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हाल-ए-मूर्तिकार: जो भगवान को देते हैं सुंदर स्वरूप, उन्हें पेट पालने में भी हो रही है दिक्कत

मूर्तिकारों का कहना है कि मूर्ति निर्माण में अच्छी कमाई नहीं होती है. यहां तक कि सारी मूर्तियां नहीं बिक पाती हैं.

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Published : Feb 1, 2019, 8:59 PM IST

भोजपुर: सरस्वती पूजा में अब महज चंद दिन बाकी रह गए हैं. ऐसे में मूर्तिकार अपनी मूर्तियों को बेहतर रूप देने में लगे हुए हैं. लेकिन इस प्रतिस्पर्धा के पीछे इनकी जो स्थिति है वह काफी हैरान कर देने वाली है.

आज पुस्तैनी परंपरा ढो रहे मूर्तिकारों की स्थिति बद से बदतर हो गई है. इस संदर्भ में जब उनसे बात की गई तो उन्होंने बताया कि मूर्ति बनाने की परम्परा वर्षों से चली आ रही है लेकिन आज इस महंगाई के समय में मूर्ति बनाकर पेट पालना कठिन काम बन गया है.

अच्छी कमाई नहीं होती है मूर्ति निर्माण में

इस बाबत मूर्तिकार धीरज कुमार ने बताया कि काली पूजा के बाद से ही मूर्ति निर्माण कार्य शुरू हो जाता है, लेकिन इस काम में जितना समय और पैसा खर्च होता है उस हिसाब से उनकी कमाई नहीं हो पाती है. यहां तक कि कभी-कभी लागत भी नहीं निकल पाती.

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दर्द बयां करते मूर्तिकार
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इन सामग्रियों से होता है मूर्ति निर्माण
मूर्तिकार धीरज बताते हैं कि मूर्तियों के निर्माण में मिट्टी, बांस, सुतली, बोरा, जूट, लेबारी, धान की भूंसी, कील सहित अन्य समानों का इस्तेमाल होता है. सहायक मूर्ति निर्माण के बाद मूर्तियों में रंग भरा जाता है, जो मूर्ति निर्माण का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण काम होता है. रंग भरने के बाद मूर्ति में जान आ जाती है. मूर्ति को अंतिम रूप देना सबसे ज्यादा मेहनत का काम है. मूर्तिकार धीरज ने बताया कि मूर्ति में रंग भरने में खल्ली, चपड़ा, डीडीआर, साबुदाना, इमली पाउडर सहित अन्य सामानों का इस्तेमाल किया जाता है.

नहीं बिक पाती हैं सारी मूर्तियां

मूर्ति निर्माण से जुड़े कारीगरों ने बताया कि पिछले वर्ष की अपेक्षा इस बार महंगाई काफी बढ़ गई है. जिस वजह से मूर्ति बनाने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है, लेकिन घर चलाने के लिये मूर्ति बनाना मजबूरी है. आलम ये है कि मूर्तियों का बयाना लेने के बाद भी पूरी बिक्री नहीं हो पाती. मजबूरन लोगों को फ्री में मूर्तियां बांटनी पड़ती हैं. पिछले वर्ष भी 6-7 मूर्तियां बच गई थी. जिसे मोहल्लेवालों को मुफ्त में देना पड़ गया था.

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भोजपुर: सरस्वती पूजा में अब महज चंद दिन बाकी रह गए हैं. ऐसे में मूर्तिकार अपनी मूर्तियों को बेहतर रूप देने में लगे हुए हैं. लेकिन इस प्रतिस्पर्धा के पीछे इनकी जो स्थिति है वह काफी हैरान कर देने वाली है.

आज पुस्तैनी परंपरा ढो रहे मूर्तिकारों की स्थिति बद से बदतर हो गई है. इस संदर्भ में जब उनसे बात की गई तो उन्होंने बताया कि मूर्ति बनाने की परम्परा वर्षों से चली आ रही है लेकिन आज इस महंगाई के समय में मूर्ति बनाकर पेट पालना कठिन काम बन गया है.

अच्छी कमाई नहीं होती है मूर्ति निर्माण में

इस बाबत मूर्तिकार धीरज कुमार ने बताया कि काली पूजा के बाद से ही मूर्ति निर्माण कार्य शुरू हो जाता है, लेकिन इस काम में जितना समय और पैसा खर्च होता है उस हिसाब से उनकी कमाई नहीं हो पाती है. यहां तक कि कभी-कभी लागत भी नहीं निकल पाती.

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दर्द बयां करते मूर्तिकार
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इन सामग्रियों से होता है मूर्ति निर्माण
मूर्तिकार धीरज बताते हैं कि मूर्तियों के निर्माण में मिट्टी, बांस, सुतली, बोरा, जूट, लेबारी, धान की भूंसी, कील सहित अन्य समानों का इस्तेमाल होता है. सहायक मूर्ति निर्माण के बाद मूर्तियों में रंग भरा जाता है, जो मूर्ति निर्माण का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण काम होता है. रंग भरने के बाद मूर्ति में जान आ जाती है. मूर्ति को अंतिम रूप देना सबसे ज्यादा मेहनत का काम है. मूर्तिकार धीरज ने बताया कि मूर्ति में रंग भरने में खल्ली, चपड़ा, डीडीआर, साबुदाना, इमली पाउडर सहित अन्य सामानों का इस्तेमाल किया जाता है.

नहीं बिक पाती हैं सारी मूर्तियां

मूर्ति निर्माण से जुड़े कारीगरों ने बताया कि पिछले वर्ष की अपेक्षा इस बार महंगाई काफी बढ़ गई है. जिस वजह से मूर्ति बनाने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है, लेकिन घर चलाने के लिये मूर्ति बनाना मजबूरी है. आलम ये है कि मूर्तियों का बयाना लेने के बाद भी पूरी बिक्री नहीं हो पाती. मजबूरन लोगों को फ्री में मूर्तियां बांटनी पड़ती हैं. पिछले वर्ष भी 6-7 मूर्तियां बच गई थी. जिसे मोहल्लेवालों को मुफ्त में देना पड़ गया था.

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Intro:सरस्वती पूजा में अब महज चंद दिन रह गए हैं।मूर्तिकार अपने मूर्तियों को बेहतर से बेहतर रूप देने में लगे हुए हैं।लेकिन इस प्रतिस्पर्धा के पीछे इनकी जो स्थिति है वह काफी हैरान कर देने वाली है।


Body:आज पुस्तैनी परंपरा ढो रहे मूर्तिकारों की स्थिति बद से बदत्तर हो गयी है।इस संदर्भ में जब मूर्तिकारों से बात की गई तो उन्होंने बताया कि मूर्ति बनाने की परम्परा वर्षों से चली आ रही है। हमारे दादा जी के समय से ही मूर्ति बनाने की परंपरा चली चली आ रही है लेकिन आज के इस मंहगाई के समय मे मूर्ति बनाकर पेट पालना एक कठिन कार्य बन चुका है।
इस बावत मूर्तिकार धीरज कुमार ने बताया कि काली पूजा के बाद से ही मूर्ति निर्माण कार्य शुरू हो जाता है। लेकिन जिस हिसाब से इसमें मूर्तिकारों के द्वारा समय और इस निर्माण कार्य के पीछे जो खर्च होता है ,उनके लागत के अनुसार कमाई नही हो पाती है।
किन किन सामग्रियों से होता है मूर्ति का निर्माण-
इस बावत धीरज बताते हैं कि इसके निर्माण में मिट्टी,बाँस, सुतरी, बोरा,जुट,लेबारी, धान का भूसी,कांटी, सहित अन्य भी समान को इसमें लगाया जाता है।
रंग भरने में ये सब होते हैं सहायक- मूर्ति निर्माण के बाद मूर्ति को अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण मूर्त्य देने का काम होता है उसमें रंग भरना,जिसके बाद मूर्ति में जैसे जान सी आ जाती है। इस सम्बंध में मूर्तिकार धीरज बताते हैं कि मूर्ति को अंतिम रूप देने में जो आम किया जाता है वह काफी मेहनत का काम है।उन्होंने बताया कि मूर्ति को रंग बिरंग करने में खल्ली, चपड़ा, डीडीआर,सबुर्दना,इमली पाउडर सहित अन्य चीजें व्यवहृत की जाती हैं और तब जाकर मूर्ति बेचने योग्य हो पाती हैं।


Conclusion:नही भर पाता है पेट- इस बावत मूर्तिकार बताते हैं कि पिछले वर्ष की अपेक्षा इस बार मंहगाई काफी बढ़ गयी है जिस वजह से मूर्ति बनाने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है।लेकिन मजबूरी है कि मूर्ति बनाना है इस आस पर कि मूर्ति बिक जाएगी तो कुछ पैसे घर मे आ जाएंगे लेकिन आलम यह है कि कुछ मूर्तियों का बयाना लेने के बाद भी मूर्तियां रह जाती हैं,मजबूरन लोगों को फ्री में मूर्ति बाँटना पड़ जाता है।उन्होंने बताया कि पिछले वर्ष भी छह सात मूर्तियां बच गयी थी जिसे मोहल्लेवालों को फ्री में बांटनी पड़ गयी।
ऐसे में कैसे जिंदगी बसर करेंगे मूर्तिकार, यह सरकार के लिए एक चुनौतीपूर्ण प्रश्न है।
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