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माओवादियों में कहां की लीडरशिप रही हावी, अब क्या हैं हालात, यहां जानिए - MAOISTS IN JHARKHAND

2025 में झारखंड में नक्सलियों का पूरी तरह से सफाया हो सकता है. यहां बिहार के माओवादियों की लीडरशिप अब खत्म हो चुकी है.

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By ETV Bharat Jharkhand Team

Published : Jan 22, 2025, 6:03 PM IST

पलामू: केंद्रीय गृह मंत्रालय का दावा है कि 2025 के अंत तक झारखंड में पूरी तरह से नक्सलवाद का सफाया हो जाएगा. इसकी जमीनी हकीकत देखें तो यह काफी हद तक सही साबित हो रहा है. हमारे सुरक्षाबल झारखंड को पूरी तरह से नक्सलियों से मुक्त बनाने की राह पर हैं. प्रतिबंधित नक्सली संगठन भाकपा माओवादी झारखंड और बिहार में अंतिम सांसे गिन रहा है. माओवादी अपनी पूरी ताकत अपने इस्टर्न रीजनल ब्यूरो के मुख्यालय (सारंडा) को बचाने में लगा रहे हैं.

माओवादियों के पास बिहार के इलाके की लीडरशिप खत्म हो गई है. इनके पोलित ब्यूरो या सेंट्रल कमेटी में बिहार का कोई भी टॉप लीडर नहीं है. एक वक्त था जब बिहार के लीडरशिप में पूरे उत्तर भारत में माओवादी गतिविधि का संचालन होता था. फिलहाल इनके ईस्ट रीजनल ब्यूरो की कमान मिसिर बेसरा के पास है. माओवादियों के सांगठनिक ढांचे में बिहार के कमांडरों का दबदबा रहा है. बिहार के लीडरशिप में ही माओवादियों ने छकरबंधा में यूनिफाइड कमांड बनाया था और झारखंड के बूढ़ापहाड़ पर ट्रेनिंग सेंटर बनाया था.

कई लीडर पकड़े गए या मारे गए. लेकिन कई बेइमान भी निकले जिसका असर संगठन और लीडरशीप पर भी पड़ा था. बिहार का लीडरशिप बेहद ही कमजोर हुआ है, खत्म की बात कहना मुश्किल है, लेकिन जो हालात हैं अभी ठीक नहीं है. 2004 में हुई बैठक में 21 पोलित ब्यूरो सदस्य चुने गए थे. - सुरेंद्र यादव, पूर्व टॉप माओवादी

2004 में एमसीसी और पीडब्ल्यूजी के विलय के बढ़ा था कद

2004 में पूरे देश भर में नक्सल संगठनों का आपस में विलय हुआ. उसी दौरान देश में माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) और पीपुल्स वार ग्रुप (पीडब्ल्यूजी) सबसे ताकतवर संगठन था. दोनों संगठन बिहार के इलाके में सक्रिय थे. पीडब्ल्यूजी छत्तीसगढ़ और दक्षिण भारत के राज्यों में ज्यादा मजबूत था. वहीं एमसीसी बिहार के इलाके में अधिक मजबूत था. 2004 में सारंडा के इलाके में माओवादियों की बड़ी बैठक हुई थी, इसी बैठक में नक्सल संगठनों का विलय हुआ. इसी बैठक में 71 पुलिस ब्यूरो सदस्य चुने गए. जिनमे 21 पोलित ब्यूरो सदस्य बिहार के इलाके से संबंधित थे. 2004 के बाद से ही नक्सल संगठन में बिहार के लीडरशिप का प्रभाव देश के अन्य इलाकों में पहुंचा था. पीडब्लूजी से देव कुमार सिंह उर्फ अरविंद जी, नारायण सान्याल, अमिताभ बागची, कन्हाई चटर्जी, एमसीसी से किशन जी, प्रशांत बोस, मिसिर बेसरा,प्रमोद मिश्रा, विजय आर्या, जगदीश मास्टर बड़े नेता थे. सभी को बिहार, झारखंड और उत्तरी छत्तीसगढ़ की कमान सौंपी गई थी.

बिहार के इलाके की लीडरशिप मजबूत रही थी. जिस दौरान माओवादी संगठनों का विलय हो रहा था, उसे दौरान भी जनरल और एरिया कमेटी में लीडरशिप का का दबदबा रहा. कमजोर होने या खत्म होने में कई कारण हैं. कई ऐसे कारण है जो सार्वजनिक नहीं हुआ है या सार्वजनिक कभी नहीं होगा. - राजेश यादव, पूर्व जोनल कमांडर

कैसे खत्म हुआ बिहार की लीडरशिप का दबदबा

2008-09 के बाद बिहार के लीडरशिप पर पुलिस और सुरक्षाबलों की निगरानी शुरू हुई थी. एक-एक करके बड़े लीडर पकड़े गए या विभिन्न मुठभेड़ में मारे गए. 2018 में बूढ़ापहाड़ के इलाके में बिहार के जहानाबाद के रहने वाले देव कुमार सिंह उर्फ अरविंद की मौत हुई थी. अरविंद बिहार के लीडरशिप का एक बड़ा चेहरा था. मौत के बाद ईआरबी सुप्रीमो बनाने के लिए प्रमोद मिश्रा के नाम की चर्चा हुई थी लेकिन माओवादियों के बैठक में इस पर मुहर नहीं लगी.

जोनल और एरिया कमेटी में भी बिहार की लीडरशिप का था दबदबा

2013-14 तक प्रतिबंधित नक्सली संगठन भाकपा माओवादी के जोनल और एरिया कमेटी में बिहार के लीडरशिप का दबदबा था. उस दौरान झारखंड में 350 से भी अधिक इनामी नक्सली हुआ करते थे. जिसमें सबसे अधिक संख्या बिहार के माओवादियों की थी. पलामू जोन में 70 से अधिक नक्सलियों पर इनाम था. जिसमें 40 से अधिक बिहार के थे. बिहार के लीडरशिप में ही पलामू गढ़वा चतरा लातेहार गुमला लोहरदगा सिमडेगा के इलाके में हिंसक घटनाओं को अंजाम दिया जाता था. आज पूरे पलामू प्रमंडल में डेढ़ दर्जन इनामी माओवादी हैं, जिनमें सिर्फ तीन ही बिहार के इलाके के हैं.

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पलामू: केंद्रीय गृह मंत्रालय का दावा है कि 2025 के अंत तक झारखंड में पूरी तरह से नक्सलवाद का सफाया हो जाएगा. इसकी जमीनी हकीकत देखें तो यह काफी हद तक सही साबित हो रहा है. हमारे सुरक्षाबल झारखंड को पूरी तरह से नक्सलियों से मुक्त बनाने की राह पर हैं. प्रतिबंधित नक्सली संगठन भाकपा माओवादी झारखंड और बिहार में अंतिम सांसे गिन रहा है. माओवादी अपनी पूरी ताकत अपने इस्टर्न रीजनल ब्यूरो के मुख्यालय (सारंडा) को बचाने में लगा रहे हैं.

माओवादियों के पास बिहार के इलाके की लीडरशिप खत्म हो गई है. इनके पोलित ब्यूरो या सेंट्रल कमेटी में बिहार का कोई भी टॉप लीडर नहीं है. एक वक्त था जब बिहार के लीडरशिप में पूरे उत्तर भारत में माओवादी गतिविधि का संचालन होता था. फिलहाल इनके ईस्ट रीजनल ब्यूरो की कमान मिसिर बेसरा के पास है. माओवादियों के सांगठनिक ढांचे में बिहार के कमांडरों का दबदबा रहा है. बिहार के लीडरशिप में ही माओवादियों ने छकरबंधा में यूनिफाइड कमांड बनाया था और झारखंड के बूढ़ापहाड़ पर ट्रेनिंग सेंटर बनाया था.

कई लीडर पकड़े गए या मारे गए. लेकिन कई बेइमान भी निकले जिसका असर संगठन और लीडरशीप पर भी पड़ा था. बिहार का लीडरशिप बेहद ही कमजोर हुआ है, खत्म की बात कहना मुश्किल है, लेकिन जो हालात हैं अभी ठीक नहीं है. 2004 में हुई बैठक में 21 पोलित ब्यूरो सदस्य चुने गए थे. - सुरेंद्र यादव, पूर्व टॉप माओवादी

2004 में एमसीसी और पीडब्ल्यूजी के विलय के बढ़ा था कद

2004 में पूरे देश भर में नक्सल संगठनों का आपस में विलय हुआ. उसी दौरान देश में माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) और पीपुल्स वार ग्रुप (पीडब्ल्यूजी) सबसे ताकतवर संगठन था. दोनों संगठन बिहार के इलाके में सक्रिय थे. पीडब्ल्यूजी छत्तीसगढ़ और दक्षिण भारत के राज्यों में ज्यादा मजबूत था. वहीं एमसीसी बिहार के इलाके में अधिक मजबूत था. 2004 में सारंडा के इलाके में माओवादियों की बड़ी बैठक हुई थी, इसी बैठक में नक्सल संगठनों का विलय हुआ. इसी बैठक में 71 पुलिस ब्यूरो सदस्य चुने गए. जिनमे 21 पोलित ब्यूरो सदस्य बिहार के इलाके से संबंधित थे. 2004 के बाद से ही नक्सल संगठन में बिहार के लीडरशिप का प्रभाव देश के अन्य इलाकों में पहुंचा था. पीडब्लूजी से देव कुमार सिंह उर्फ अरविंद जी, नारायण सान्याल, अमिताभ बागची, कन्हाई चटर्जी, एमसीसी से किशन जी, प्रशांत बोस, मिसिर बेसरा,प्रमोद मिश्रा, विजय आर्या, जगदीश मास्टर बड़े नेता थे. सभी को बिहार, झारखंड और उत्तरी छत्तीसगढ़ की कमान सौंपी गई थी.

बिहार के इलाके की लीडरशिप मजबूत रही थी. जिस दौरान माओवादी संगठनों का विलय हो रहा था, उसे दौरान भी जनरल और एरिया कमेटी में लीडरशिप का का दबदबा रहा. कमजोर होने या खत्म होने में कई कारण हैं. कई ऐसे कारण है जो सार्वजनिक नहीं हुआ है या सार्वजनिक कभी नहीं होगा. - राजेश यादव, पूर्व जोनल कमांडर

कैसे खत्म हुआ बिहार की लीडरशिप का दबदबा

2008-09 के बाद बिहार के लीडरशिप पर पुलिस और सुरक्षाबलों की निगरानी शुरू हुई थी. एक-एक करके बड़े लीडर पकड़े गए या विभिन्न मुठभेड़ में मारे गए. 2018 में बूढ़ापहाड़ के इलाके में बिहार के जहानाबाद के रहने वाले देव कुमार सिंह उर्फ अरविंद की मौत हुई थी. अरविंद बिहार के लीडरशिप का एक बड़ा चेहरा था. मौत के बाद ईआरबी सुप्रीमो बनाने के लिए प्रमोद मिश्रा के नाम की चर्चा हुई थी लेकिन माओवादियों के बैठक में इस पर मुहर नहीं लगी.

जोनल और एरिया कमेटी में भी बिहार की लीडरशिप का था दबदबा

2013-14 तक प्रतिबंधित नक्सली संगठन भाकपा माओवादी के जोनल और एरिया कमेटी में बिहार के लीडरशिप का दबदबा था. उस दौरान झारखंड में 350 से भी अधिक इनामी नक्सली हुआ करते थे. जिसमें सबसे अधिक संख्या बिहार के माओवादियों की थी. पलामू जोन में 70 से अधिक नक्सलियों पर इनाम था. जिसमें 40 से अधिक बिहार के थे. बिहार के लीडरशिप में ही पलामू गढ़वा चतरा लातेहार गुमला लोहरदगा सिमडेगा के इलाके में हिंसक घटनाओं को अंजाम दिया जाता था. आज पूरे पलामू प्रमंडल में डेढ़ दर्जन इनामी माओवादी हैं, जिनमें सिर्फ तीन ही बिहार के इलाके के हैं.

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