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दुर्गाबाड़ी में विवाहित महिलाओं ने मनाया सिंदूर उत्सव, विसर्जन जुलूस के साथ होगा दुर्गा पूजा का समापन

जयपुर के दुर्गाबाड़ी में शनिवार को विवाहित महिलाओं ने सिंदूर उत्सव मनाया. यहां दुर्गा पूजा का समपान विसर्जन जुलूस से होगा.

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By ETV Bharat Rajasthan Team

Published : 2 hours ago

Sindoor Khela 2024 In Jaipur
विवाहित महिलाओं ने मनाया सिंदूर उत्सव (ETV Bharat Jaipur)

जयपुर: छोटी काशी में इन दिनों बंगाली संस्कृति के रंग बिखरे हुए हैं. जयपुर में बसा बंगाली समाज नवरात्र में बीते 7 दशक से दुर्गा माता का पंडाल सजाता आ रहा है जिसकी प्राण प्रतिष्ठा बंगाल की मिट्टी से बंगाली कारीगर ही करते हैं. दशहरे पर यहां सिंदूर उत्सव का आयोजन हुआ. जिसमें महिलाओं ने पहले मां दुर्गा को पान के पत्ते से सिंदूरा अर्पित किया. फिर एक दूसरे को सिंदूर लगाकर सिंदूर उत्सव की रस्म निभाई. शाम को विसर्जन जुलूस के साथ दुर्गा पूजा का समापन होगा.

जयपुर दुर्गाबाड़ी एसोसिएशन की ओर से दुर्गा पूजा आयोजन के तहत शनिवार को सिंदूर उत्सव का आयोजन किया गया. इस पारंपरिक अनुष्ठान में विवाहित महिलाओं ने मां दुर्गा को और एक-दूसरे को सिंदूर अर्पित किया. ये सिंदूर सुखी वैवाहिक जीवन और उत्सव की सामूहिक खुशी का प्रतीक है. यह समारोह भक्ति, रंगों और भावनाओं से भरपूर रहा. दुर्गाबाड़ी एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉ सुदीप्तो सेन ने बताया कि सिंदूर उत्सव का इतिहास और इसका महत्व बंगाली हिंदू संस्कृति और दुर्गा पूजा की समृद्ध परंपराओं से संबंधित है. ये प्राचीन परंपरा है. जिसका उद्देश्य समाज में महिलाओं की भूमिका को सशक्त और सम्मानित करना है. इसका धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी महत्व है.

पढ़ें: नवरात्रा की छठ पर बंगाली हिंदू समाज ने की घट स्थापना, तीन दिन तक होंगे सांस्‍कृतिक कार्यक्रम

वहीं सिंदूर उत्सव के बाद शाम को विसर्जन जुलूस निकाला जाएगा. जिसमें महिषासुर मर्दिनी और उनके दिव्य परिवार गणेश, कार्तिक, लक्ष्मी और सरस्वती की मूर्तियों को जयपुर की सड़कों पर शोभायात्रा के रूप में निकाला जाएगा. ढोल-नगाड़ों और माता के जयकारों के साथ ये जुलूस माता की विदाई का उत्सव होगा. जुलूस का समापन मूर्ति के विसर्जन के साथ होगा, जो मां दुर्गा की उनके दिव्य लोक में वापसी का प्रतीक है.

पढ़ें: डूंगरपुरः दुर्गा पूजा महोत्सव के समापन पर निकली शोभा यात्रा, गूंजे माता के जयकारे

आपको बता दें कि दुर्गाबाड़ी में 1956 से दुर्गा पूजा का आयोजन किया जा रहा है. बंगाल से गंगा मैया की मिट्टी से दुर्गा माता माता का शेर, राक्षस, दाएं तरफ लक्ष्मी और गणेश, जबकि बाएं तरफ सरस्वती और कार्तिकेय की प्रतिमा बनाकर विराजमान कराया जाता है. इसके साथ ही इन प्रतिमाओं के बैकग्राउंड में भगवान शिव का स्वरूप उकेरा जाता है. इन्हें बनाने का काम 2 से 3 महीने पहले से ही शुरू हो जाता है. इसे बनाने वाले कारीगर भी कोलकाता से आते हैं और नवरात्र में छठ से उत्सव का दौर शुरू हो जाता है.

जयपुर: छोटी काशी में इन दिनों बंगाली संस्कृति के रंग बिखरे हुए हैं. जयपुर में बसा बंगाली समाज नवरात्र में बीते 7 दशक से दुर्गा माता का पंडाल सजाता आ रहा है जिसकी प्राण प्रतिष्ठा बंगाल की मिट्टी से बंगाली कारीगर ही करते हैं. दशहरे पर यहां सिंदूर उत्सव का आयोजन हुआ. जिसमें महिलाओं ने पहले मां दुर्गा को पान के पत्ते से सिंदूरा अर्पित किया. फिर एक दूसरे को सिंदूर लगाकर सिंदूर उत्सव की रस्म निभाई. शाम को विसर्जन जुलूस के साथ दुर्गा पूजा का समापन होगा.

जयपुर दुर्गाबाड़ी एसोसिएशन की ओर से दुर्गा पूजा आयोजन के तहत शनिवार को सिंदूर उत्सव का आयोजन किया गया. इस पारंपरिक अनुष्ठान में विवाहित महिलाओं ने मां दुर्गा को और एक-दूसरे को सिंदूर अर्पित किया. ये सिंदूर सुखी वैवाहिक जीवन और उत्सव की सामूहिक खुशी का प्रतीक है. यह समारोह भक्ति, रंगों और भावनाओं से भरपूर रहा. दुर्गाबाड़ी एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉ सुदीप्तो सेन ने बताया कि सिंदूर उत्सव का इतिहास और इसका महत्व बंगाली हिंदू संस्कृति और दुर्गा पूजा की समृद्ध परंपराओं से संबंधित है. ये प्राचीन परंपरा है. जिसका उद्देश्य समाज में महिलाओं की भूमिका को सशक्त और सम्मानित करना है. इसका धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी महत्व है.

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वहीं सिंदूर उत्सव के बाद शाम को विसर्जन जुलूस निकाला जाएगा. जिसमें महिषासुर मर्दिनी और उनके दिव्य परिवार गणेश, कार्तिक, लक्ष्मी और सरस्वती की मूर्तियों को जयपुर की सड़कों पर शोभायात्रा के रूप में निकाला जाएगा. ढोल-नगाड़ों और माता के जयकारों के साथ ये जुलूस माता की विदाई का उत्सव होगा. जुलूस का समापन मूर्ति के विसर्जन के साथ होगा, जो मां दुर्गा की उनके दिव्य लोक में वापसी का प्रतीक है.

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आपको बता दें कि दुर्गाबाड़ी में 1956 से दुर्गा पूजा का आयोजन किया जा रहा है. बंगाल से गंगा मैया की मिट्टी से दुर्गा माता माता का शेर, राक्षस, दाएं तरफ लक्ष्मी और गणेश, जबकि बाएं तरफ सरस्वती और कार्तिकेय की प्रतिमा बनाकर विराजमान कराया जाता है. इसके साथ ही इन प्रतिमाओं के बैकग्राउंड में भगवान शिव का स्वरूप उकेरा जाता है. इन्हें बनाने का काम 2 से 3 महीने पहले से ही शुरू हो जाता है. इसे बनाने वाले कारीगर भी कोलकाता से आते हैं और नवरात्र में छठ से उत्सव का दौर शुरू हो जाता है.

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