नई दिल्ली : सूचना का अधिकार कानून (Right to Information Act) के लिए कई दशकों तक लड़ाई चली, तब जाकर देश को भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मजबूत हथियार मिला. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में सुनवाई करते हुए आरटीआई (सूचना का अधिकार) के तहत मिली जानकारी को अविश्वसनीय ठहरा दिया.
शीर्ष अदालत की इस टिप्पणी के बाद आरटीआई कार्यकर्ताओं ने अपनी गंभीर चिंता व्यक्त की है. प्रसिद्ध आरटीआई एक्टिविस्ट सुभाष चंद्र अग्रवाल ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी के बाद 2005 में बनाए गए इस अधिनियम का कोई महत्व ही नहीं रह गया.
शुक्रवार को सूचना के अधिकार को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी टिप्पणी कर दी, जिसे लेकर बहस तेज हो गई है.
कल के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा,'आरटीआई जवाब का हवाला न दें. यह हमारे अनुभव के अनुसार बहुत विश्वसनीय नहीं है. अगर पत्र किसी अन्य प्राधिकरण के साथ समाप्त होता है, तो जवाब कुछ अलग होता है.'
न्यायमूर्ति एम खानविलकर और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना की पीठ ने यह टिप्पणी की. पीठ इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक आदेश के खिलाफ अपील पर सुनवाई कर रही थी.
सुभाष अग्रवाल आरटीआई एक्टिविस्ट हैं. उन्होंने भारत में भ्रष्टाचार को रोकने के लिए सूचना का अधिकार कानून का उपयोग एक हथियार के रूप में किया है. सुभाष अग्रवाल को नेशनल आरटीआई अवार्ड्स (National RTI Awards) भी मिल चुका है.
सुप्रीम कोर्ट को लिखे अपने पत्र में सुभाष अग्रवाल ने कहा कि आरटीआई कानून Common Wealth Game, Coal gate, 2G spectrum जैसे बड़े घोटालों का पर्दाफाश करने में प्रमुख हथियार बना था.
सुभाष चंद्र अग्रवाल ने कहा कि
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद अब हाईकोर्ट और निचली अदालतें भी अदालती मामलों में सबूत के तौर पर आरटीआई के जवाबों को स्वीकार करने से इनकार कर देंगी.यह बेहतर होता कि सुप्रीम कोर्ट के जज खुद के अनुभवों के आधार पर अपने फैसले में अधिकारियों को अविश्वसनीय आरटीआई जवाब देने के लिए सार्वजनिक-प्राधिकरणों में संबंधित लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने का निर्देश देते.
हालांकि, सुभाष चंद्र अग्रवाल का मानना है कि आरटीआई एक्ट के तहत गलत जवाब दिए जाते हैं. उन्होंने पत्र में यह भी लिखा, 'यह सच है कि आरटीआई एक्ट के तहत गलत जवाब दिए जाते हैं. कभी-कभी, सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों की अवहेलना करते हुए आरटीआई अधिनियम की धारा 8 के तहत छूट प्राप्त जानकारी भी प्रदान की जाती है.'
साथ ही उन्होंने कहा कि प्रसिद्धि पाने, ब्लैकमेलिंग और येलो-पत्रकारिता के लिए आरटीआई एक्ट का दुरुपयोग दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है, जिसके लिए उचित प्रशिक्षण की आवश्यकता है.
वहीं, आरटीआई एक्टिविस्ट अशोक अग्रवाल का कहना है-
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी आरटीआई एक्ट की कार्यप्रणाली पर ही सवाल खड़ा करती है. सूचना का अधिकार अधिनियम का उद्देश्य पारदर्शिता लाना था और भ्रष्टाचार को रोकने में काफी हद तक यह कामयाब भी रहा है.
कुछ आरटीआई एक्टिविस्ट सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी का समर्थन भी कर रहे हैं. आरटीआई एक्टिविस्ट गोपाल प्रसाद का कहना है कि
आरटीआई में जानकारी मांगने पर अधिकारी कई बार सूचना या तो छिपाते हैं या फिर देने से कतराते हैं. किसी भी आरटीआई एक्टिविस्ट को केवल पीआईओ के द्वारा दिए गए जवाब पर ही निर्भर नहीं रहना चाहिए. अगर न्याय चाहिए तो सही जानकारी के लिए संघर्ष करना पड़ता है. आरटीआई कानून के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा है.अब तक सौ से अधिक एक्टिविस्ट की जान जा चुकी है. वर्ष 2005 में आए आरटीआई का यह कानून सूचना या समय पर जानकारी पाने के लिए सबसे सरल और सस्ता माध्यम है.
बता दें कि सूचना न देने पर वर्ष 2005 से 2020 के बीच 22 लाख से ज्यादा लोगों ने सूचना आयोगों का दरवाजा खटखटाया है. इससे यह पता चलता है कि देश में सूचनाएं छिपाई जाती हैं. वहीं देश में सीबीआई सहित कई संस्थाएं अभी तक आरटीआई के दायरे में भी नहीं है. इसके अलावा एक जानकारी यह भी मिलती है कि 50 फीसदी से ज्यादा आरटीआई गांव से दायर की जाती हैं.