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यहां बाजार के अभाव में रेशम बुनकर दाने- दाने को हैं मोहताज, ऐसे होगा आत्मनिर्भर भारत? - बांका के डुमरामां गांव

सरकार आत्मनिर्भर भारत मिशन को लेकर बड़े बड़े दावे तो करती है. लेकिन बांका के रेशम कारोबार बाजार के अभाव में खत्म होने के कागार पर है. बुनकर दाने- दाने को मोहताज हैं.

बुनकर
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Published : Aug 29, 2020, 10:53 PM IST

बांका: जिले में रेशम और तसर के धागे को कपड़े का आकार देने वाले बुनकरों की हालत दननीय है. इनकी ऐसी हालत सरकारी उदासीनता से हुई है. बुनकरों का कहना है कि बैंक भी लोन देने को तैयार नहीं है. अब कोरोना से उपजे हालात ने पूरे काम को ही बंद कर दिया है. सबसे बड़ी समस्या बाजार को लेकर है.

जिले के अमरपुर प्रखंड स्थित डुमरामां गांव के बुनकरों ने अपना एक अलग पहचान स्थापित किया है. इस गांव के 15 सौ घरों में रेशम और तसर से साड़ी- सूट के साथ-साथ अन्य परिधान तैयार किए जाते हैं. यहां से निर्मित कपड़े की डिमांड बड़े शहरों में बहुत है. इस गांव के बुनकर 15 सौ से लेकर 6 हजार तक की साड़ियां और 5 हजार से लेकर 9 हजार तक का सूट तैयार करते हैं. मदद के नाम पर सरकार से इन्हें सिर्फ आश्वासन ही मिलता है. बुनकरों को बैंक भी लोन देने को तैयार नहीं है. यहां के युवाओं को ये पुश्तैनी धंधा विलुप्त होते दिख रहा है. कोरोना की मार ने भी बुनकरों को बर्बादी के मुहाने पर खड़ा कर दिया है.

पेश है रिपोर्ट
बुनकरों को लोन देने को तैयार नहीं है बैंक
बुनकर सिकंदर आलम ने बताया कि एक रेशम की साड़ी तैयार करने में 2 से 3 दिन का समय लग जाता है. एक साड़ी पर सिर्फ दो सौ बच पाता है. इससे पेट भरना भी मुश्कित होता है. अब कोरोना ने स्थिति और भी दयनीय कर दिया है. बुनकर हाजी मो. निसार बताते हैं कि बुनकरों के सामने सबसे बड़ी समस्या बाजार को लेकर है. सिल्क साड़ी बनकर तैयार तो हो जाता है. लेकिन बाजार नहीं रहने से उचित दाम नहीं मिल पाता है. मजबूरन औने पौने दाम पर मारवाड़ी को देना पड़ जाता है. बुनकर मो. मोजाहिद रजा बताते हैं कि कोकून से रेशम के धागे निकालने के लिए सरकार ने मशीन मुहैया कराने के साथ-साथ प्रशिक्षण भी दिला दिया. लेकिन जब पैसे की बात आती है, तो बैंक लोन देने को तैयार नहीं है. पूंजी के अभाव में मशीन का उपयोग करना मुश्किल है.
रेशम के कपड़े बुनते बुनकर
रेशम के कपड़े बुनते बुनकर
'कोरोना के चलते धंधा हो गया चौपट'
बुनकर मो. जाहिद हुसैन ने बताया कि कोरोना के चलते सात महीने से धंधा पूरी तरह से बंद है. खाने की समस्या होने लगी है. 20 बुनकर लगातार काम करते थे. उन्हें पैसा मिलता था, तो घर का चूल्हा जलता था. लेकिन अब उनको देने के लिए पैसा नहीं है. महाजन दरवाजे से लौटा देता है. पुश्तैनी कारोबार से जुड़े इस गांव के बुनकर 6 हजार तक की साड़ियां और 9 हजार तक का सूट तैयार करते हैं. युवा व्यवसायी मो. शहबाजउद्दीन ने बताया की लॉकडाउन के चलते काम पूरी तरह से बंद है. बाजार नहीं होने के वजह से 10 हजार से अधिक साड़ियां गोदाम में रखा हुआ है. इसके अलावा करोड़ों के परिधान से गोदाम पूरी तरह से भरा हुआ है. कच्चे रेशम के धागे से बने साड़ी रखे-रखे बर्बाद हो रहे हैं. महाजन 2 हजार की साड़ियां 1500 में मांगते हैं, जो की पूरी तरह से घाटे का सौदा है.
रेशम के कपड़े
रेशम के कपड़े
'विलुप्त हो जाएंगी ये कला'
युवा मो. कामरान फैसल ने बताया कि वर्तमान में सबसे बड़ी समस्या बाजार को लेकर है. बुनकरों को उचित मेहनताना नहीं मिल पाता है. सेठ और साहूकारों को सस्ते दर पर बेचने को विवश हैं. दुकानदार ने बताया कि हमारे पूर्वजों के पास रेशम और तसर के कपड़े तैयार करने की शानदार कला थी, उस दौर में कपड़े की सिलाई करने की जरूरत नहीं पड़ती थी. वहीं, उन्होंने बताया कि सरकार ने बुनकरों पर ध्यान नहीं दिया, तो धीरे-धीरे ये कला विलुप्त हो कर समाप्त हो जाएगी.

बांका: जिले में रेशम और तसर के धागे को कपड़े का आकार देने वाले बुनकरों की हालत दननीय है. इनकी ऐसी हालत सरकारी उदासीनता से हुई है. बुनकरों का कहना है कि बैंक भी लोन देने को तैयार नहीं है. अब कोरोना से उपजे हालात ने पूरे काम को ही बंद कर दिया है. सबसे बड़ी समस्या बाजार को लेकर है.

जिले के अमरपुर प्रखंड स्थित डुमरामां गांव के बुनकरों ने अपना एक अलग पहचान स्थापित किया है. इस गांव के 15 सौ घरों में रेशम और तसर से साड़ी- सूट के साथ-साथ अन्य परिधान तैयार किए जाते हैं. यहां से निर्मित कपड़े की डिमांड बड़े शहरों में बहुत है. इस गांव के बुनकर 15 सौ से लेकर 6 हजार तक की साड़ियां और 5 हजार से लेकर 9 हजार तक का सूट तैयार करते हैं. मदद के नाम पर सरकार से इन्हें सिर्फ आश्वासन ही मिलता है. बुनकरों को बैंक भी लोन देने को तैयार नहीं है. यहां के युवाओं को ये पुश्तैनी धंधा विलुप्त होते दिख रहा है. कोरोना की मार ने भी बुनकरों को बर्बादी के मुहाने पर खड़ा कर दिया है.

पेश है रिपोर्ट
बुनकरों को लोन देने को तैयार नहीं है बैंक
बुनकर सिकंदर आलम ने बताया कि एक रेशम की साड़ी तैयार करने में 2 से 3 दिन का समय लग जाता है. एक साड़ी पर सिर्फ दो सौ बच पाता है. इससे पेट भरना भी मुश्कित होता है. अब कोरोना ने स्थिति और भी दयनीय कर दिया है. बुनकर हाजी मो. निसार बताते हैं कि बुनकरों के सामने सबसे बड़ी समस्या बाजार को लेकर है. सिल्क साड़ी बनकर तैयार तो हो जाता है. लेकिन बाजार नहीं रहने से उचित दाम नहीं मिल पाता है. मजबूरन औने पौने दाम पर मारवाड़ी को देना पड़ जाता है. बुनकर मो. मोजाहिद रजा बताते हैं कि कोकून से रेशम के धागे निकालने के लिए सरकार ने मशीन मुहैया कराने के साथ-साथ प्रशिक्षण भी दिला दिया. लेकिन जब पैसे की बात आती है, तो बैंक लोन देने को तैयार नहीं है. पूंजी के अभाव में मशीन का उपयोग करना मुश्किल है.
रेशम के कपड़े बुनते बुनकर
रेशम के कपड़े बुनते बुनकर
'कोरोना के चलते धंधा हो गया चौपट'
बुनकर मो. जाहिद हुसैन ने बताया कि कोरोना के चलते सात महीने से धंधा पूरी तरह से बंद है. खाने की समस्या होने लगी है. 20 बुनकर लगातार काम करते थे. उन्हें पैसा मिलता था, तो घर का चूल्हा जलता था. लेकिन अब उनको देने के लिए पैसा नहीं है. महाजन दरवाजे से लौटा देता है. पुश्तैनी कारोबार से जुड़े इस गांव के बुनकर 6 हजार तक की साड़ियां और 9 हजार तक का सूट तैयार करते हैं. युवा व्यवसायी मो. शहबाजउद्दीन ने बताया की लॉकडाउन के चलते काम पूरी तरह से बंद है. बाजार नहीं होने के वजह से 10 हजार से अधिक साड़ियां गोदाम में रखा हुआ है. इसके अलावा करोड़ों के परिधान से गोदाम पूरी तरह से भरा हुआ है. कच्चे रेशम के धागे से बने साड़ी रखे-रखे बर्बाद हो रहे हैं. महाजन 2 हजार की साड़ियां 1500 में मांगते हैं, जो की पूरी तरह से घाटे का सौदा है.
रेशम के कपड़े
रेशम के कपड़े
'विलुप्त हो जाएंगी ये कला'
युवा मो. कामरान फैसल ने बताया कि वर्तमान में सबसे बड़ी समस्या बाजार को लेकर है. बुनकरों को उचित मेहनताना नहीं मिल पाता है. सेठ और साहूकारों को सस्ते दर पर बेचने को विवश हैं. दुकानदार ने बताया कि हमारे पूर्वजों के पास रेशम और तसर के कपड़े तैयार करने की शानदार कला थी, उस दौर में कपड़े की सिलाई करने की जरूरत नहीं पड़ती थी. वहीं, उन्होंने बताया कि सरकार ने बुनकरों पर ध्यान नहीं दिया, तो धीरे-धीरे ये कला विलुप्त हो कर समाप्त हो जाएगी.
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