झाबुआ। हर अंचल में त्योहार मनाने की अपनी परंपरा है. कुछ परंपराओं को लोग भले ही अंधविश्वास मानते हों लेकिन ऐसे लोगों के आनंद मनाने का तरीका अपना है. झाबुआ आदिवासी अंचल में होली मनाने का अजीब तरीका है. आदिवासी अंचल में ये अजीब रिवाज है. ये रिवाज अब परंपरा का रूप ले चुका है. यह रस्म कब शुरू हुई और क्यों ? इस बारे में कोई नहीं जानता लेकिन आदिवासी सदियों से इस परंपरा को निभाते आ रहे हैं. धुलेंडी पर्व की शाम को अंचलवासियों द्वारा गल देवता घूमकर अपनी-अपनी मन्नतें उतारने की परंपरा है.
बीमारी ठीक होने का दावा करते हैं लोग
आदिवासियों की मान्यता है कि इस तरीके से होली मनाने से बीमार बच्चा भी ठीक हो जाता है. बच्चा नहीं होने पर हो जाता है. घर में अन्य समस्याएं हैं तो खत्म हो जाती हैं. बस आपको होली पर्व पर गल घुमाना होता है. बताते हैं कि मन्नतधारी ही गल पर घूमते हैं. होलिका दहन के दूसरे दिन यहां मेला लगता है. मन्नत के अनुसार लोग रंग न खेलकर गल बाबा की पूजा करने जुटते है. लोगों को कई फीट ऊंचाई पर बांधकर लटकाया जाता है, फिर घुमाया जाता है. यह परंपरा काफी पुरानी बताई जाती है.
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50 फीट ऊपर बांधकर लटकाकर घुमाते हैं
गल एक तरह का टॉवर होता है, जिसकी ऊंचाई करीब 50 फीट होती है. इस टॉवर पर एक व्यक्ति बैठा होता है. वहीं, एक आड़ा बांस बंधा होता है. जिस पर मन्नतधारी व्यक्ति को कपड़े से बांध दिया जाता है, फिर नीचे से एक व्यक्ति रस्सी से उस बांस को गोल गोल घुमाता है. इस तरह मन्नत मांगने वाला शख्स ऊंचाई पर घूमने लगता है. मान्यता है कि गल बाबा की कृपा से वो जो मन्नत लेते हैं, वो पूरी हो जाती है. अपनी संस्कृति और परंपराओं के प्रति सदैव तत्पर रहने वाले आदिवासी वर्ग के लिए होली सबसे बड़ा त्यौहार है.