देहरादून: देश की आजादी में भी अखबारों और पत्रकारों की एक बड़ी भूमिका रही है. क्योंकि, उस दौरान जनता को जागरूक करने के लिए अखबारों ने एक बड़ी भूमिका निभाई थी. इतना ही नहीं ब्रिटिश सरकार की ओर से अखबारों और पत्रकारों पर लगाम लगाने को लेकर कई बड़े फरमान भी जारी किए गए. कई लोगों को जेल भेजा गया. तमाम अखबारों को बंद कर दिया गया. बावजूद इसके किसी न किसी तरीके से अखबारों के जरिए लोगों को आजादी के प्रति जागरूक किया गया.
जिन लोगों के नाम अखबारों में छपे, उन्हें घोषित किया गया राज्य आंदोलनकारी: इसी तरह उत्तराखंड राज्य गठन के आंदोलन के दौरान भी अखबारों और पत्रकारों की एक बड़ी भूमिका रही. पर्वतीय क्षेत्र में सूचनाओं का आदान-प्रदान और आंदोलन की हवा को तेज करने में अखबारों ने एक बड़ी भूमिका निभाई. क्योंकि, आज भी अखबारों को एक ऑथेंटिक दस्तावेज (प्रमाणित) माना जाता है. इसी तरह आंदोलन के दौरान जिन लोगों का नाम अखबारों में छपा, उन्हें उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी घोषित किया गया.
1842 से शुरू हुआ उत्तराखंड में पत्रकारिता का सफर: उत्तराखंड में पत्रकारिता का एक गौरवपूर्ण अतीत रहा है. दरअसल, 1780 में जेम्स ऑगस्टस हिक्की का कलकत्ता से प्रकाशित 'बंगाल गजट एंड कलकत्ता जनरल एडवरटाइजर' को भारत का पहला मुद्रित समाचार पत्र कहा जाता है. बात उत्तराखंड की करें तो साल 1842 में उत्तराखंड की पत्रकारिता का सफर 'द हिल्स' से शुरू हुई थी.
'द हिल्स' उत्तराखंड का पहला अखबार माना जाता है. अंग्रेजी भाषा में शुरू हुई 'द हिल्स' साप्ताहिक अखबार का प्रकाशन मसूरी से हुआ था, लेकिन कुछ साल बाद ही यानी 1850 में द हिल्स अखबार का प्रकाशन बंद हो गया. इसके बाद साल 1860 में द हिल्स अखबार एक बार फिर नए स्वरूप के साथ सामने आया, लेकिन वो भी ज्यादा दिन तक नहीं चल सका और 1865 में दम तोड़ दिया.
पहाड़ों की रानी मसूरी रही उत्तराखंड पत्रकारिता की जननी: उत्तराखंड की पहली अखबार 'द हिल्स' के आने के बाद अखबार जगत में एक नई लहर सी दौड़ उठी. साल 1870 में 'द मसूरी एक्सचेंज एडवरटाइजर' अखबार की शुरुआत मसूरी से हुई. इसके बाद फिर मसूरी से ही साल 1872 में कोलमैन का 'द मसूरी सीजन' का प्रकाशन शुरू हो गया. फिर साल 1875 में जॉन नार्थम ने मसूरी से 'द हिमालयन क्रोनिकल' अखबार का प्रकाशन किया.
इसके बाद अखबार का सिलसिला धीरे-धीरे बढ़ने लगा. साल 1884 के दौरान मसूरी प्रेस से विज्ञापन पत्रक 'द चमेलियन' का प्रकाशन भी शुरू हुआ. ऐसे में पहाड़ों की रानी मसूरी एक तरह से उत्तराखंड की पत्रकारिता की जननी रही. क्योंकि, शुरुआती दौर में पहला अखबार मसूरी में ही छपा और एक के बाद एक अखबारों का प्रकाशन मसूरी से होने लगा.
उत्तराखंड का पहला स्वदेशी अखबार था 'समय विनोद': भारत का पहला हिंदी अखबार 30 मई 1826 को 'उदन्त मार्तण्ड' प्रकाशित हुआ था. इसी तरह उत्तराखंड का पहला स्वदेशी भाषा का अखबार साल 1867 में 'समय विनोद' अखबार नैनीताल से प्रकाशित हुआ था, जो कि उर्दू के साथ ही हिन्दी में भी छपता था. फिर इसके करीब एक साल बाद यानी 1868 में 'अल्मोड़ा अखबार' निकला था, जिसके मुद्रक, प्रकाशक और संपादक पंडित जय दत्त जोशी थे.
अल्मोड़ा अखबार पाक्षिक था और हिन्दी के साथ ही उर्दू में भी निकलता था. जबकि, नैनीताल से प्रकाशित 'समय विनोद' के शुरू में मात्र 32 ग्राहक थे. जिनमें से 17 भारतीय और 15 यूरोपीय थे. बाद में इसके ग्राहकों की संख्या 225 तक पहुंच गई थी, लेकिन करीब 10 साल बाद यानी 1877 में समय विनोद अखबार बंद हो गया.
स्वतंत्रता संग्राम में उत्तराखंड के अखबारों की भूमिका: देश में पत्रकारिता का बीज जैसे ही अंकुरित होना शुरू हुआ. उसके साथ ही उत्तराखंड में भी उसका जन्म और विकास शुरू हो गया. शुरुआती अंग्रेज संपादकों के बाद भारत में मोहनदास करमचंद गांधी, जीए नतेशन (इण्डियन रिव्यू), बाल गंगाधर तिलक (केसरी) समेत अन्य ने पत्रकारिता को हथियार बनाकर मुकाबला किया.
इसी तरह उत्तराखंड में स्थानीय आंदोलनों और राष्ट्रीय संग्राम में स्थानीय पत्रकारिता था, जो उत्तराखंड निवासियों को स्थानीय और राष्ट्रीय में कम से कम दो खुली खिड़कियां मुहैया कराता था. इसके अलावा, 'अल्मोड़ा अखबार', 'गढ़वाल समाचार', 'गढ़वाली', 'शक्ति', 'तरुण कुमाऊं', 'स्वाधीन प्रजा', 'कर्मभूमि', 'जागृत जनता' और 'युगवाणी' ने अहम भूमिका निभाई थी.
उत्तराखंड पृथक राज्य आंदोलन में प्रेस की रही बड़ी भूमिका: उत्तराखंड राज्य का गठन 9 नंबर 2000 को हुआ था, लेकिन एक अलग पहाड़ी राज्य की मांग को लेकर आंदोलन इस पर्वतीय क्षेत्र में सालों पहले शुरू हो गई थी. वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत बताते हैं कि शुरुआती दौर में यह आंदोलन सीमित रही, लेकिन जैसे-जैसे इस आंदोलन में प्रेस की भूमिका बढ़ती गई, उसी क्रम में इस आंदोलन ने एक बड़ा रूप ले लिया. आंदोलन के दौरान सूचनाओं के आदान-प्रदान का एक मुख्य साधन अखबार ही हुआ करते थे.
आंदोलन की आग को बढ़ाने और लोगों को एकजुट करने में भी अखबारों ने एक बड़ी भूमिका निभाई. अखबारों के जरिए इस पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को एकजुट किया और एकजुट होकर लोगों ने एक बड़े आंदोलन की रूपरेखा तैयार की. उत्तराखंड अलग राज्य की आंदोलन के दौरान जब मुजफ्फरनगर तिराहा कांड हुआ था, उस दौरान भी प्रेस की भूमिका के चलते न सिर्फ देश के तमाम मीडिया जगत के लोग इस घटना को कवर करने पहुंचे थे. बल्कि, विदेशों की मीडिया भी इस आंदोलन में बड़ी भूमिका निभाई थी.
प्रिंटिंग प्रेस से निकली पत्रकारिता आज अंतरिक्ष तक पहुंच गई: वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत की मानें तो साल दर साल पत्रकारिता का स्वरूप बदलता जा रहा है. एक ऐसा दौर भी था, जब पत्रकारिता प्रिंटिंग प्रेस से निकलती थी. एक दिन बाद या फिर तीन दिन बाद लोगों को सटीक सूचनाओं अखबारों के जरिए मिलती थी, लेकिन आज के इस आधुनिक युग में किसी भी घटना या सूचना कोई अहम जानकारी चंद मिनट में लोगों तक पहुंच जाती है. या फिर यूं कहें कि आज की पत्रकारिता धरती से हजारों करोड़ किलोमीटर दूर अंतरिक्ष से निकलती है.
सोशल मीडिया के इस दौर में सूचनाओं के आदान-प्रदान में न सिर्फ काफी सहूलियत हो गई है. बल्कि, तत्काल लोगों को इसकी जानकारियां मिल जाती है, लेकिन एक बड़ी समस्या वर्तमान समय में यही है कि अगर कोई गलत सूचना सोशल मीडिया के जरिए प्रसारित होती है तो उस पर काबू पाना नामुमकिन सा हो जाता है. क्योंकि, जब तक गलत सूचना की भनक लगती है, तब तक वो सूचना करोड़ों लोगों तक पहुंच चुकी होती है.
हर साल 3 मई को मनाया जाता है विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस: हर साल दुनियाभर में 3 मई को विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस (World Press Freedom Day) मनाया जाता है. जिसका मकसद यही है कि दुनियाभर में मीडिया की स्वतंत्रता और उसकी आवाज के महत्व को समझने व प्रेस की भूमिका का समर्थन किया जा सके.
विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस को लेकर 1991 में यूनेस्को की संसद ने पत्रकारों और मीडिया संस्थानों की स्वतंत्रता व आजादी के लिए लड़ाई लड़ने की आवश्यकता पर चर्चा किया था. इसके बाद साल 1993 में यूनेस्को की संसद ने विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस की घोषणा की. जिसके बाद 3 मई 1994 को पहली बार विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस मनाया गया. इसके बाद हर साल 3 मई को विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है.
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