशासन और विष्णुपद प्रबन्धकारणी समिति ने पिंडदानियों के सुविधाओं के लिए व्यवस्था की है. आज पितृपक्ष में पहले दिन गया जी में प्रवाहित होनेवाले फल्गु नदी के तट पर पिंडदान करने का महत्व है.

पंडित राजाचार्य ने बताया कि आज के दिन पुनपुन नदी के तट पर पिंडदानी गया जी में आकर यहां फल्गु नदी के तट पर तीर्थपुरोहित को पांव पूजन करके पिंडदान शुरू करते हैं. 17 दिवसीय पिंडदान का आज दूसरा दिन है. गया जी में पिंडदान का पहला दिन है. गया जी में फल्गु नदी में पिंडदान करने का महत्व है. फल्गु नदी पर खीर का अगर पिंडदान किया जाए तो उसे अति उत्तम माना जाता है.

पितृपक्ष का शाब्दिक अर्थ होता है पितरों का पखवाड़ा, यानि कि पूर्वजों के लिए 15 दिन. पितृ पक्ष हर साल अनंत चतुर्दर्शी के बाद भाद्रपद मास की पूर्णिमा से लेकर आश्विन मास की अमावस्या तक पितृपक्ष के रूप में मनाया जाता है. ऐसी मान्यता है कि इन पंद्रह दिनों के दौरान पूर्वज मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से अपने परिजनों के पास पहुंचते हैं. पितृ पक्ष के दौरान पिंडदान व श्राद्धकर्म करने से पूर्वजों को पृथ्वी लोक में बार-बार जन्म लेने के चक्र से मुक्ति मिलती है और उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है. इस पर्व में अपने पितरों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता व उनकी आत्मा के लिए शान्ति देने के लिए श्राद्ध किया जाता है.

पितृपक्ष श्राद्ध की पूजा विधि

  • श्राद्ध में तिल, चावल, जौ आदि को अधिक महत्त्व दिया जाता है.
  • श्राद्ध में इन चीजों को विशेष रुप से सम्मिलित करें.
  • इसके बाद श्राद्ध को पितरों को भोग लगाकर किसी ब्राह्मण को भोजन कराएं.
  • तिल और पितरों की पंसद चीजें, उन्हें अर्पित करें.
  • श्राद्ध में पितरों को अर्पित किए जाने वाले भोज्य पदार्थ को पिंडी रूप में अर्पित करना चाहिए.
  • श्राद्ध का अधिकार पुत्र, भाई, पौत्र, प्रपौत्र समेत महिलाओं को भी होता है.
  • अंत में कौओं को श्राद्ध को भोजन कराएं. क्योंकि कौए को पितरों का रुप माना जाता है.

गयावाल पंडा समाज के गजाधर लाल पंडा कहते हैं, 'पिंडवेदी कोई एक जगह नहीं है. तीर्थयात्रियों को धार्मिक कर्मकांड में दिनभर का समय लग जाता है. ऐसे में लोग पूरी तरह थक जाते हैं, और तीर्थयात्री अपने परिवार के साथ आराम की तलाश करते हैं. आश्विन माह के कृष्णपक्ष के पितृपक्ष पखवारे में विष्णुनगरी में अपने पितरों को मोक्ष दिलाने की कामना लिए देश ही नहीं, विदेशों से भी सनातन धर्मावलंबी गया आते हैं. इस मेले में कर्मकांड का विधि-विधान कुछ अलग-अलग है.'

गजाधर लाल पंडा ने बताया, 'श्रद्घालु एक दिन, तीन दिन, सात दिन, 15 दिन और 17 दिन तक का कर्मकांड करते हैं. कर्मकांड करने आने वाले श्रद्घालु यहां रहने के लिए तीन-चार महीने पूर्व से ही इसकी व्यवस्था कर चुके होते हैं.'

ये भी पढ़ें- गया जी और तिल में है गहरा संबंध, पिंडदान से लेकर प्रसाद तक में होता है उपयोग

ज्योतिषों के अनुसार जिस तिथि को माता-पिता, दादा-दादी आदि परिजनों की मृत्यु होती है, उस तिथि पर इन सोलह दिनों में उनका श्राद्ध करना उत्तम रहता है. जब पितरों के पुत्र या पौत्र द्वारा श्राद्ध किया जाता है तो पितृ लोक में भ्रमण करने से मुक्ति मिलकर पूर्वजों को मोक्ष प्राप्त हो जाता है.

आश्विन कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से शुरू होकर अमावस्या तक की अवधि को पितृपक्ष माना जाता है. वैदिक परंपरा और हिंदू मान्यताओं के अनुसार पितरों के लिए श्रद्धा से श्राद्ध करना एक महान और उत्कृष्ट कार्य है. मान्यता के मुताबिक, पुत्र का पुत्रत्व तभी सार्थक माना जाता है, जब वह अपने जीवन काल में जीवित माता-पिता की सेवा करे और उनके मरणोपरांत उनकी मृत्यु तिथि (बरसी) तथा महालय (पितृपक्ष) में उनका विधिवत श्राद्ध करें.

ये भी पढ़ें- पितृपक्ष में गया में करना है पिंडदान, तो आने से पहले जान लीजिए गाइडलाइंस

वहीं सर्वश्रेष्ठ नदी कैसे श्रापित हो गयी इसके पीछे कहानी है. फल्गु नदी को पंचतीर्थ नदी कहा जाता है. फल्गु नदी पांच नदियों के संगम से उत्पन्न हुआ है. विष्णुपद क्षेत्र के राजाचार्य ने बताया फल्गु नदी देश की सभी नदियों में सबसे ज्यादा पवित्र है. यहां तक कि गंगा से भी ज्यादा इसे पवित्र माना जाता है. फल्गु नदी सतयुग सतत सलिला प्रवाहित होती थी लेकिन एक वाक्या इस नदी को श्रापित कर दिया.

भगवान राम, माता सीता और लक्ष्मण जी अपने पिता के मृत्यु उपरांत गया जी मे पिंडदान करने आये थे , पिंडदान का सामग्री लाने दोनों भाई नगर में चले गए और माता सीता फल्गु नदी में अठखेलियां कर रही थी. इसी बीच आकाशवाणी हुआ पुत्री पिंडदान का वक्त हो गया है मुझे पिंड दो. माता सीता ने फल्गु नदी, गाय, ब्राह्मण और अक्षयवट को साक्षी रखकर राजा दशरथ को बालू का पिंडदान दी.

भगवान राम और लक्ष्मण के वापस आने पर माता सीता ने पूरा वाक्या बताया लेकिन भगवान राम को भरोसा नहीं हुआ. माता सीता ने साक्षी चारो से पूछा लेकिन ब्राह्मण, फल्गु और गौ ने कह दिया माता सीता ने पिंडदान नहीं किया. माता सीता ने आक्रोशित होकर फल्गु नदी को अततः सलिला होने का श्राप दे दी.

गया को विष्णु का नगर माना जाता है, जिसे लोग विष्णु पद के नाम से भी जानते हैं. यह मोक्ष की भूमि कहलाती है. विष्णु पुराण के अनुसार यहां पूर्ण श्रद्धा से पितरों का श्राद्ध करने से उन्हें मोक्ष मिलता है. मान्यता है कि गया में भगवान विष्णु स्वयं पितृ देवता के रूप में उपस्थित रहते हैं, इसलिए इसे पितृ तीर्थ भी कहते हैं. ऐसी मान्यताएं हैं कि त्रेता युग में भगवान राम, लक्ष्मण और सीता राजा दशरथ के पिंडदान के लिए यहीं आये थे और यही कारण है की आज पूरी दुनिया अपने पूर्वजों के मोक्ष के लिए आती है.

पिंडवेदियों में प्रेतशिला, रामशिला, अक्षयवट, देवघाट, सीताकुंड, देवघाट, ब्राह्मणी घाट, पितामहेश्वर घाट काफी महत्वपूर्ण माने जाते हैं. कई दशकों से यहां पितृपक्ष मेला लगता रहा है. लेकिन इस बार कोरोना महामारी के चलते मेले को रद्द कर दिया गया है.


पितृपक्ष पक्ष की तिथियां

  • 20 सितंबर पूर्णिमा श्राद्ध
  • 21 सितंबर प्रतिपदा श्राद्ध
  • 22 सितंबर द्वितीया श्राद्ध
  • 23 सितंबर तृतीया श्राद्ध
  • 24 सितंबर तृतीया श्राद्ध
  • 25 सितंबर पंचमी श्राद्ध
  • 26/27 सितंबर षष्ठी श्राद्ध
  • 28 सितंबर सप्तमी श्राद्ध
  • 29 सितंबर अष्टमी श्राद्ध
  • 30 सितंबर नवमी श्राद्ध
  • एक अक्टूबर दशमी श्राद्ध
  • दो अक्टूबर एकादशी श्राद्ध
  • तीन अक्टूबर द्वादशी श्राद्ध
  • चार अक्टूबर त्रयोदशी श्राद्ध
  • पांच अक्टूबर चतुर्दशी श्राद्ध
  • छह अक्टूबर अमावस्या श्राद्ध
Last Updated : Sep 20, 2021, 8:34 AM IST
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