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पितृपक्ष 2021: 20 सितंबर से मगही कुंभ की होगी शुरुआत, देश के कोने-कोने से पिंडदानी पहुंचेंगे गयाजी

वेदों में चार पुरुषार्थों में अंतिम मोक्ष की प्राप्ति का स्थान गया को माना गया है. धर्म, अर्थ और काम की पूर्णता तभी सार्थक है, जब मोक्ष सुलभ हो. मोक्ष सुलभ पितृपक्ष में सुलभ से प्राप्त होता है. इसलिए गया जी में पिंडदान (Pind Daan) करने आते हैं. यहां विदेशों से भी सनातन धर्मावलंबी पिंडदान करने आते हैं.

पिंडदान
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Published : Sep 18, 2021, 10:06 PM IST

गया: बिहार की धार्मिक नगरी गया (Gaya) में 20 सितंबर से पितृपक्ष (Pitri Paksh) के पहले दिन का पिंडदान (Pind Daan) शुरू होगा. गयाजी में पिंडदान करने का बड़ा महत्व है, लिहाजा न केवल देशभर से बल्कि विदेशों से भी सनातन धर्मावलंबी पिंडदान करने आते हैं. ऐसी मान्यता है कि पितृपक्ष के दौरान गयाजी में पिंडदान करने के बाद फिर कहीं भी श्राद्ध या कर्मकांड करने की जरूरत नहीं पड़ती है. यहां पिंडदान एक दिवसीय से लेकर 15 दिनों तक का रहता है.

ये भी पढ़ें: पुनपुन नदी पितृ तर्पण का प्रथम द्वार, जहां श्रीराम ने किया था पूर्वजों का प्रथम पिंड दान

दरअसल पूरे विश्व मे एक मात्र शहर में 'जी' का शब्द का उपयोग किया जाता है, वो शहर मोक्षनगरी गयाजी है. सनातन धर्मावलंबियों के लिए गयाजी पितरों को मोक्ष दिलाने एक स्थान है. गयाजी में बालू मात्र से पिंडदान अर्पण करने और मोक्षदायिनी फल्गु के पानी के तर्पण करने से ही पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है. इस स्थान की चर्चा सनातन धर्म के अधिकांश वेदों और पुस्तकों में है.

देखें रिपोर्ट

19 सिंतबर से पितृपक्ष शुरू होनेवाला है. गयाजी में 20 सितंबर से पितृपक्ष का पहला दिन होगा. पितृपक्ष यानी पितरों का पक्ष इस पक्ष में पितर अपने लोक से पृथ्वी लोक में एक मात्र गयाजी में आते हैं. कहा जाता है कि गयाजी में पितर अपने वंशज को देखकर काफी प्रसन्न होते हैं. यहां आटा, फल-फूल, भोजन और कुछ नहीं मिले तो बालू का पिंडदान करने से पितरों को मोक्ष मिल जाता है. पितृपक्ष में पिंडदान करने की शुरुआत ब्रह्माजी के पुत्र ने की थी.

वायु पुराण की कथा के अनुसार प्राचीन काल में गयासुर नामक एक असुर बसता था, उसने दैत्यों के गुरु शंकराचार्य की सेवा कर वेद, वेदांत, धर्म और युद्ध कला में महारत हासिल कर भगवान विष्णु की तपस्या शुरू कर दी, उसकी कठिन तपस्या से प्रभावित होकर भगवान विष्णु प्रकट हुए और उसने वरदान मांगने को कहा. गयासुर ने वरदान मांगा कि भगवान जो भी मेरा दर्शन करे, वह सीधे बैकुंठ जाए.

भगवान विष्णु 'तथास्तु' कह के चले गए, भगवान विष्णु से वरदान प्राप्त करते ही गयासुर का दर्शन और स्पर्श करके लोग मोक्ष की प्राप्ति करने लगे नतीजा यह हुआ कि यमराज सहित अन्य देवता का अस्तित्व संकट में आने लगा. ब्रह्माजी ने देवताओं को बुलाकर सभा की और विचार विमर्श किया. भगवान विष्णु ने कहा कि आप सभी गयासुर उसके शरीर पर महायज्ञ करने के लिए राजी करें. उसके बाद ब्रह्मा जी गयासुर के पास गए गयासुर से कहा कि मुझे यज्ञ करने के लिए तुम्हारा शरीर चाहिए. ब्रह्मा जी के आग्रह में गयासुर यज्ञ के लिए अपना शरीर दे दिया उसका शरीर पांच कोस में फैला था, उसका सिर उत्तर में और पैर दक्षिण में था.

यज्ञ के दौरान गयासुर का शरीर कंपन करने लगा तो ब्रह्मा जी की बहू धर्मशीला जो एक शिला के स्वरूप थी, उसके छाती पर धर्मशीला को रख दिया गया. फिर भी गयासुर का शरीर हिलता रहा. अंत में भगवान विष्णु यज्ञ स्थल पर पहुंचे और गयासुर के सीने पर रखे धर्मशीला पर अपना चरण रखकर दबाते हुए गयासुर से कहा अंतिम क्षण में मुझसे चाहे जो वर मांग लो. इस पर गया सुर ने कहा कि भगवान में जिस स्थान पर प्राण त्याग रहा हूं. वो शिला में परिवर्तित हो जाए और मैं उस में मौजूद रहे. इस शिला पर आप का पदचिह्न विराजमान रहे और जो इस शिला पर पिंडदान प्रदान करेगा, उसके पूर्वजों तमाम पापों से मुक्त होकर स्वर्ग में वास करेंगे. जिस दिन एक पिंड और मुंड नहीं मिलेगा, उस दिन इस क्षेत्र और शिला का नाश हो जाएगा. विष्णु भगवान ने तथास्तु कहा, उसके बाद से इस स्थान पर पिंडदान शुरू हो गया.

गयाजी में एक दिन, तीन दिन, पांच दिन, एक सप्ताह और 17 दिनों का गया श्राद्ध यानी पिंड दान क्रिया कर्म होता है. वेद पुराण के अनुसार गयाजी मे कम से कम तीन दिवसीय पिंडदान करने का उल्लेख है. इस आधुनिक युग मे एक दिवसीय पिंडदान शुरू हो गया है, इस पिंडदान से भी लाभ है. 15-17 दिवसीय पिंडदान 45 पिंड वेदियों पर होता है.

ये भी पढ़ें: गया जी और तिल में है गहरा संबंध, पिंडदान से लेकर प्रसाद तक में होता है उपयोग

पितृपक्ष का प्रथम दिन का पिंडदान पटना जिला स्थित पुनपुन घाट पर होता है. कहा जाता है गयाजी में पिंडदान करने वालों का प्रवेश द्वार है पुनपुन घाट. शास्त्रों के अनुसार प्रथम पिंडदान पुनपुन नदी के घाट पर ही किया जाता है. इसके बाद ही गया में श्राद्ध करने का महत्व है. पुनपुन नदी के घाट पर पिंडदान करके गयाजी में सत्रह दिनों के पिंडदान में पहला दिन फल्गु तीर्थ यानी फल्गु में स्नान करके पिंडदान करना चाहिए.

दूसरा दिन ब्रह्मकुंड में स्नान करके प्रेतशिला में पिंडदान करना चाहिए, तीसरा दिन उदीची, कनखल, दक्षिण मानस और उत्तर मानस में पिंडदान करना चाहिए. चौथे दिन धर्मारण्य में पिंडदान करना चाहिए. पांचवे दिन ब्रह्मसरोवर, आम्र सियच्न, कागबलि एवं तारक ब्रहा दर्शन में पिंडदान करना चाहिए. छठवें दिन से लेकर नौवा दिन तक विष्णुपद में 16 वेदियों में पिंडदान होता है. दसवां दिन सीताकुंड, रामगया में पिंडदान किया जाता है. ग्यारहवें दिन गयासिर और गया कूप वेदी पर पिंडदान होता है. बारहवां दिन मुण्ड पृष्ठा आदि गया और धोत पद में पिंडदान होता है.

तेरहवां दिन भीम गया, गोप्रचार और गदालोल इन तीनों तीर्थों में पिंडदान किया जाता है. चौदहवाँ दिन संध्या काल में पितरों को नदी एवं मंदिर में दीप दान कर पितरों की दिवाली करते हैं. पन्द्रहवा दिन वैतरणी सरोवर गौ दान और पिंडदान किया जाता है. सोलहवें दिन अक्षयवट में पिंडदान करते हैं और सत्रहवां दिन फल्गु नदी पर स्थित गायत्री तीर्थ यानी गायत्री देवी के पास पिंडदान करते हैं.

पिंडदान के देवता वसु, रूद्र और आदित्य श्राद्ध के देवता माने जाते हैं. मनुस्मृति से स्पष्ट है कि मनुष्य के तीन पूर्वजों पिता, पितामह एवं प्रपितामह क्रम से पितृ देवो अथार्त वसुओं, रुद्रों आदित्य के समान है. श्राद्ध करते समय उनको पूर्वजों का प्रतिनिधि माना चाहिए, पिंडदान के क्रम में उच्चारित मंत्रों और आहुतियों को वो सभी पितरों तक ले जाते है.

पिंडदान के दौरान पितरों का पसंद का वस्तु,पिंडदान के लिए साम्रगी और पिंडदान के दौरान क्या वर्जित है इसकी जानकारी है. पिंडदान में प्रयोग में होने वाले वस्तु तेल, चावल, जौ, दूध-दही और भी पितरों के लिए विशेष माने जाते हैं. पिंडदान में वर्जित पदार्थ मसूर, राजमा, कोदो, चना, अलसी, नमक आदि के पिंडदान के क्रम में निषेध है. वहीं भैंस, ऊंटनी, हिरनी और एक खुरवाले पशु का दूध वर्जित है.

पिंड दान में कूश का महत्व बहुत है, उसको जल और वनस्पतियों का सार माना जाता है. गुरुड़ पुराण के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु, महेश उसमें क्रम से जड़,मध्य और अग्रभाग में रहते है. पिंडदान में तिल का महत्व बहुत होता है. मान्यता है कि कुश और तिल दोनों विष्णु के शरीर से निकले हैं. तिल पितरों को प्रिय हैं और दुष्टों को दूर भगाने वाला पदार्थ है.

ये भी पढ़ें: पितृपक्ष में गया में करना है पिंडदान, तो आने से पहले जान लीजिए गाइडलाइंस

पिंडदान के दौरान को का बड़ा महत्व रहता है. माना जाता है कि मृत्यु के बाद पहला जन्म कौआ के रूप में होता है, इसलिए कौआ को दिया गया भोजन पितर ग्रहण करते हैं.

पिंडदान गोलाकार होता है, उसके पीछे भी एक तथ्य है. कहा जाता है कि जन्म के पूर्व गर्भावस्था में एक पिंड के तरह होता है. जिसे शुक्राणु कहते हैं. मृत्यु के बाद आत्मा भी गोलाकार में भी बाहर आती है. ये सृष्टि भी गोल है. ब्रह्माजी के पुत्र ने पहली बार पिंड के रूप में गोलाकार का ही प्रयोग किया था, जब से गोलाकार पिंडदान होता है.

इस वर्ष कोरोना वायरस के संक्रमण से बचाव को लेकर पितृपक्ष मेला का आयोजन नही किया जा रहा है, लेकिन पितृपक्ष के दौरान पिंडदान करने की छूट है. जिला प्रशासन और कोविड गाइडलाइंस का पालन करते हुए पिंडदान कर सकते हैं.

गया: बिहार की धार्मिक नगरी गया (Gaya) में 20 सितंबर से पितृपक्ष (Pitri Paksh) के पहले दिन का पिंडदान (Pind Daan) शुरू होगा. गयाजी में पिंडदान करने का बड़ा महत्व है, लिहाजा न केवल देशभर से बल्कि विदेशों से भी सनातन धर्मावलंबी पिंडदान करने आते हैं. ऐसी मान्यता है कि पितृपक्ष के दौरान गयाजी में पिंडदान करने के बाद फिर कहीं भी श्राद्ध या कर्मकांड करने की जरूरत नहीं पड़ती है. यहां पिंडदान एक दिवसीय से लेकर 15 दिनों तक का रहता है.

ये भी पढ़ें: पुनपुन नदी पितृ तर्पण का प्रथम द्वार, जहां श्रीराम ने किया था पूर्वजों का प्रथम पिंड दान

दरअसल पूरे विश्व मे एक मात्र शहर में 'जी' का शब्द का उपयोग किया जाता है, वो शहर मोक्षनगरी गयाजी है. सनातन धर्मावलंबियों के लिए गयाजी पितरों को मोक्ष दिलाने एक स्थान है. गयाजी में बालू मात्र से पिंडदान अर्पण करने और मोक्षदायिनी फल्गु के पानी के तर्पण करने से ही पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है. इस स्थान की चर्चा सनातन धर्म के अधिकांश वेदों और पुस्तकों में है.

देखें रिपोर्ट

19 सिंतबर से पितृपक्ष शुरू होनेवाला है. गयाजी में 20 सितंबर से पितृपक्ष का पहला दिन होगा. पितृपक्ष यानी पितरों का पक्ष इस पक्ष में पितर अपने लोक से पृथ्वी लोक में एक मात्र गयाजी में आते हैं. कहा जाता है कि गयाजी में पितर अपने वंशज को देखकर काफी प्रसन्न होते हैं. यहां आटा, फल-फूल, भोजन और कुछ नहीं मिले तो बालू का पिंडदान करने से पितरों को मोक्ष मिल जाता है. पितृपक्ष में पिंडदान करने की शुरुआत ब्रह्माजी के पुत्र ने की थी.

वायु पुराण की कथा के अनुसार प्राचीन काल में गयासुर नामक एक असुर बसता था, उसने दैत्यों के गुरु शंकराचार्य की सेवा कर वेद, वेदांत, धर्म और युद्ध कला में महारत हासिल कर भगवान विष्णु की तपस्या शुरू कर दी, उसकी कठिन तपस्या से प्रभावित होकर भगवान विष्णु प्रकट हुए और उसने वरदान मांगने को कहा. गयासुर ने वरदान मांगा कि भगवान जो भी मेरा दर्शन करे, वह सीधे बैकुंठ जाए.

भगवान विष्णु 'तथास्तु' कह के चले गए, भगवान विष्णु से वरदान प्राप्त करते ही गयासुर का दर्शन और स्पर्श करके लोग मोक्ष की प्राप्ति करने लगे नतीजा यह हुआ कि यमराज सहित अन्य देवता का अस्तित्व संकट में आने लगा. ब्रह्माजी ने देवताओं को बुलाकर सभा की और विचार विमर्श किया. भगवान विष्णु ने कहा कि आप सभी गयासुर उसके शरीर पर महायज्ञ करने के लिए राजी करें. उसके बाद ब्रह्मा जी गयासुर के पास गए गयासुर से कहा कि मुझे यज्ञ करने के लिए तुम्हारा शरीर चाहिए. ब्रह्मा जी के आग्रह में गयासुर यज्ञ के लिए अपना शरीर दे दिया उसका शरीर पांच कोस में फैला था, उसका सिर उत्तर में और पैर दक्षिण में था.

यज्ञ के दौरान गयासुर का शरीर कंपन करने लगा तो ब्रह्मा जी की बहू धर्मशीला जो एक शिला के स्वरूप थी, उसके छाती पर धर्मशीला को रख दिया गया. फिर भी गयासुर का शरीर हिलता रहा. अंत में भगवान विष्णु यज्ञ स्थल पर पहुंचे और गयासुर के सीने पर रखे धर्मशीला पर अपना चरण रखकर दबाते हुए गयासुर से कहा अंतिम क्षण में मुझसे चाहे जो वर मांग लो. इस पर गया सुर ने कहा कि भगवान में जिस स्थान पर प्राण त्याग रहा हूं. वो शिला में परिवर्तित हो जाए और मैं उस में मौजूद रहे. इस शिला पर आप का पदचिह्न विराजमान रहे और जो इस शिला पर पिंडदान प्रदान करेगा, उसके पूर्वजों तमाम पापों से मुक्त होकर स्वर्ग में वास करेंगे. जिस दिन एक पिंड और मुंड नहीं मिलेगा, उस दिन इस क्षेत्र और शिला का नाश हो जाएगा. विष्णु भगवान ने तथास्तु कहा, उसके बाद से इस स्थान पर पिंडदान शुरू हो गया.

गयाजी में एक दिन, तीन दिन, पांच दिन, एक सप्ताह और 17 दिनों का गया श्राद्ध यानी पिंड दान क्रिया कर्म होता है. वेद पुराण के अनुसार गयाजी मे कम से कम तीन दिवसीय पिंडदान करने का उल्लेख है. इस आधुनिक युग मे एक दिवसीय पिंडदान शुरू हो गया है, इस पिंडदान से भी लाभ है. 15-17 दिवसीय पिंडदान 45 पिंड वेदियों पर होता है.

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पितृपक्ष का प्रथम दिन का पिंडदान पटना जिला स्थित पुनपुन घाट पर होता है. कहा जाता है गयाजी में पिंडदान करने वालों का प्रवेश द्वार है पुनपुन घाट. शास्त्रों के अनुसार प्रथम पिंडदान पुनपुन नदी के घाट पर ही किया जाता है. इसके बाद ही गया में श्राद्ध करने का महत्व है. पुनपुन नदी के घाट पर पिंडदान करके गयाजी में सत्रह दिनों के पिंडदान में पहला दिन फल्गु तीर्थ यानी फल्गु में स्नान करके पिंडदान करना चाहिए.

दूसरा दिन ब्रह्मकुंड में स्नान करके प्रेतशिला में पिंडदान करना चाहिए, तीसरा दिन उदीची, कनखल, दक्षिण मानस और उत्तर मानस में पिंडदान करना चाहिए. चौथे दिन धर्मारण्य में पिंडदान करना चाहिए. पांचवे दिन ब्रह्मसरोवर, आम्र सियच्न, कागबलि एवं तारक ब्रहा दर्शन में पिंडदान करना चाहिए. छठवें दिन से लेकर नौवा दिन तक विष्णुपद में 16 वेदियों में पिंडदान होता है. दसवां दिन सीताकुंड, रामगया में पिंडदान किया जाता है. ग्यारहवें दिन गयासिर और गया कूप वेदी पर पिंडदान होता है. बारहवां दिन मुण्ड पृष्ठा आदि गया और धोत पद में पिंडदान होता है.

तेरहवां दिन भीम गया, गोप्रचार और गदालोल इन तीनों तीर्थों में पिंडदान किया जाता है. चौदहवाँ दिन संध्या काल में पितरों को नदी एवं मंदिर में दीप दान कर पितरों की दिवाली करते हैं. पन्द्रहवा दिन वैतरणी सरोवर गौ दान और पिंडदान किया जाता है. सोलहवें दिन अक्षयवट में पिंडदान करते हैं और सत्रहवां दिन फल्गु नदी पर स्थित गायत्री तीर्थ यानी गायत्री देवी के पास पिंडदान करते हैं.

पिंडदान के देवता वसु, रूद्र और आदित्य श्राद्ध के देवता माने जाते हैं. मनुस्मृति से स्पष्ट है कि मनुष्य के तीन पूर्वजों पिता, पितामह एवं प्रपितामह क्रम से पितृ देवो अथार्त वसुओं, रुद्रों आदित्य के समान है. श्राद्ध करते समय उनको पूर्वजों का प्रतिनिधि माना चाहिए, पिंडदान के क्रम में उच्चारित मंत्रों और आहुतियों को वो सभी पितरों तक ले जाते है.

पिंडदान के दौरान पितरों का पसंद का वस्तु,पिंडदान के लिए साम्रगी और पिंडदान के दौरान क्या वर्जित है इसकी जानकारी है. पिंडदान में प्रयोग में होने वाले वस्तु तेल, चावल, जौ, दूध-दही और भी पितरों के लिए विशेष माने जाते हैं. पिंडदान में वर्जित पदार्थ मसूर, राजमा, कोदो, चना, अलसी, नमक आदि के पिंडदान के क्रम में निषेध है. वहीं भैंस, ऊंटनी, हिरनी और एक खुरवाले पशु का दूध वर्जित है.

पिंड दान में कूश का महत्व बहुत है, उसको जल और वनस्पतियों का सार माना जाता है. गुरुड़ पुराण के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु, महेश उसमें क्रम से जड़,मध्य और अग्रभाग में रहते है. पिंडदान में तिल का महत्व बहुत होता है. मान्यता है कि कुश और तिल दोनों विष्णु के शरीर से निकले हैं. तिल पितरों को प्रिय हैं और दुष्टों को दूर भगाने वाला पदार्थ है.

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पिंडदान के दौरान को का बड़ा महत्व रहता है. माना जाता है कि मृत्यु के बाद पहला जन्म कौआ के रूप में होता है, इसलिए कौआ को दिया गया भोजन पितर ग्रहण करते हैं.

पिंडदान गोलाकार होता है, उसके पीछे भी एक तथ्य है. कहा जाता है कि जन्म के पूर्व गर्भावस्था में एक पिंड के तरह होता है. जिसे शुक्राणु कहते हैं. मृत्यु के बाद आत्मा भी गोलाकार में भी बाहर आती है. ये सृष्टि भी गोल है. ब्रह्माजी के पुत्र ने पहली बार पिंड के रूप में गोलाकार का ही प्रयोग किया था, जब से गोलाकार पिंडदान होता है.

इस वर्ष कोरोना वायरस के संक्रमण से बचाव को लेकर पितृपक्ष मेला का आयोजन नही किया जा रहा है, लेकिन पितृपक्ष के दौरान पिंडदान करने की छूट है. जिला प्रशासन और कोविड गाइडलाइंस का पालन करते हुए पिंडदान कर सकते हैं.

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