नई दिल्ली: शिक्षा बचाओ आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक एवं शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के संस्थापक व अध्यक्ष रहे शिक्षाविद दीनानाथ बत्रा का गुरुवार को आकस्मिक निधन हो गया. वे 94 वर्ष के थे. अपना सर्वस्व शिक्षा को समर्पित करने वाले दीनानाथ बत्रा का जन्म 5 मार्च, 1930 को अविभाजित भारत के राजनपुर जिला डेरा गाजी खान (पाकिस्तान) में हुआ था.
साल 1955 से डीएवी विद्यालय डेरा बस्सी पंजाब से शिक्षकीय जीवन का आरंभ करने वाले दीनानाथ बत्रा ने 1965 से 1990 तक कुरुक्षेत्र में प्राचार्य पद का दायित्व निभाया. वो अखिल भारतीय हिंदुस्तान स्काउट एंड गाइड के अध्यक्ष पद पर भी कार्यरत रहे. साथ ही वे विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षण संस्था के महामंत्री भी रहे.
कई पुरस्कारों से सम्मानित: राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित दीनानाथ बत्रा को अनेकों संस्थाओं ने उनके शैक्षणिक कार्य के प्रति समर्पण के लिए पुरस्कृत किया. स्वामी कृष्णानंद सरस्वती सम्मान, स्वामी अखंडानंद सरस्वती सम्मान, भाऊराव देवरस सम्मान, जैसे अनेक सम्मानों से अलंकृत दीनानाथ बत्रा ने शिक्षा में भारतीयता स्थापित करने के अपने संकल्प को एक देशव्यापी आंदोलन बना दिया, जिसका परिणाम है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में भारत केंद्रित शिक्षा को आधार बनाया गया. आठ नवंबर सुबह आठ से 10 बजे तक उनके पार्थिव शरीर को अंतिम दर्शन के लिए पश्चिमी दिल्ली के नारायण विहार स्थित शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के केंद्रीय कार्यालय पर रखा जाएगा.
पाठ्य सामग्री को लेकर कोर्ट जा चुके थे: आईपी कॉलेज में सहायक प्रोफेसर डॉ. राजीव गुप्ता ने बताया कि दीनानाथ बत्रा और उनके साथी सबसे पहले वर्ष 2008 में ए.के. रामानुजन के रामायण पर लिखे प्रसिद्ध निबंध को दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास पाठ्यक्रम से हटाने की मांग लेकर दिल्ली हाईकोर्ट में गए थे. पाठ्यक्रम तैयार करने में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पुत्री उपिंदर सिंह और एक अन्य प्रोफेसर थे, जिन्होंने रामानुजन के संबंधित निबंध को शामिल किया था.
बदलनी पड़ी कई सामग्री: इसके पूर्व भी दीनानाथ बत्रा और उनके साथियों की कड़ी आपत्तियों के चलते, राष्ट्रीय शैक्षिक शोध एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) को अपनी कई किताबों की सामग्रियां बदलनी पड़ी थी. उन्होंने अमेरिका निवासी भारतीय उपमहाद्वीप की अध्येयता (स्कॉलरशिप) वेंडी डॉनिगर की किताब 'द हिंदूजः एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री' नामक किताब को भी कोर्ट जाकर भारत में किताब को प्रतिबंधित कराया था. कोर्ट के आदेश के बाद प्रकाशक को किताब की बिकी हुई प्रतियों को भी वापस लेना पड़ा था.
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