सरगुजा: चुनाव चाहे पंचायत का हो विधानसभा का हो या फिर लोकसभा का. चुनावी लड़ाई और चुनावी चर्चा दोनों बीजेपी और कांग्रेस केंद्रित रही है. छत्तीसगढ़ की कुछ सीटों पर जरूर तीसरे मोर्चे का दखल नजर आया है. आदिवासी बहुल सरगुजा सीट पर निर्दलीय प्रत्याशियों पर कभी चर्चा नहीं होती. जिन निर्दलीय प्रत्याशियों पर चर्चा नहीं होती वो भले ही चुनाव नहीं जीत पाएं. चुनाव में वोट काटने में इनकी भूमिका बड़ी होती है. चुनाव में अगर मुकाबला कांटे की टक्कर का हो तो फिर इन वोटकटवा प्रत्याशियों की अहमियत और बढ़ जाती है. कभी कभी तो ये हार और जीत में बड़ा फैक्टर भी साबित होते हैं. बड़ी पार्टियों को हराने में भी ये बड़ी भूमिका अदा करते हैं.
वोटकटवा बिगाड़ते हैं खेल: बीते लोकसभा चुनाव 2019 के परिणामों की बात करें तो भाजपा ये चुनाव 1 लाख 57 हजार मतों से जीता था. मोदी लहर थी जीत का अंतर बड़ा था. मोदी लहर के चलते वोट काटने वाले प्रत्याशियों पर चिंतन नहीं हुआ. इस चुनाव में नोटा को करीब 29 हजार, गोंगपा को 24 हजार 600, बसपा को 18 हजार वोट मिले थे. उरांव और गोंड समाज के 6 उम्मीदवारों ने 38 हजार से अधिक वोट पाये.
निर्दलीयों पर नजर: 2014 लोकसभा चुनाव की बात करें तो यह चुनाव भी भाजपा ने करीब 1 लाख 47 हजार मतों से जीता था. मोदी लहर का ये पहला चुनाव था. हार का अंतर बड़ा था, लेकिन यहां बसपा को 21 हजार, एक निर्दलीय को 15500, वामपंथी उम्मीदवार को 15 हजार मत और गोंगपा को 14 हजार मत मिले. करीब 8 अन्य प्रत्याशियों ने मिलकर 65 हजार वोट प्राप्त किये 2014 के लोकसभा चुनाव में पाए.
2009 में क्या रहा हाल: 2009 के लोकसभा चुनाव में सरगुजा लोकसभा सीट पर भाजपा ने करीब 1 लाख 60 हजार मतों से चुनाव जीता. इस चुनाव में बसपा को करीब 21 हजार, एक निर्दलीय उम्मीदवार को 20 हजार, वामपंथी पार्टी को 11 हजार मत मिले. चुनाव में झारखंड मुक्ति मोर्चा ने भी प्रत्याशी उतारा था और उसे 15 हजार वोट मिले. अन्य उम्मीदवारों ने कुल 72 हजार से अधिक मत प्राप्त किये. लगभग हर चुनाव में एक बड़ा वोट प्रतिशत निर्दलीय और छोटे स्थानीय दलों के प्रत्याशी हासिल कर रहे हैं. हार का अंतर बड़ा था तो फर्क नहीं पड़ा. छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद सरगुजा लोकसभा सीट पर बीजेपी काबिज रही है. पर पहले सरगुजा सीट कांग्रेस की परंपरागत सीट रह चुकी है. कांग्रेस के वोट डायवर्ट हुए और नुकसान जो हुआ वो सबके सामने है.
क्या है पॉलिटिकल पंडितों की राय: इस बार राजनीतिक पंडितों का मानना है की सरगुजा में कांटे की टक्कर है. पहले जैसा एकतरफा चुनाव नहीं होने वाला है. मोदी लहर उतनी नहीं है. कांग्रेस से भाजपा में गए नेता को भाजपा ने प्रत्याशी बनाया है. कांग्रेस ने एक युवा महिला को मैदान में उतारा है जिसका फायदा उसे मिल सकता है. अगर मुकाबला टक्कर का हुआ तो वोट काटने वाले प्रत्याशी बड़ा असर चुनाव नतीजों पर डाल सकते हैं. पिछले चुनाव के आंकड़ों को देखें तो 2019 में करीब 80 हजार, 2014 में 1 लाख तीस हजार और 2009 के चुनाव में 1 लाख 40 हजार वोट इन लोगों ने हासिल किए जिनको हम एक तरह से वोटकटवा प्रत्याशी मानते हैं.
"लोकतंत्र में चुनाव लड़ने को सभी स्वतंत्र हैं, ये सभी अपने आप को मजबूत मानकर ही मैदान में उतरते हैं. ऐसे प्रत्याशी अगर विधानसभा चुनाव में 5 हजार के लेकर 10 हजार वोट भी पा जाते हैं तो चुनाव में असर पड़ता है. इस बार 10 प्रत्याशी मैदान में हैं. नोटा भी है. पिछले 2019 का चुनाव देखें तो नोटा तीसरे स्थान पर था. चौथे स्थान पर एक अन्य राजनीतिक दल का प्रत्याशी था. लेकिन अगर इस बार की बात करें तो ज्यादा प्रभाव तो नहीं डालेंगे लेकिन अभी सरगुजा में माहौल कसा हुआ है. बीजेपी और कांग्रेस में से कौन जीतेगा कहना मुश्किल है. ऐसी स्थिति में अगर कोई तीसरी पार्टी या वोट कटवा प्रत्याशी 5 हजार 10 हजार वोट पा जाता है तो दोनों पार्टियों को नुकसान हो सकता है. लोकसभा चुनाव में सरगुजा में ऐसा कभी नहीं हुआ कि कोई एक निर्दलीय या क्षेत्रीय दल का प्रत्याशी लड़ा हो और चुनाव पर असर डाल गया हो''. - अनंगपाल दीक्षित,पॉलिटिकल एक्सपर्ट
जातिगत समीकरण का भी पड़ेगा असर: अनंगपाल दीक्षित का मानना है कि "जातिगत समीकरण को देखें तो कहा जाता है की उरांव समाज कांग्रेस के साथ है. पर कांग्रेस के अलावा जब कोई और उरांव समाज से मैदान में उतरता है तो वो उस समाज का वोट हासिल करता है. इससे कांग्रेस को नुकसान हो सकता है. इसी तरह से गोंड प्रत्याशी खड़ा होता है तो वो उस समाज का वोट काटता है. कांग्रेस ने इस बार गोंड समाज के प्रत्याशी को उतारा है. कांग्रेस को इससे नुकसान होता दिखाई दे रहा है''.