अलवर : पहले बड़े त्योहारों पर हर घर में मिट्टी से बने दीपक को जलाया जाता था. ज्योतिषशास्त्र में भी मिट्टी के दीपक को शुभ माना गया है. हालांकि, अब अलवर में मिट्टी की भारी किल्लत है, जिसके चलते अब कुंभकारों को तीन गुना पैसे देकर मिट्टी खरीदनी पड़ रही है. इससे कुंभकारों के व्यवसाय पर भी असर पड़ा है. वहीं, ट्रेडिशनल जमाने की बात की जाए तो लोग अब अपने घरों पर मोमबत्ती और फैंसी लाइट लगाने लगे हैं. वर्तमान में शहर में मिट्टी खत्म होने के चलते अलवर के कुंभकार बढ़े हुए दामों में रामगढ़, राजगढ़, किशनगढ़ से मिट्टी मांगने को मजबूर हो रहे हैं. उनका कहना है कि अलवर की मिट्टी खास है, जिसके बने हुए आइटम देश के अलग-अलग राज्यों में जाते हैं.
मिट्टी की कमी से प्रभावित हुआ व्यवसाय : शहर के चावड़पाड़ी मोहल्ले के कुंभकार राजेंद्र ने बताया कि महंगाई की मार कुंभकारों पर भी पड़ी है. इसके चलते उनका व्यवसाय भी प्रभावित हो रहा है. उन्होंने बताया कि पहले शहर में ही आसानी से मिट्टी मिल जाती थी. कुंभकारों के परिजन खुद मिट्टी खोदकर और वो भी मुफ्त में लाते थे. उसके बाद 300 रुपए प्रति ट्रॉली की दर से मिट्टी बिकने लगी, लेकिन जैसे-जैसे महंगाई बढ़ने लगी, वैसे-वैसे मिट्टी के दाम भी बढ़ने लगे. राजेंद्र ने बताया कि त्योहारी सीजन से पहले मिट्टी की कीमत प्रति ट्रॉली एक हजार थी, लेकिन करीब तीन माह पहले एक ट्रॉली की कीमत बढ़ाकर 3 हजार हो गई. इससे कुंभकारों को अब मिट्टी खरीदने से पहले सोचना पड़ रहा है. इससे उनका व्यवसाय भी प्रभावित हुआ है.
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आर्डर ज्यादा, लेकिन महंगाई की मार के चलते नहीं हो रही पूर्ति : कुंभकार राजेंद्र ने बताया कि आज मिट्टी से बनने वाले दीपक की बहुत मांग है, लेकिन मिट्टी के दाम बढ़ने के चलते अब कुंभकार मिट्टी खरीदने से पहले नफा-नुकसान के बारे में सोच रहे हैं. उन्होंने बताया कि महंगाई की मार के चलते कुंभकार ऑर्डर होने के बावजूद भी मिट्टी के दिए तैयार नहीं कर पार हे हैं. कारण है कि हर जगह महंगाई बढ़ रही है, लेकिन कुंभकार के बने मिट्टी के दीपक सहित अन्य आइटम की कीमत में बढ़ोतरी नहीं हो रही है. ऐसे में उन्हें परिवार के भरण-पोषण में भी दिक्कत हो रही है. उन्होंने बताया कि आज के समय में लोग मिट्टी के दिए को छोड़कर मोमबत्ती व फैंसी लाइट की ओर जा रहे हैं.
अलवर की चिकनी मिट्टी से होते हैं तैयार : कुंभकार राजेंद्र ने बताया कि मिट्टी के आइटम तैयार होने वाली मिट्टी वर्तमान में अलवर जिले के राजगढ़, किशनगढ़, रामगढ़ कस्बे के सरेटा गांव से मंगाई जा रही है. इस मिट्टी की खास बात यह है कि यह रंग में काली और चिकनी होती है. उन्होंने बताया कि वैसे पीली मिट्टी भी कुंभकारों द्वारा काम में ली जाती है, लेकिन चिकनी मिट्टी को अधिक महत्व दिया जाता है. राजेंद्र ने बताया कि अलवर में तैयार हुए दीए और अन्य सामान दिल्ली, गुजरात, बंगाल, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश सहित अन्य जगहों पर बिकने के लिए जाते हैं.
ज्योतिषाचार्य पं. प्रमोद शर्मा के अनुसार मिट्टी के दीयों को प्रज्ज्वलित किए बिना कोई पूजा पूरी नहीं मानी जाती है. मिट्टी के दीये में सरसों का तेल डालकर जलाने से देवता प्रसन्न होते हैं और घर में सुख समृद्धि बनी रहती है. वहीं, मौसम परिवर्तन के साथ मच्छरों व अन्य कीड़ों के प्रकोप भी इससे कम होते हैं. दीप जलाने से अंधकार और नकारात्मक ऊर्जा दूर होती है. धार्मिक दृष्टि से इन्हें शुभ और सकारात्मक ऊर्जा के प्रवेश का माध्यम माना जाता है. मिट्टी से बने दीपक प्राकृतिक तौर पर भी शुद्ध होते हैं, जो धरती और पर्यावरण से जुड़ाव को दर्शाते हैं.
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कई प्रोसेस के बाद मिट्टी के आइटम पहुंचते हैं बाजार : कुंभकार राजेंद्र ने बताया कि मिट्टी लाने से लेकर बाजार में दीए पहुंचने तक का एक लंबा प्रोसेस है. इसमें पहले मिट्टी को खरीद कर घर लाया जाता है. उसके बाद इस मिट्टी को सुखाया जाता है. सूखने के बाद मिट्टी को फोड़ कर गलाया जाता है. फिर मिट्टी को छानकर उसे पैरों से गूंध कर तैयार करते हैं. जब ये पूरी तरीके से तैयार हो जाती है तब तक मिट्टी को चाक पर चढ़ाया जाता है. उन्होंने बताया कि उसके बाद मिट्टी के जो भी आइटम तैयार करने हैं, उस शेप में तैयार कर सूखने के लिए रख दिया जाता है. सूखने के बाद मिट्टी के तैयार आइटम को भट्टी में चढ़ा कर पकाया जाता है. बाद में इन पर रंग रोगन किया जाता है, तब जाकर यह मार्केट में बिकने के लिए तैयार होते हैं.
इलेक्ट्रिक चाक से काम हुआ आसान : कुंभकार राजेंद्र ने बताया कि पहले के समय में हाथ से चाक चलाया जाता था, जो पूरे दिन चलने के बाद भी इतना काम नहीं निकल पाता था, जितना आज इलेक्ट्रॉनिक चार्ट आने से निकल रहा है. उनका कहना है कि हालांकि पहले के समय में चाक चलने से व्यक्ति की कसरत भी हो जाती थी. लेकिन आज इलेक्ट्रॉनिक चक आने से काम में तेजी आई है.