ETV Bharat / state

Women's Day Special: ईंट भट्ठे की राख से भरे हाथ को जब मिला आशा का सहारा तो बदल गई जिंदगी, जानिए फुटबॉलर बिरसमनी की पूरी कहानी

Story of Ranchi footballer Birsamani Dhanwar. ईंट भट्ठे की राख से शुरू हुई जिंदगी को एक सहारा मिला और वह आज अपने जैसी कई लड़कियों की सहारा बन रही है. ये कहानी है रांची की फुटबॉलर बिरसमनी की. कहानी संघर्ष की है, जिसमें एक सामाजिक संस्था का भी अहम रोल है. पढ़िए, बिरसमनी की संघर्ष की पूरी कहानी.

footballer Birsamani Dhanwar
footballer Birsamani Dhanwar
author img

By ETV Bharat Jharkhand Team

Published : Mar 4, 2024, 11:47 AM IST

Updated : Mar 8, 2024, 6:23 AM IST

रांची की फुटबॉलर बिरसमनी के संघर्ष की कहानी

रांची: रोटी की खातिर अपने माता-पिता के साथ पलायन करने को मजबूर खूंटी की बिरसमनी की कहानी किसी फिल्म से कम नहीं है. जब इस लड़की ने ईटीवी भारत को अपने बचपन का स्याह सच बताया तो ये वाकई किसी दर्द भरी कहानी से कम नहीं था. जिल उम्र में उसे आंगन में खेलना था, उस उम्र में उसके छोटे से हाथ ईंट भट्ठे में अपने माता-पिता की मदद करते रहे. जिस समय उसे स्कूल जाना चाहिए था वह समय ईंट भट्ठे पर बीता. सामाजिक संस्था आशा की नजर उस पर पड़ी, जिसने बिरसमनी की जिंदगी ही बदल डाली.

इस संस्था द्वारा छह साल की उम्र में बंगाल के हुबली से बचाकर रांची लाई गई बिरसमनी आज सफलता की नई लकीर खींचने की कोशिश कर रही है. 2011 में हुबली के ईंट भट्ठे से बचाई गई इस लड़की के लिए रांची के भुसूर स्थित आशा संस्था ही उसके घर का आंगन है. समय के साथ बड़े होते हुए बिरसमनी धनवार ने 2020 में कस्तूरबा प्लस टू हाई स्कूल घासीदास से 65% अंकों के साथ मैट्रिक पास की और फिर उसी स्कूल से 69.4% अंकों के साथ इंटरमीडिएट पूरा किया.

रांची के जेएन कॉलेज से बीए ज्योग्राफी में ग्रेजुएशन कर रही बिरसमानी आज पढ़ाई के साथ-साथ फुटबॉल में भी नाम रोशन कर रही है. अंडर-17 और अंडर-19 में झारखंड का नाम रोशन करने में सफल रही बिरसमनी राष्ट्रीय स्तर पर मशहूर हो गयी है. इन दिनों वह जहां अपने संस्था में रहने वाली लड़कियों को फुटबॉल सिखा रही है, वहीं दूसरे स्कूलों और पंचायतों में जाकर फुटबॉल कोच की जिम्मेदारी भी निभा रही है.

रोनाल्डो बनने का सपना, 7 नंबर की जर्सी है फेवरेट

रांची रैंकर्स नाम की टीम चलाने वाली आशा बिरसमनी रोनाल्डो से काफी प्रेरित है और यही वजह है कि वह जब भी मैदान में उतरती हैं तो सात नंबर की जर्सी पहनकर न सिर्फ महिला खिलाड़ियों को सीख देती हैं बल्कि मैच में विरोधी टीम के छक्के भी छुड़ा देती है.

ईटीवी भारत के साथ अपने पुराने दिनों को याद करते हुए बिरसमनी कहती है कि आम धारणा है कि फुटबॉल केवल पुरुषों का खेल है. लेकिन इस धारणा को मिटाने के लिए मैं उन सभी लड़कियों को प्रशिक्षित करती हूं जो यह खेल खेलना चाहती हैं और उन्हें फुटबॉल खेलने के लिए प्रेरित करती हूं. आज, 300 से अधिक महिला फुटबॉल खिलाड़ी हैं जो हर दिन मेरे साथ खेलती हैं. महिला खिलाड़ी उर्मिला खाखा और सविता कुमारी कहती हैं कि बिरसमनी की खेल प्रतिभा हमारे लिए प्रेरणादायक है.

बिरसमनी के माता-पिता ईंट भट्टे पर करते हैं मजदूरी

खूंटी के कर्रा प्रखंड के बांसजारी गांव के बिरसमनी के पिता लोहार धनवार और मां सुप्रो धनवार ईंट भट्ठा में मजदूरी कर परिवार का भरण-पोषण करते हैं. परिवार की आर्थिक स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे साल के 6 महीने मजदूरी के लिए दूसरे राज्यों में बिताते हैं. आशा संस्था के मुख्य प्रबंधक अजय का कहना है कि जब इस छोटी सी बच्ची को हुबली से लाया गया तो पौष्टिक आहार नहीं मिलने के कारण वह काफी बीमार थी. बाद में यहीं रहकर वह बड़ी हुईं और आज फुटबॉल में राष्ट्रीय स्तर पर नाम कमा रही हैं, जो बहुत बड़ी बात है.

विदेशी मेहमान भी बिरसमनी की सफलता की कहानी की तारीफ करते नहीं थकते. जब ईटीवी भारत की टीम बिरसमनी की कहानी कवर करने वहां पहुंची तो फ्रांस से आया एक विदेशी दंपती बिरसमनी की सफलता को उन्हीं की जुबानी सुनता नजर आया.

बहरहाल, झारखंड में पलायन एक बड़ी समस्या है, इस दौरान बड़ी संख्या में लोग अपनी आजीविका के लिए पलायन करने को मजबूर होते हैं. ऐसे में बिरसमनी जैसी नन्हीं परी का क्या दोष, जिसे अपने घर के आंगन में पलने के बजाय ईंट भट्ठों पर समय गुजारना पड़ा. जरूरत है कि आशा जैसे प्रयास अन्य सरकारी व गैर सरकारी स्तर पर भी किए जाए ताकि इन युवाओं को पहचान मिल सके.

यह भी पढ़ें: खास है जलकुंभी से बनी साड़ी! जानिए कॉर्पोरेट नौकरी छोड़ गौरव आनंद ने इसे कैसे बनाया रोजगार का साधन

यह भी पढ़ें: 2 किलो राशन ने झारखंडियों को बनाया छत्तीसगढ़िया, जानिए बूढ़ा पहाड़ के नावाटोली के ग्रामीणों की दिलचस्प कहानी

यह भी पढ़ें: हादसे में पैर गंवाया, फिर थामा तीर कमान, अब कोटा के अरविंद सैनी नेशनल गेम्स में करेंगे तीरंदाजी

रांची की फुटबॉलर बिरसमनी के संघर्ष की कहानी

रांची: रोटी की खातिर अपने माता-पिता के साथ पलायन करने को मजबूर खूंटी की बिरसमनी की कहानी किसी फिल्म से कम नहीं है. जब इस लड़की ने ईटीवी भारत को अपने बचपन का स्याह सच बताया तो ये वाकई किसी दर्द भरी कहानी से कम नहीं था. जिल उम्र में उसे आंगन में खेलना था, उस उम्र में उसके छोटे से हाथ ईंट भट्ठे में अपने माता-पिता की मदद करते रहे. जिस समय उसे स्कूल जाना चाहिए था वह समय ईंट भट्ठे पर बीता. सामाजिक संस्था आशा की नजर उस पर पड़ी, जिसने बिरसमनी की जिंदगी ही बदल डाली.

इस संस्था द्वारा छह साल की उम्र में बंगाल के हुबली से बचाकर रांची लाई गई बिरसमनी आज सफलता की नई लकीर खींचने की कोशिश कर रही है. 2011 में हुबली के ईंट भट्ठे से बचाई गई इस लड़की के लिए रांची के भुसूर स्थित आशा संस्था ही उसके घर का आंगन है. समय के साथ बड़े होते हुए बिरसमनी धनवार ने 2020 में कस्तूरबा प्लस टू हाई स्कूल घासीदास से 65% अंकों के साथ मैट्रिक पास की और फिर उसी स्कूल से 69.4% अंकों के साथ इंटरमीडिएट पूरा किया.

रांची के जेएन कॉलेज से बीए ज्योग्राफी में ग्रेजुएशन कर रही बिरसमानी आज पढ़ाई के साथ-साथ फुटबॉल में भी नाम रोशन कर रही है. अंडर-17 और अंडर-19 में झारखंड का नाम रोशन करने में सफल रही बिरसमनी राष्ट्रीय स्तर पर मशहूर हो गयी है. इन दिनों वह जहां अपने संस्था में रहने वाली लड़कियों को फुटबॉल सिखा रही है, वहीं दूसरे स्कूलों और पंचायतों में जाकर फुटबॉल कोच की जिम्मेदारी भी निभा रही है.

रोनाल्डो बनने का सपना, 7 नंबर की जर्सी है फेवरेट

रांची रैंकर्स नाम की टीम चलाने वाली आशा बिरसमनी रोनाल्डो से काफी प्रेरित है और यही वजह है कि वह जब भी मैदान में उतरती हैं तो सात नंबर की जर्सी पहनकर न सिर्फ महिला खिलाड़ियों को सीख देती हैं बल्कि मैच में विरोधी टीम के छक्के भी छुड़ा देती है.

ईटीवी भारत के साथ अपने पुराने दिनों को याद करते हुए बिरसमनी कहती है कि आम धारणा है कि फुटबॉल केवल पुरुषों का खेल है. लेकिन इस धारणा को मिटाने के लिए मैं उन सभी लड़कियों को प्रशिक्षित करती हूं जो यह खेल खेलना चाहती हैं और उन्हें फुटबॉल खेलने के लिए प्रेरित करती हूं. आज, 300 से अधिक महिला फुटबॉल खिलाड़ी हैं जो हर दिन मेरे साथ खेलती हैं. महिला खिलाड़ी उर्मिला खाखा और सविता कुमारी कहती हैं कि बिरसमनी की खेल प्रतिभा हमारे लिए प्रेरणादायक है.

बिरसमनी के माता-पिता ईंट भट्टे पर करते हैं मजदूरी

खूंटी के कर्रा प्रखंड के बांसजारी गांव के बिरसमनी के पिता लोहार धनवार और मां सुप्रो धनवार ईंट भट्ठा में मजदूरी कर परिवार का भरण-पोषण करते हैं. परिवार की आर्थिक स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे साल के 6 महीने मजदूरी के लिए दूसरे राज्यों में बिताते हैं. आशा संस्था के मुख्य प्रबंधक अजय का कहना है कि जब इस छोटी सी बच्ची को हुबली से लाया गया तो पौष्टिक आहार नहीं मिलने के कारण वह काफी बीमार थी. बाद में यहीं रहकर वह बड़ी हुईं और आज फुटबॉल में राष्ट्रीय स्तर पर नाम कमा रही हैं, जो बहुत बड़ी बात है.

विदेशी मेहमान भी बिरसमनी की सफलता की कहानी की तारीफ करते नहीं थकते. जब ईटीवी भारत की टीम बिरसमनी की कहानी कवर करने वहां पहुंची तो फ्रांस से आया एक विदेशी दंपती बिरसमनी की सफलता को उन्हीं की जुबानी सुनता नजर आया.

बहरहाल, झारखंड में पलायन एक बड़ी समस्या है, इस दौरान बड़ी संख्या में लोग अपनी आजीविका के लिए पलायन करने को मजबूर होते हैं. ऐसे में बिरसमनी जैसी नन्हीं परी का क्या दोष, जिसे अपने घर के आंगन में पलने के बजाय ईंट भट्ठों पर समय गुजारना पड़ा. जरूरत है कि आशा जैसे प्रयास अन्य सरकारी व गैर सरकारी स्तर पर भी किए जाए ताकि इन युवाओं को पहचान मिल सके.

यह भी पढ़ें: खास है जलकुंभी से बनी साड़ी! जानिए कॉर्पोरेट नौकरी छोड़ गौरव आनंद ने इसे कैसे बनाया रोजगार का साधन

यह भी पढ़ें: 2 किलो राशन ने झारखंडियों को बनाया छत्तीसगढ़िया, जानिए बूढ़ा पहाड़ के नावाटोली के ग्रामीणों की दिलचस्प कहानी

यह भी पढ़ें: हादसे में पैर गंवाया, फिर थामा तीर कमान, अब कोटा के अरविंद सैनी नेशनल गेम्स में करेंगे तीरंदाजी

Last Updated : Mar 8, 2024, 6:23 AM IST
ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.