जयपुर. नई शिक्षा नीति में पहली से पांचवीं कक्षा तक की पढ़ाई मातृभाषा में करवाने का प्रावधान है, लेकिन राजस्थान में मातृभाषा को लेकर स्थिति साफ नहीं है. राजस्थानी भाषा की मान्यता के लिए संघर्ष कर रहे बुद्धिजीवियों ने मंगलवार को नेता प्रतिपक्ष टीकाराम जूली से मिलकर विधानसभा के मानसून सत्र में यह मुद्दा उठाने की मांग की है.
राजस्थानी भाषा की मान्यता के लिए संघर्ष कर रहे पद्मश्री डॉ. सीपी देवल का कहना है कि राजस्थान बनने के बाद से अब तक राजस्थानी भाषा को वह दर्जा नहीं मिला है, जिसकी यह हकदार है. अब नई शिक्षा नीति आई है. इसमें प्रावधान है कि पहली से पांचवीं तक की पढ़ाई मातृभाषा में की जा सकेगी. ऐसे में यह सरकार कैसे तय करेगी कि मातृभाषा क्या है. इस मुद्दे पर सब लोग गेंद को एक से दूसरे पाले में डालने का प्रयास कर रहे हैं. अगर यह तय कर देंगे कि हमारी भाषा हिंदी ही है तो कोई नहीं बोलेगा. हालांकि, उन्होंने यह भी कहा है कि हिंदी का कोई विरोध नहीं है, लेकिन राजस्थानी भाषा को उसका हक मिलना चाहिए.
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हिंदी से ज्यादा राजस्थानी बोलने वाले: डॉ. देवल का दावा है कि राजस्थान में हिंदी से ज्यादा राजस्थानी भाषा बोलने वाले लोग हैं. वे बोले- 2011 की जनगणना में करीब 4 करोड़ लोगों ने अपनी मातृभाषा राजस्थानी लिखवाई है. जो हिंदी से ज्यादा हैं. इसमें हर जिले के आंकड़े हैं. हालांकि, हमारा हिंदी से कोई विरोध नहीं है. लेकिन हम चाहते हैं कि राजस्थानी भाषा का अब तक जो नुकसान हुआ है. उसकी भरपाई होनी चाहिए. सरकार हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने के लिए दुबारा अध्यादेश लाती है तो भी हम विरोध नहीं करेंगे, लेकिन राजस्थानी को भी उसका हक मिलना चाहिए. उन्होंने कहा कि इतने सालों में हमारी संस्कृति का नाश हो रहा है. बच्चे लोकगीतों का अर्थ नहीं जानते हैं, जबकि राजस्थानी के बिना हमारी शादी नहीं हो सकती, बाकि कोई रीती-रिवाज भी राजस्थानी के बिना पूरे नहीं हो सकते हैं.
राजस्थानी में वोट मांगते हैं लेकिन शपथ नहीं ले सकते: वे बोले- यह 200 विधायक जब गांवों में वोट मांगने जाते हैं तो राजस्थानी में बात करके वोट मांगते हैं. वो ही भाषा है. जिसमें वोट मांगते हैं. लेकिन विधानसभा में जब शपथ लेने जाते हैं तो स्पीकर कहते हैं कि यह संविधान के विरुद्ध है. यह कैसा मखौल है. छत्तीसगढ़ में विधायकों ने वहां की स्थानीय भाषा में शपथ ली. वो संविधान में है क्या. असल मुद्दा यही है कि राजस्थानी भाषा को उसका हक मिले और नई शिक्षा नीति लागू कर उसमें पांचवीं कक्षा तक की पढ़ाई राजस्थानी भाषा में करवाने की व्यवस्था की जाए.
आखिर क्या है संवैधानिक स्थिति: डॉ. सीपी देवल ने कहा कि राजस्थान के एकीकरण से पहले 1952 में एक अध्यादेश जारी हुआ कि प्रांत की भाषा हिंदी होगी. उसके बाद जब राजस्थान बन गया तब गवर्नर गुरुमुख निहाल सिंह ने एक अध्यादेश जारी किया कि प्रांत की भाषा हिंदी रहेगी. संवैधानिक प्रावधान है कि किसी भी अध्यादेश को छह महीने में विधानसभा से अनुमोदन करवाना होता है. हम यह जानना चाहते हैं कि कौनसी विधानसभा में इस अध्यादेश को अनुमोदित करवाया गया. हम नेता प्रतिपक्ष टीकाराम जूली से इसीलिए मिले हैं कि यह पता लगाया जाए कि इस मुद्दे की आज संवैधानिक स्थिति क्या है.
1957 में मिल जाना चाहिए था संवैधानिक दर्जा: उनका कहना है कि अगर उस समय लाए गए अध्यादेश का विधानसभा में अनुमोदन नहीं करवाया गया तो वह अध्यादेश छह महीने में स्वतः ही निरस्त हो जाता है. इसका आशय यह है कि जो तय किया था कि हमारी आधिकारिक भाषा हिंदी रहेगी. वह स्वतः ही ड्रॉप हो गया. उस समय राजस्थान में साक्षरता का आंकड़ा महज आठ फीसदी था. इसका मतलब यह है कि 92 फीसदी लोग राजस्थानी भाषा बोलते थे. तमाम पहलुओं पर गौर करें तो 1957 में राजस्थानी भाषा को प्रदेश की आधिकारिक भाषा का दर्जा मिल जाना चाहिए था, लेकिन अब तक राजस्थानी भाषा को यह अधिकार नहीं मिला.