भीलवाड़ा. मेवाड़ का प्रवेश द्वार भीलवाड़ा अपनी खास परंपराओं और रीति रिवाजों के कारण मशहूर है. चाहे मलखंभ की पूजा हो या दिवाली के दूसरे दिन गधों की पूजा, या फिर शीतला सप्तमी पर जीवित शख्स को लेटाकर निकाली जाने वाली अर्थी, यहां की परंपराएं अपने आप में खास है. इन्हीं परंपराओं में शामिल है मांडल कस्बे का नाहर नृत्य, जो 400 सालों से अनवरत चला आ रहा है. एक ऐसा नृत्य जो मुगल बादशाह शाहजहां के मनोरंजन के लिए 411 साल पहले शुरू किया गया था. नृत्य की खासियत यह है कि यह साल में केवल एक बार राम और राज के सामने ही प्रस्तुत होता है. यह नृत्य आज शनिवार शाम को आयोजित होगा, जिसे देखने के लिए मांडल कस्बे में अभी से भारी भीड़ जमा हो गई है. प्रदेश के हर हिस्से से लोग इस नृत्य को देखने आते हैं.
मांडल कस्बे में मुगल बादशाह शाहजहां के मनोरंजन के लिए किया गया नाहर (शेर) नृत्य प्रतिवर्ष होली के बाद रंग तेरस की शाम को आयोजित होता है. यह मांडल कस्बे का प्रमुख त्योहार बन गया है. केवल राम और राज के सम्मुख ही इसे पेश किया जाता है. यह एक तरह का अनूठा नृत्य है, जहां पारम्परिक वाद्य यत्रों के धुनों के बीच कलाकार अपने शरीर पर कई किलो रुई लपेट कर शेर का स्वांग रचता है, इसके बाद नृत्य करता है.
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ऐसे हुई शुरुआत : दरअसल, 411 साल पहले वर्ष 1614 में मांडल गांव में मेवाड़ महाराणा अमर सिंह से संधि करने मुगल बादशाह शाहजहां उदयपुर जा रहे थे. इस दौरान शाहजहां ने मांडल में पड़ाव डाला. इस दौरान उनके मनोरंजन के लिए यह नृत्य शुरू किया गया था, जो पीढ़ी दर पीढ़ी आज भी किया जाता रहा है.
नरसिंह अवतार से संबद्ध है नाहर नृत्य : कस्बे के वरिष्ठ नागरिक दुर्गेश शर्मा बताते हैं कि नाहर नृत्य समारोह नरसिंह अवतार से संबंधित है. 1614 ईस्वी में बादशाह शाहजहां जब यहां से निकल रहे थे, तब उनके मनोरंजन के लिए नरसिंह अवतार के रूप में यह नाहर नृत्य किया गया था. उस दिन के बाद से आज तक कस्बे की बहन-बेटियां, दामाद सब गांव में आ जाते हैं. यह भाईचारे की बड़ी मिसाल है. सुबह रंग खेलते हैं और शाम को बेगम-बादशाह की सवारी निकाली जाती है. शाम को शरीर पर रूई लपेटकर कलाकारों की ओर से नाहर यानी सिंह का स्वांग रचकर नृत्य किया जाता है. रंग तेरस पर लोग खुद भी होली खेलते हैं और अपने इष्ट राधा-कृष्ण को भी खेलाते हैं. इस दौरान भजन भी गाते हैं.