दरभंगा: मिथिला संस्कृत स्नातकोत्तर अध्ययन एवं शोध संस्थान की करीब एक हजार साल पुरानी दुर्लभ पांडुलिपियों का संरक्षण ( conservation of rare manuscripts ) शुरू हो गया है. मिथिला को उसकी ज्ञान की संपदा की वजह से पूरी दुनिया में जाना जाता है. यहां हजारों साल पुरानी पांडुलिपियों में भारत का ज्ञान और संस्कृति छुपी है, जिन पर दुनिया भर के शोधार्थी रिसर्च करने दरभंगा पहुंचते रहे हैं. इंटैक लखनऊ की टीम मिथिला संस्कृत शोध संस्थान में पांडुलिपियों का संरक्षण कर रही है. इन्हें फिलहाल एक हजार पन्नों का संरक्षण करना है. इस संस्थान की स्थापना दरभंगा महाराज कामेश्वर सिंह की दान दी हुई 62 बीघा जमीन पर 16 जून 1951 को हुई थी. उसके पहले 1949 में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने इसके मुख्य भवन का शिलान्यास किया था, जो आज तक नहीं बन सका है.
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इस संस्थान में न्याय, दर्शन, मीमांसा जैसे कई विषयों पर एक हजार साल पुरानी पांडुलिपियों का संग्रह है, लेकिन बेहतर इंतजाम के अभाव में ये पांडुलिपियां नष्ट हो रही हैं. इस संस्थान की बहुत पुरानी गरिमा रही है. ऐसा कहा जाता है कि विज्ञान और गणित के क्षेत्र में भारत के आइआइटी संस्थानों की जो गरिमा रही है. वही संस्कृत की पांडुलिपियों के मामले में इस संस्थान की रही है. यहां दुनिया के कई देशों जैसे अमेरिका, ब्रिटेन, चीन और जापान आदि से शोधार्थी शोध करने आते रहे हैं. हालांकि अब यह संस्थान शिक्षकों और कर्मियों की कमी की वजह से वीरान हो चुका है.
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इंटैक, लखनऊ के विशेषज्ञ विनोद कुमार तिवारी ने बताया कि इंटैक दिल्ली मुख्यालय से मिथिला की पांडुलिपियों के संरक्षण के लिए 15 लाख रुपये की राशि आवंटित की गई है. इस राशि से पहले महाराजाधिराज लक्ष्मीश्वर सिंह संग्रहालय में दुर्लभ पांडुलिपियों का संरक्षण शुरू हुआ है. उसके बाद अब मिथिला शोध संस्थान की पांडुलिपियों के एक हजार पन्ने का संरक्षण किया जा रहा है. उन्होंने बताया कि इंटैक जर्मनी से आयातित पेपर पर पांडुलिपियों का संरक्षण करता है, जिससे इसका कागज नया हो जाता है और अगले एक सौ साल तक ये खराब नहीं होता है.
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मिथिला संस्कृत स्नातकोत्तर अध्ययन एवं शोध संस्थान के प्रभारी निदेशक डॉ. राजदेव प्रसाद ने बताया शिक्षा विभाग के निर्देश पर मिथिला शोध संस्थान की दुर्लभ पांडुलिपियों का संरक्षण इंटैक लखनऊ की टीम कर रही है. उन्होंने कहा कि संस्थान में करीब एक हजार साल तक की पांडुलिपियां संरक्षित हैं. इनमें भोजपत्र, ताड़पत्र और बांसपत्र पर लिखे न्याय, दर्शन और मीमांसा विषयों के मूल ग्रंथ शामिल हैं. उन्होंने कहा कि संस्थान में फिलहाल शिक्षकों और कर्मियों के 45 में से 32 पद खाली हैं. इसकी वजह से संस्थान का शिक्षण और शोध का काम बुरी तरह प्रभावित हो रहा है. उन्होंने कहा कि अगर इन दुर्लभ पांडुलिपियों का संरक्षण कर उनका डिजिटाइजेशन कर दिया जाए तो पूरी दुनिया के लोग इन पर रिसर्च करेंगे और इन्हें हमेशा के लिए सुरक्षित रखा जा सकेगा.
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