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संथाल परगना में महिषासुर के वध पर नहीं मनाते खुशी, जानिए क्या है कारण

संथाल परगना में विजयादशमी के दिन आदिवासी समाज आक्रोश व्यक्त करते हैं. उनका मानना है कि उनके इष्ट 'महिषासुर' को छल से मारा गया.

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By ETV Bharat Jharkhand Team

Published : 2 hours ago

Vijayadashami in Santhal Pargana
संथाल परगना में विजयादशमी (ETV BHARAT)

गोड्डा: विजयादशमी बुराई पर अच्छाई की जीत रूप मे मनाया जाती है. मान्यता है कि महिषासुर के आतंक से पूरा देवलोक त्राहिमाम हो गया था. उसके वध के लिए, मां दुर्गा को दस भुजा धारी चंडी का रूप धारण करना पड़ा. संथाल आदिवासी के बीच इसके उलट एक मान्यता है, वो यह कि महिषासुर उनके इष्ट, पूर्वज है और मां दुर्गा ने उन्हें छल से मारा है. यही कारण है कि संथाल परगना की दशहरा मेला में विजयादशमी के दिन संथाल आदिवासी पूरे सैनिक सज्जा वाले लिबास में पहुंचते हैं और सांकेतिक रूप से अपना आक्रोश व्यक्त करते हैं. उनका मानना है कि उनके इष्ट महिषासुर को छल से मारा गया है. इतना ही नहीं महिषासुर का असली नाम महिषा सोरेन है.

इनके आक्रोश से बचने के लिए मेले में खास तौर पर सुरक्षा का इंतजाम किया जाता है. संथाल परगना के बलबड्डा में पिछले दो सौ वर्षों से दशहरा मेला का आयोजन होता आया है. यहां आम लोगों के साथ-साथ आदिवासी समाज के लोग बड़ी संख्या में पहुंचते हैं. वो पहले सैनिक लिबास में प्रदर्शन करते हैं और मूर्ति विसर्जन से पहले भीड़ प्रतिमा पंडाल में ये कहते हुए पहुंचती है कि बता-बता मेरा महिषा कहां हैं. इसके बाद पुजारी उन्हें काफी समझा-बुझा कर वापस करते हैं.

पुजारी मनकी तिवारी बताते हैं कि आदिवासी समाज को यह समझाया जाता है कि उनके इष्ट का वध नहीं हुआ हैं बल्कि उन्हें मुक्ति दी गयी है. इसके बाद उन्हें माता दुर्गा का परम प्रसाद देकर वापस भेजा जाता है. गोड्डा जिला का यह प्राचीनतम मेला बलबड्डा में सदियों से चला आ रही है.

इस मेले में सबसे बेहतर प्रदर्शन करने वाले आदिवासी टोली को मेला आयोजन समिति द्वारा पुरस्कृत किया जाता है. वहीं, स्थानीय पत्रकार प्रेमशंकर मिश्रा बताते हैं कि यह परंपरा काफी पुरानी है, जिसमें सांकेतिक विरोध झलकता है. कमोबेश यह परंपरा संथाल के ज्यादातर जगहों पर पुराने पूजा पंडालों में ग्रामीण इलाकों में होती है.

ये भी पढ़ें: Dussehra 2024: रांची में विजयादशमी पर धू-धूकर जलेगा बुराई का प्रतीक रावण, हेमंत सोरेन होंगे मुख्य अतिथि

ये भी पढ़ें: देवघर में एक ऐसा रावण जिसका नहीं होता दहन, इसे देखते ही लोग हो जाते हैं खुश

गोड्डा: विजयादशमी बुराई पर अच्छाई की जीत रूप मे मनाया जाती है. मान्यता है कि महिषासुर के आतंक से पूरा देवलोक त्राहिमाम हो गया था. उसके वध के लिए, मां दुर्गा को दस भुजा धारी चंडी का रूप धारण करना पड़ा. संथाल आदिवासी के बीच इसके उलट एक मान्यता है, वो यह कि महिषासुर उनके इष्ट, पूर्वज है और मां दुर्गा ने उन्हें छल से मारा है. यही कारण है कि संथाल परगना की दशहरा मेला में विजयादशमी के दिन संथाल आदिवासी पूरे सैनिक सज्जा वाले लिबास में पहुंचते हैं और सांकेतिक रूप से अपना आक्रोश व्यक्त करते हैं. उनका मानना है कि उनके इष्ट महिषासुर को छल से मारा गया है. इतना ही नहीं महिषासुर का असली नाम महिषा सोरेन है.

इनके आक्रोश से बचने के लिए मेले में खास तौर पर सुरक्षा का इंतजाम किया जाता है. संथाल परगना के बलबड्डा में पिछले दो सौ वर्षों से दशहरा मेला का आयोजन होता आया है. यहां आम लोगों के साथ-साथ आदिवासी समाज के लोग बड़ी संख्या में पहुंचते हैं. वो पहले सैनिक लिबास में प्रदर्शन करते हैं और मूर्ति विसर्जन से पहले भीड़ प्रतिमा पंडाल में ये कहते हुए पहुंचती है कि बता-बता मेरा महिषा कहां हैं. इसके बाद पुजारी उन्हें काफी समझा-बुझा कर वापस करते हैं.

पुजारी मनकी तिवारी बताते हैं कि आदिवासी समाज को यह समझाया जाता है कि उनके इष्ट का वध नहीं हुआ हैं बल्कि उन्हें मुक्ति दी गयी है. इसके बाद उन्हें माता दुर्गा का परम प्रसाद देकर वापस भेजा जाता है. गोड्डा जिला का यह प्राचीनतम मेला बलबड्डा में सदियों से चला आ रही है.

इस मेले में सबसे बेहतर प्रदर्शन करने वाले आदिवासी टोली को मेला आयोजन समिति द्वारा पुरस्कृत किया जाता है. वहीं, स्थानीय पत्रकार प्रेमशंकर मिश्रा बताते हैं कि यह परंपरा काफी पुरानी है, जिसमें सांकेतिक विरोध झलकता है. कमोबेश यह परंपरा संथाल के ज्यादातर जगहों पर पुराने पूजा पंडालों में ग्रामीण इलाकों में होती है.

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